धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेदों की उत्पत्ति कब व किससे हुई?

भारतीय व विदेशी विद्वान स्वीकार करते हैं कि वेद संसार के पुस्तकालय की सबसे पुरानी पुस्तकें हैं। वेद चार है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। यह चारों वेद संस्कृत में हैं। महाभारत ग्रन्थ का यदि अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि महाभारत काल में भी वेद विद्यमान थे। महाभारत में योगेश्वर श्री कृष्ण और अनेक पात्रों द्वारा वेदों का आदर के साथ उल्लेख मिलता है। रामायण का अध्ययन करें तो वहां भी वेदों का वर्णन मिलता है। रामायण में ऋषि-मुनियों द्वारा यज्ञ करने का विवरण भी मिलता है जिनकी राक्षसों से रक्षा करने के लिए महर्षि विश्वामित्र राम वलक्ष्मरण को दशरथ से मांग कर अपने साथ अपने आश्रमों में ले गये थे। रावण के बारे में कहा जाता है कि वह चारों वेदों का विद्वान था। मर्यादा पुरूषोत्तम राम के श्वसुर महाराज जनक भी वेदों के विद्वान थे। प्राचीन उपनिषद ग्रन्थ में याज्ञवल्क्य का महाराज जनक से वार्तालाप प्राप्त होता है जिसमें वह वेदों की चर्चा करते हैं। रामायण व महाभारत काल में संसार में वेदों के अतिरिक्त दूसरा कोई ज्ञान का पुस्तक या धर्म ग्रन्थ होने का प्रमाण नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता है कि वेद ज्ञान की पुस्तकें एवं संसार में सर्वप्राचीन हैं। अब यदि वेद सर्वप्राचीन हैं तो वेद किसकी रचना है अर्थात् वेदों का रचयिता कौन है? पहली सम्भावना तो यह कही जा सकती है कि यह ग्रन्थ किसी ऋषि ने या बहुत से ऋषियों ने मिलकर बनाया होगा। परन्तु वेदों की उत्पत्ति किसी ऋषि से नहीं हुई, यह वेदों की अन्तःसाक्षी से ज्ञात होता है।

रामायण तथा महाभारत के उदाहरणों से यह तो ज्ञात होता है कि इन दोनों कालों में न केवल हमारे देश का अपितु विश्व के धार्मिक, सामाजिक, व्यवहार तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का एक ही ग्रन्थ था और वह था वेद क्योंकि वेदेतर किसी ग्रन्थ का उल्लेख, विचारधारा व सिद्धान्त इन सर्व प्राचीन ग्रन्थ वेदों में नहीं है। वेद के अतिरिक्त अन्य वैदिक साहित्य जिनमें मनुस्मृति, उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थ आते हैं, इन सबमें भी वेदों का ही उल्लेख मिलता है अन्य किसी वेद तुल्य या वेदों से भिन्न ग्रन्थ का नहीं। अतः वेद एक मात्र प्राचीनतम् ग्रन्थ है, यह सिद्ध हो जाता है। अब यह देखना है कि वेदों की उत्पत्ति किस प्रकार से हुई? वेद का अर्थ ज्ञान होता है। वेद से ही विद्वान शब्द बिना है और विद्वान ज्ञानी को या जानने वालों को कहते हैं। वेद से ही विद्या शब्द बना है जिसका अर्थ भी ज्ञान या knowledge है। अब यदि हम यह जान लंे कि ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है तो यह ज्ञात हो जायेगा कि वेद की उत्पत्ति कैसे व किससे हुई? ज्ञान का सम्बन्ध हमारी आत्मा व बुद्धि से है। आत्मा एक चेतन तत्व है। चेतन से भिन्न तत्व को हम जड़ तत्व, निर्जीव व अचेतन कहते हैं। जड़ तत्वों में कुछ नियम कार्य करते हैं परन्तु उन्हें उसका ज्ञान नहीं है। हम अर्थात् मनुष्यों को स्वयं का और जड़ तत्वों का भी ज्ञान है। उदाहरण के लिए जल को लेते हैं। हमें यह ज्ञान है कि जल द्रव है, ठोस या गैस नहीं है। जल परमाणुओं से मिलकर बना है। जल में हाईड्रोजन तथा आक्सीजन के परमाणु है। सूक्ष्म विज्ञान से ज्ञात होता है कि जल अणुओं का समूह है। अणु परमाणु का समूह होते हैं। हाईड्रोजन के दो परमाणु आक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर जल का एक अणु तैयार करते है। जल बनाने का यह कार्य हम स्वयं हाईड्रोजन व आक्सीजन गैस को मिलाकर भी कर सकते हैं। यह ज्ञान हम मनुष्यों को तो होता है परन्तु जल या अन्य किसी अचेतन वा जड़ तत्व को नहीं होता। अब हमारे पास एक ही सम्भावना है कि यह वेद अर्थात् ज्ञान किसी चेतन तत्व के द्वारा निर्मित व उत्पन्न है।

जब हम मनुष्यों की ज्ञान की सीमाओं को देखते हैं कि कोई मनुष्य कितना ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है जिसका वह स्वयं निर्माण नहीं करता अपितु वह उसे अपने माता-पिता-आचार्य-संबंधियों आदि से प्राप्त होती है। ज्ञान हमेशा भाषा में निहित होता है। यदि भाषा नहीं तो ज्ञान नहीं और यदि ज्ञान है तो भाषा अनिवार्यतः होगी। जब हम भाषा की खोज करते हुए सृष्टि के आरम्भ में पहुंचते हैं तो ज्ञात होता है कि मनुष्य तथा समस्त प्राणी जगत अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुआ था। अमैथुनी सृष्टि का अर्थ है कि बिना माता-पिता के सन्तान का जन्म होना। सृष्टि बनने के बाद जब पहले-पहल मनुष्य अर्थात् स्त्री व पुरूषों का आविर्भाव हुआ होगा तो माता-पिता के न होने से वह किसी अन्य सत्ता से उत्पन्न हुआ होगा। उसी की खोज व उसको जानना ही मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य कह सकते हैं। संसार पर दृष्टि डालने पर ज्ञान होता है कि उस सत्ता के बारे में सत्य ज्ञान लगभग न के बराबर है। मनुष्य अपने भोजन, मनोरंजन व स्वार्थ के कार्यो में ही लगा रहता है। इस प्रश्न पर विचार करने की ओर उसका ध्यान जाता ही नहीं है। यदि वह कोशिश करे और पूर्वाग्रह से मुक्त हो तो इस प्रश्न का उत्तर कठिन नहीं है। इसका उत्तर यही हो सकता है कि एक अज्ञात सत्ता है जिससे मनुष्य व सभी प्राणियों का जन्म सृष्टि के आरम्भ में हुआ था और अब भी होता है। उसी सत्ता से यह ब्रह्माण्ड भी बना है। इस विश्व व ब्रह्माण्ड का जो संगठित रूप है वह इसके एक सर्वशक्तिमान सत्ता से उत्पन्न होने का अनुमान व विश्वास व सम्भावना व्यक्त करता है। अब यदि संसार में एक सर्वशक्तिमान व सृष्टि और प्राणियों की रचना करने वाली व संसार को व्यवस्थित रूप से चलाने वाली सत्ता है तो वह दिखाई क्यों नहीं देती? इसका उत्तर है कि हम स्वयं की आत्मा को भी तो नहीं देख पाते। हमने कई बार मृत्यु का दृश्य देखा है परन्तु हमें मृत्यु के समय जीवात्मा का शरीर से निकलना तो अनुभव होता है परन्तु शरीर से निकलने वाला चेतन तत्व “जीवात्मा” आंखों से किसी को कहीं दिखाई नहीं देता। फिर भी हम आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। हम सभी में यहां तक की पशुओं में भी “मैं हूं” की अनुभूति हर क्षण होती है और “मैं नहीं हूं” की अनुभूति किसी को कभी नहीं होती। इसी प्रकार संसार में आत्मा की तरह दिखाई न देने पर भी एक सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ सत्ता का अनुमान होता है। दिखाई न देने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह सत्ता या ईश्वर है ही नहीं। इसको इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि हम जिस वस्तु को देखते हैं तो इसमें हमे क्या दिखाई देता है? हमें उस वस्तु के गुण व कर्म दिखाई देते हैं। गुण व कर्म हमेशा गुणी में निहित होते हैं। हम अपने प्रिय मित्र को देखते हैं तो हम कहते हैं कि हमने उसको देखा। हम उसके शरीर व अंगों को तथा उसके कर्मों वा कार्यों को देखते हैं अथवा उसकी वाणी को सुनते हैं। क्या यह शरीर, उसके अंग-प्रत्यंग व उसकी वाणी ही वह व्यक्ति है, नहीं यह तो उसका बाह्य स्वरूप है। मनुष्य का एक हाथ कट जाये तो भी वह जीवित रहता है। पैर कट जाये तो भी जीवित रह सकता है। आंखों से दिखाई न देने, कानों से सुनाई न देने, नांक से न सूघने और मुंह से बोलना सम्भव न होने पर भी मनुष्य तो रहता ही है। यह सब अंग तो एक तत्व “मैं” के होते हैं जो कहता है कि यह मेरा हाथ है, मेरा पैर, मुंह, जिह्वा, नाक, कान व आंख आदि हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वह इन से भिन्न कोई और है। मेरी पुस्तक और मेरी गाड़ी जिस प्रकार से मैं नहीं उसी प्रकार से मेरा शरीर व इसके अंग-प्रत्यंग मैं नहीं हैं, मेरे अवश्य हैं। वह मैं आत्मा है जिसका की शरीर व अंग प्रत्यंग होते हैं और जो दिखाई देते हैं परन्तु गुणी, पुरूष, जो जीवात्मा है, दिखाई नहीं देता। अतः गुणी आत्मा है जिसका शरीर व अंग प्रत्यंगों व गुणों के कारण हम कहते हैं कि हम अमुक को देख रहे हैं। इसी प्रकार संसार में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु की रचना विशेष एवं गुणों को देखकर इसमें अन्तर्निहित तत्व “ईश्वर” का होना सिद्ध होता है। यह अनादि, नित्य, सनातन, शाश्वत, अजन्मा, अविनाशी होने और स्वरूप से चेतन तत्व होने से ज्ञान व कम अर्थात् गति से युक्त होता है। इसी के द्वारा हमारा यह सारा संसार बना है और हमारे पूर्वजों के शरीर व हम सबके शरीर भी इसी सर्वव्यापक सत्ता के द्वारा अब भी बनाये जाकर उनका निर्वहन व पालन किया जा रहा है।

चेतन में ज्ञान का गुण होता है। एकदेशी व ससीम सत्ता “जीवात्मा” का गुण अल्पज्ञता तथा सर्वदेशी, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान का गुण “सर्वज्ञ” अर्थात् पूर्ण ज्ञान होना सिद्ध होता है। इसी सत्ता ने सृष्टि के आरम्भ में जब अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों उत्पन्न किया तो उन सबको ज्ञान व भाषा की व्यवस्था भी की। वह ज्ञान वेद था और भाषा संस्कृत थी। वेदों का ज्ञान व भाषा देने वाली वह सत्ता सर्वव्यापक तथा सर्वातिसूक्ष्म होने से सर्वान्तरर्यामी भी है जिससे वह आत्मा में होने वाले व्यवहारों, सोच-विचार-चिन्तन की साक्षी होती है। वह माता-पिता-आचार्य की तरह शुद्धात्माओं को प्रेरणा भी करता रहता है। हमारे ऋषि मुनि लोग साधना से पवित्र होकर व उसका ध्यान व चिन्तन कर उससे मित्रता स्थापित कर लेते हैं। उन्हें वह ईश्वर उसी प्रकार से स्पष्ट रूप से दिखाई देता अर्थात् भाषता है जैसा कि विद्वानों, ज्ञानियों व वैज्ञानिकों को अपना-अपना विषय सम्मुख दिखाई देता है। जो कम्प्यूटर के ज्ञान में प्रवीण है, उसके लिए कम्प्यूटर का उपयोग करना व उससे अपना प्रयोजन सिद्ध करना सरल होता है और जिसे ज्ञान नहीं वह उस कार्य को देख कर आश्चर्य करता है। जब 10-15 वर्ष पूर्व हम इमेल का नाम सुनते थे तो हमें विश्वास ही नहीं होता था कि यह सम्भव है। कम्प्यूटर होते हुए भी वर्षों तक हम इमेल का प्रयोग करना नहीं जान पाये। और अब यह स्थिति है कि 5 मिनट की अवधि में 1,000 मेल कर देते हैं। अतः हम अध्ययन, चिन्तन, मनन, साधना व योग के सभी अंगों में दक्ष होकर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हैं। निरन्तर साधना व समय की अपेक्षा होती है और दिशा सही होनी चाहिये। उसी प्रकार से जिस प्रकार से हमारे वैज्ञानिक व विद्वान अपने-अपने विषय का साक्षात्कार करते हैं। हम यह निवेदन करेंगे कि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान भाषा सहित दिया था। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि के सत्य स्वरूप का वर्णन है। सत्यार्थ प्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है जिसे प्रत्येक मनुष्य को बार-बार पढ़ना चाहिये। इससे वेदोत्पत्ति सहित सभी विषयों का ज्ञान होगा। इससे ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप के साथ-साथ वेदोत्पत्ति कब, कैसे, किससे, क्यों हुई व अन्य इनसे जुड़े सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जायेगा जिसका विचार हमने लेख में किया है। वेद की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से जीवात्मा के मार्ग दर्शन के लिए अर्थात् धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति के लिए हुई है, यह उत्तर प्राप्त होता है।

-मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “वेदों की उत्पत्ति कब व किससे हुई?

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख.

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद।

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