कविता

अधूरी ख्वाहिशेँ

पिता की झुर्रियों पर
जमी है
बर्षोँ की अधूरी ख्वाहिशेँ
परत दर परत
उधेड़ना चाहता है मन
बची खुची जिन्दगी मेँ . . .

सूनी आँखोँ मेँ
अभी भी बाकी हैं
सुनहरे सपने
आने वाले दिनों के
मोटे फ्रेम के चश्मे से
झांकता है
वह सुनहरा कल . . .

कसक
कुछ न कर पाने का
अपनी छूटती जड़ोँ मेँ
वह रोपना चाहता है
हसरतोँ के बीज
अपनी अगली पीढ़ी के लिए . . .

— सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- sangsar.seema777@gmail.com आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

3 thoughts on “अधूरी ख्वाहिशेँ

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ठीक कहा आप ने .

  • उपासना सियाग

    बहुत सुन्दर ….

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता.

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