उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 8)

बाबा के ही गाँव कारब के निवासी एक अन्य अध्यापक थे श्री बाबू लाल शास्त्री। शास्त्री जी हिन्दी और संस्कृत के विद्वान थे। संस्कृत पढ़ाने का उनका तरीका बहुत अच्छा था। यही कारण है कि संस्कृत जैसे कठिन विषय में भी मेरी रुचि अच्छी तरह जाग्रत हो गयी थी। आगे हाईस्कूल तक मेरे पास संस्कृत एक विषय के रूप में रहा और मेरा संस्कृत का ज्ञान अभी भी इतना है कि हाईस्कूल को आसानी से पढ़ा सकता हूँं। शास्त्री जी की प्रेरणा से मैंने सैकड़ों श्लोक याद कर रखे थे और उन्हें लय के साथ गाया करता था। मैं कक्षा सात में ही था कि उनका स्थानान्तरण दूसरे गाँव में हो गया। उनकी विदाई के समय मुझे भी बोलने के लिए खड़ा किया गया। मैंने उनसे ज्ञान दान के प्रति आभार व्यक्त किया तथा बिछुड़ने पर दुःख प्रकट किया, जैसी कि परम्परा है। लेकिन मेरे वक्तव्य में नयी बात यह थी कि मैंने उनसे देशभक्त और विद्वान् बनने का आशीर्वाद भी माँगा था। मेरी इस भावना की समस्त अध्यापकों ने बहुत सराहना की थी।

हमें अंग्रेजी पढ़ाया करते थे श्री कारेलाल शर्मा, जो बिसावर के पास के किसी गाँव के निवासी थे। अपने नाम के अनुसार उनका रंग एकदम काला था तथा कद काठी में भी विशाल थे। अपनी साईकिल को घोड़ी समझकर बैठा करते थे। ऊपर से देखने में बहुत कठोर थे तथा उनकी वाणी भी बहुत भारी थी। स्वाभाविक ही अधिकांश छात्र उनसे भय खाते थे। इसके कई कारण थे। पहला कारण था- अंग्रेजी जैसी कठिन भाषा का शिक्षक होना। ज्यादातर छात्र छात्रायें अंग्रेजी के नाम से ही कांपते थे। दूसरा कारण था- उनकी मुखाकृति कठोर होना। तीसरा कारण था- उनकी कठोर वाणी तथा चौथा और शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण था- मामूली गलती पर कठोर सजा देना। लेकिन मैं जानता हूँ कि अन्दर से वे काफी कोमल थे। पूरे विद्यालय में शायद मैं ही एक ऐसा छात्र था जो बिना खौफ के उनके पास चला जाता था तथा उनसे बातें भी करता था। वे मुझे बहुत प्यार करते थे, हालांकि दिखावे के लिए मुझे भी दूसरों की तरह डाँटते और मारते थे। कारण यह था कि मेरा अंग्रेजी का ज्ञान दूसरे सब छात्रों से काफी अच्छा था। कई बार ऐसा हुआ कि उनके किसी प्रश्न का उत्तर पूरी कक्षा नहीं दे पायी और मैंने दे दिया। अगर किसी प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दे पाता था, तो यह मान लिया जाता था कि पूरी कक्षा में कोई नहीं दे पायेगा।

एक घटना मुझे अभी भी अच्छी तरह याद है। उस समय मैं कक्षा छः में था और अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे। एक बार उन्होंने ‘टीचर’ की स्पैलिंग पूछी। ‘टीचर’ हमने पढ़ा तो था लेकिन स्पैलिंग मुझे भी याद नहीं थी। एक-एक करके सभी छात्रों को खड़ा करके टीचर की स्पैलिंग पूछ रहे थे। सबके बाद मेरी बारी आने वाली थी। स्पैलिंग मुझे भी याद नहीं थी, अतः मैं भी घबड़ा रहा था कि आज जाने क्या होगा। पूरी कक्षा में कोई न बता पाया। तब उन्होंने अन्त में मुझे खड़ा कर दिया। उन्हें पूरा विश्वास था कि इसे जरूर याद होगी। मैं खड़ा तो हो गया लेकिन स्पैलिंग याद नहीं थी। तभी पता नहीं क्या हुआ कि मेरे मुँह से अपने आप निकलने लगा ‘टी..ई..ए..सी..एच..ई..आर’। मैंने संतोष की साँस ली ही थी कि उनकी आवाज आयी- ‘फिर बोल’। मैं फिर घबड़ा गया। स्पैलिंग वास्तव में मुझे याद नहीं थी। लेकिन मैंने अपने दिमाग पर कुछ जोर डाला और फिर बोल दिया ‘टी..ई..ए..सी..एच..ई..आर’। पूरा होते ही फिर आवाज आयी ‘फिर बोल’। अब तक मुझे स्पैलिंग याद हो गयी थी, अतः तीसरी बार बोलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। उन्होंने दो बार और बुलवाई और फिर आदेश दिया कि ‘लगा सारी कक्षा में घूँसा।’ सारे छात्रों में घूँसे मैंने पहले तथा बाद में भी कई बार लगाये थे, मगर उस दिन घूँसे लगाने में जो आनन्द आया, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

ऐसी ही घटनाओं से मैं उनका प्रिय छात्र हो गया था। अपने से नीची कक्षाओं की परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाएं भी वे मुझे जाँचने के लिए दे दिया करते थे। वे गाने के बहुत शौकीन थे। अपनी आवाज भारी होते हुए भी वे गीत बहुत मधुर और ऊँची आवाज में गाया करते थे। उन्हें रामचरित मानस काफी हद तक कंठस्थ था और उनकी वाणी से सुनने का सौभाग्य भी हमें कई बार मिला था। अन्य सैकड़ों पद और गीत भी उन्हें याद थे, जिनका रसास्वादन समय-समय पर हम किया करते थे। वे छात्रों को भी गाने के लिए प्रोत्साहित करते थे तथा पुरस्कार में अपनी लिखी किताबें, अमरूद आदि दिया करते थे।मुझे आज भी उनकी याद आती है तथा उनकी चरण रज लेने को मैं आज भी तड़पता रहता हूँ। पता नहीं आज कल वे कहाँ हैं और मेरी उन्हें याद है या नहीं।

सामाजिक विषयों के हमारे अध्यापक थे श्री बल्लेराम उर्फ मुंशी जी। एक अनुसूचित जाति के होने पर भी वे सभी छात्रों, अभिवावकों और अध्यापकों में समान रूप से लोकप्रिय थे। उनकी चरण रज लेने का सौभाग्य भी मुझे मिला है। वे बहुत ही अच्छे अध्यापक थे। मृदृभाषी, कोमल तथा आवश्यकता पड़ने पर कठोर भी थे। लेकिन ज्यादातर वे बहुत स्नेहपूर्ण व्यवहार करते थे। बड़ी से बड़ी गलतियों के लिए भी मामूली सी सजा देकर छोड़ देते थे, लेकिन उनकी बात का इतना प्रभाव होता था कि कोई भी विद्यार्थी वह गलती भूलकर भी दुबारा नहीं करता था। मुंशी जी कालान्तर में उसी विद्यालय में प्रधानाध्यापक भी बने तथा रिटायर हो गये। कभी-कभी उनसे मुलाकात हो जाती थी, उनका एक लड़का है – महेन्द्र, जो मेरा अच्छा मित्र था। आज कल वह कहाँ है, मालूम नहीं।

विज्ञान और कला के हमारे अध्यापक थे श्री राम खिलाड़ी जी, बल्टी गढ़ी निवासी। जाति के जाट होने के कारण वे छात्रों में ‘धुर्रा जाट’ माने जाते थे और उनका स्वभाव था भी ऐसा ही। एक क्षण महान् विद्वता की बातें करेंगे और दूसरे ही क्षण कोई ऐसी मूर्खतापूर्ण बात कह जायेंगे कि मजा आ जाय। जैसे पढ़ाते-पढ़ाते कहेंगे कि ‘मनुष्य के शरीर में स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए लाल रंग के कीटाणु होते हैं। जब किसी रोग के सफेद रंग के कीटाणु शरीर में जाते हैं, तो दोनों तरह के कीटाणुओं में युद्ध होता है।’ और साथ ही यहीं पर यह भी जड़ देंगे कि ‘पन्हा मारु बाजतिऐ’ अर्थात जूता-मार होती है। इसी तरह अगर कोई छात्र कहता है ‘साब नेंक गलत है’ तो वे कहेंगे ‘नेंक में तौ आँखि फूटि जांति ऐ’। यदि कोई छात्र पूछने जाता है कि ‘साहब, यह क्या है?’ तो वे प्रायः कहते थे- ‘जि तेयौ दादा ऐ।’ दादा हमारे इलाके में बाप को कहा जाता है। लेकिन वे बहुत सज्जन हैं और अभी भी काफी लोकप्रिय हैं। वे भी मुझे बहुत प्यार करते हैं।

बहुत थोड़े समय तक राया कसबे के पास के किसी गाँव के निवासी श्री जगदीश प्रसाद शर्मा हमारे संस्कृत के अध्यापक रहे। वे नयी उम्र के और कुछ स्वतन्त्र विचारों के व्यक्ति थे और अनुशासन प्रिय थे, हालांकि काफी स्नेहशील भी थे। वे मुझे बहुत स्नेह करते थे। लेकिन उनका गाँव बहुत दूर होने के कारण शीघ्र ही उनका स्थानान्तरण हो गया था। उनकी विदाई के समय मुझे काफी दुःख हुआ था और मैं बहुत रोया था। आज वे कहाँ हैं, मुझे पता नहीं, लेकिन जहाँ भी होंगे सकुशल ही होंगे। इनके अतिरिक्त श्री बृजलाल रावत, श्री गनपति सिंह और श्री रामरूप भी जूनियर हाईस्कूल में मेरे शिक्षक रहे। उनके बारे में मेरा कोई खास संस्मरण नहीं है।

उस विद्यालय में मेरे अन्तिम वर्ष में, अर्थात् जब मैं कक्षा 8 में था, कारब निवासी श्री मोहन लाल शर्मा हमारे प्रधानाध्यापक बनकर आये। वे श्री बाबू लाल जी शास्त्री के सगे छोटे भाई थे। अपने बड़े भाई की तरह वे भी संस्कृत और हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे और काफी स्नेहशील थे, हालांकि प्रधानाध्यापक होने के कारण अनुशासन प्रिय भी थे। पूरे वर्ष भर उन्होंने मुझे अत्यधिक स्नेह दिया। वे मेरी तीक्ष्ण बुद्धि से प्रभावित होकर मुझे प्रायः ‘अक्ल का पुतला’ कहा करते थे। कई बार वे मेरे छोटे कद का भी मजाक बनाया करते थे। उनकी सिर्फ एक ही ऐसी आदत थी, जो मुझे ही नहीं बल्कि समस्त विद्यालय को नापसन्द थी। वह यह कि वे प्रायः खैनी मीड़कर खाया करते थे और कक्षा में ही दीवाल पर पीक थूका करते थे, जो कि काफी बुरा लगता था।

कक्षा 5 से कक्षा 8 में दूसरे विद्यालय में आने के बाद भी पहले विद्यालय से मेरा नाता नहीं टूट सका था। वह वर्ष 1969 था, अतः अक्टूबर में गाँधी शताब्दी का उत्सव जिला स्तर पर पूरे देश में हो रहा था। हमारे मथुरा जिले का सम्मिलित उत्सव छाता नामक कस्बे में था। प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा ने अछूतोद्धार पर एक नाटक तैयार किया था, जिसमें मुझे गाँधी जी की भूमिका दी गई थी। एक दिन हम अपने गाँव से चलकर बस द्वारा पहले अपने ब्लाक मुख्यालय बल्देव (दाऊजी) पहुँचे, फिर वहाँ से दूसरी बस से मथुरा होकर छाता पहुँचे थे। हमारा भोजन बनाने के लिए गाँव का एक आदमी भी साथ था। हमारे साथ जूनियर हाईस्कूल के दूसरे कुछ लड़के भी थे, जो एक लोकगीत प्रस्तुत करने जा रहे थे। उनमें मेरे बड़े भाई गोविन्द स्वरूप और उन्हीं की कक्षा के चन्द्रभान आदि थे।

नाटक की प्रस्तुति वाले दिन प्रधानाध्यापक जी ने मेरा सिर उस्तरे से बिल्कुल साफ करा दिया था तथा एक नजर का चश्मा भी मेरे लगा दिया था जिसे मेरा हुलिया बिल्कुल महात्मा गाँधी जैसा हो गया था। नाटक काफी सफल रहा था और मेरा पार्ट खास तौर पर सराहा गया था, लेकिन कुछ कारणों से हमें कोई पुरस्कार नहीं मिल सका था। वैसे हमारे पूरे दल द्वारा प्रस्तुत अधिकतर कार्यक्रम पूर्णतया सफल रहे थे और उनको पुरस्कार भी मिले थे।

वहाँ से प्रस्थान करने के दिन हमें छाता से बल्देव पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो गयी थी। मैं प्रायः जल्दी सो जाने का अभ्यस्त था अतः मैं रास्ते भर प्रधानाध्यापक जी की गोद में सोता हुआ आया था। बल्देव आने के बाद भी वे मुझे कन्धे पर चिपका कर बस से उतार कर बिस्तर तक ले गये थे। वे प्रायः कहा करते थे कि मुझे मेरे घर तक सुरक्षित पहुँचाने का दायित्व उनका है। उनके उस प्यार भरे व्यवहार को मैं आज भी नहीं भूल पाया हूँ और शायद कभी नहीं भूल सकूँगा।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 8)

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, बहिन जी.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छा लग रहा है .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब !

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