उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 10)

अध्याय-4: पलायन

क्या पूछता है तू मेरी बरबादियों का हाल?
थोड़ी सी ख़ाक लेके हवा में उड़ा के देख

कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद मेरी जिन्दगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। उन दिनों हमारे यहाँ रेडीमेड कपड़ों का काम हुआ करता था। हमारे पिताजी तथा दोनों चाचाजी साझे में ही दुकान चलाया करते थे। दुकान पर कई कारीगर काम करते थे और काफी मात्रा में कपड़ा बिक जाता था। जैसा कि प्रायः होता है घर में कलह भी बनी रहती थी, क्योंकि जहाँ तीन परिवार एक साथ रहेंगे, वहाँ कुछ न कुछ खटपट तो होगी ही। यह बात अवश्य है कि हमारे घर में कलह की मात्रा कुछ अधिक थी, शायद इसीलिए हमारा शारीरिक विकास अधिक नहीं हुआ।

जिस वर्ष मैंने कक्षा आठ की परीक्षा दी थी उसी वर्ष मेरे बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप कक्षा 10 की परीक्षा में बैठे थे और उनके पास काॅमर्स के विषय थे। उनसे बड़े भाई श्री राममूर्ति विज्ञान विषयों से कक्षा 12 की परीक्षा दे रहे थे। ये दोनों हमारे गाँव के पास के ही एक कस्बे बिसावर में श्री बृजेन्द्र जनता इण्टर काॅलेज के छात्र थे। उस काॅलेज में उन दिनों इण्टर से आगे की पढ़ाई नहीं होती थी और कामर्स की पढ़ाई तो कक्षा 10 के बाद आगे नहीं होती थी। इसलिए दोनों ही भाइयों को किसी दूसरी जगह अपनी आगे की पढ़ाई करनी थी। मेरे सबसे बड़े भाई साहब श्री महावीर प्रसाद एक साल पहले से ही आगरा काॅलेज, आगरा में बी.एससी. में हमारे मामाजी के घर पर रहकर पढ़ रहे थे। बिसावर के काॅलेज का वातावरण मेरे लिए उचित नहीं समझा गया। अतः हम सबका यही विचार बना कि अब सब भाइयों को आगरा जाकर ही आगे की पढ़ाई करनी चाहिए। हमारे साथ माताजी को जाना ही था, क्योंकि चार भाईयों के खाने-पीने की समस्या भी अपने आप में विकराल थी। जब माताजी हमारे साथ जा रही थीं तो दोनों छोटी बहिनों को भी गाँव में नहीं छोड़ा जा सकता था। अन्त में यही निश्चय हुआ कि पिताजी गाँव में ही रहकर दुकान चलायेंगे और हम सब आगरा जाकर अपनी पढ़ाई करेंगे।

हमारा यह निश्चय उजागर होते ही पूरे घर में तूफान आ गया। बड़े चाचाजी ने शायद सोचा कि अब ये आगरा जा रहे हैं जिससे खर्चा बढ़ेगा और आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी। अतः वे तुरन्त अलग होने की कोशिश करने लगे और हमारे आगरा जाने के दो-तीन माह के अन्दर ही अलग भी हो गये। सिर्फ छोटे चाचाजी और पिताजी उस दुकान को चलाते रहे। बड़े चाचा जी ने अपनी अलग बिक्री करना शुरू कर दिया।

यहाँ यह बता देना अनुचित न होगा कि वह वर्ष हमारे परिवार के लिए घोर आर्थिक संकट का वर्ष था। इसके कई कारण थे सबसे बड़ा कारण तो यह था कि उस वर्ष हमारे गाँव में लगातार तीसरे वर्ष विकराल बाढ़ आ गयी, जिससे कि पूरे गाँव की सारी फसल चौपट हो गयी। किसानों की खराब आर्थिक स्थिति का प्रभाव हमारी दुकान पर पड़ना ही था। जब किसानों के पास रुपये ही नहीं थे, तो वे नये कपड़े क्या खरीदते? यहाँ तक कि हमारा उधार का बहुत सारा पैसा मारा गया। दूसरा कारण हमारे पिताजी और माताजी की नजर में यह था कि हमारे बड़े चाचाजी ने हमारी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा चुपचाप छिपाना शुरू कर दिया था, जिसके कारण हमें दुकान में प्रत्यक्षतः घाटा पड़ गया और करीब पन्द्रह हजार रुपये का कर्ज हमारे ऊपर हो गया। उस जमाने में पन्द्रह हजार बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी।

तीसरा कारण यह था कि उस वर्ष हमारे पिताजी को अचानक बहुत खर्च करना पड़ गया। क्योंकि एक तो हमारी दादी और सबसे बड़ी बुआ का स्वर्गवास उन्हीं दिनों हो गया था, जिनके क्रिया-कर्म और ब्रह्मभोज में हमारा काफी खर्चा हो गया। दूसरे पिताजी को कई विवाहों में भात भी देना पड़ा। दुकान के दो हिस्से हो जाने के कारण हमारी आमदनी पर भी बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, क्योंकि हमारे ज्यादातर ग्राहक बड़े चाचाजी की ही जान पहचान के थे। बिक्री प्रायः वे ही किया करते थे। पिताजी तो केवल कपड़े काट कर कारीगरों से सिलवाया करते थे।

अचानक आगरा जाने के कारण भी काफी खर्च सिर पर आ गया था। कुल मिलाकर हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी हो गयी थी कि हमें अपना भविष्य बहुत अंधकारमय लग रहा था। लेकिन संघर्ष के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। संतोष की बात इतनी ही थी कि हमारे छोटे चाचाजी अभी भी हमारे साथ थे और उन दोनों भाइयों ने साथ ही रहना तय किया था। यहाँ मैं अपने पिताजी की हिम्मत की दाद दिये बिना नहीं रहूँगा। भारी कर्ज से दबे रहने पर भी और घोर आर्थिक संकट के दिनों में भी उन्होंने हमें कभी हतोत्साहित नहीं किया, बल्कि हमारा उत्साह ही बढ़ाते थे। कई बार जब आर्थिक संकटों के कारण हमारी मानसिक स्थिति बिगड़ जाती थी तो पिताजी गांव से आकर धैर्य बंधाते थे और कभी-कभी हम भी गाँव चले जाते थे।

किसी ने कहा है कि –
बन जाते हैं सैकड़ों दोस्त जो ज़र पास होता है।
टूट जाता है गरीबी में जो रिश्ता खास होता है।।

अब तक यह हमने केवल पढ़ा ही था लेकिन इन परिस्थितियों में इस बात की सत्यता का पूर्ण आभास हो गया। हमारे गाँव के बहुत से लोग जो हमारी बुलन्दी के दिनों में चिकनी-चुपड़ी बातें किया करते थे। इन दिनों पीठ पीछे हमारा मजाक बनाने लगे थे। उससे कुछ दिनों पहले एक ऐसी घटना हो गयी थी जिससे कारण हमारी प्रतिष्ठा को बहुत धक्का लगा था।

हुआ यों कि उन दिनों हमारे बड़े भाई साहब श्री महावीर प्रसाद आगरा में बी.एससी. प्रथम वर्ष में पढ़ा करते थे तथा हमारी बुआ के घर नाई की मण्डी नामक मोहल्ले में रहते थे। एक बार उन्हें जाने क्या सूझी कि कुछ रुपये और एक सोने की अंगूठी लेकर दो आवारा लड़कों के साथ दिल्ली की तरफ निकल गये और किसी को बताया भी नहीं। तीसरे या चौथे दिन गाँव का एक लड़का यह दुखद समाचार हमारे लिए आगरा से लाया कि हमारे बड़े भाई साहब दो-तीन दिन से लापता हैं। पूरे घर परिवार में हाहाकार मच गया। भाई साहब को काफी ढूँढ़ा गया लेकिन वे नहीं मिल पाये। दिल्ली में उनके साथ हुआ यह था कि वे दोनों लड़के भाई साहब का सारा माल और कपड़े तक लेकर भाग गये और भाई साहब मात्र एक घुटन्ना और बनियान में बिना टिकट सफर करते हुए घोर जाड़े के दिनों में दिल्ली से गाँव के पास एक कस्बे हाथरस में आ गये। सौभाग्य से उन पर किसी टी.टी.ई. की नजर नहीं पड़ी। वहाँ से वे हाथरस में ही एक जान-पहचान के आढ़ती की दुकान पर गये, जिसने सारा समाचार जानने के बाद उन्हें कपड़े पहनाये और एक स्वेटर जर्सी भी खरीदवा दी। हाथरस से वे गाँव के ही एक अन्य आदमी के साथ गाँव में पहुँचे। उन्हें देखकर सबकी जान में जान आयी। हमारी बूढ़ी दादी भी उनकी याद में रोती रहती थी और माता जी ने तो उन आठ दिनों तक खाना भी नहीं खाया था।

इस घटना का हमारे घर की प्रतिष्ठा पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। लोग सोचने लगे थे कि आगरा जाते ही लड़के बिगड़ जाते हैं। अतः जब हम सभी ने आगरा जाने का कार्यक्रम बनाया तो कुछ ‘हितैषियों’ ने मुझसे व्यंग्यपूर्वक कहा भी था कि ‘वह तो दिल्ली गया था, पर तू बम्बई मत चले जाना।’

आगरा जाते समय हमें सबसे ज्यादा चिन्ता अपनी दादी की थी, जिसे हम ‘अम्मा’ कहते थे। हम सोचते थे कि पता नहीं हमारे आगरा जाने के बाद वे किस तरह रहेंगी। उनको आगरा ले जाना भी संभव नहीं था, लेकिन ईश्वर की लीला कुछ ऐसी हुई कि हमारे आगरा जाने के दो-तीन महीने पहले ही अचानक उनका देहान्त हो गया। हमें उनके स्वर्गवास का बहुत दुःख हुआ, लेकिन इसे ईश्वर की इच्छा समझकर संतोष कर लिया।

मेरा कक्षा 8 का परीक्षाफल अभी तक निकला नहीं था, हालांकि मुझे पूरा विश्वास था कि मुझे प्रथम श्रेणी तो मिलेगी ही। लेकिन अनिश्चितता के कारण मन ही मन चिन्तित भी था। उन दिनों हमारे गाँव में कोई अखबार नहीं आता था। अचानक एक दिन गाँव का एक लड़का मेरे पास आया और मेरा रोल नम्बर पूछने लगा मैं समझ गया कि मेरा परीक्षाफल आ गया है। मन ही मन घबराता हुआ और हनुमानजी का नाम लेता हुआ मैं उसके साथ दौड़ पड़ा। जाकर देखा तो मेरा रोल नम्बर प्रथम श्रेणी में दर्ज था। मुझे बेइन्तहा खुशी हुई और इस बात का संतोष भी हुआ कि मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचा ली। मैंने तुरन्त घर आकर माताजी और पिताजी के पैर छुए तथा अन्य बड़ों के भी पैर छूकर आशीर्वाद लिया। मुझे उस समय अम्मा की बहुत याद आयी और रोया भी था कि अगर आज अम्मा होती तो कितनी खुश होती और मैं सबसे पहले उसी के पैर छूकर आशीर्वाद लेता।

कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद मुझे अब कक्षा 9 में दाखिला लेने की चिन्ता थी। राजकीय इण्टर काॅलेज, आगरा उन दिनों आगरा शहर का सबसे अच्छा माध्यमिक विद्यालय माना जाता था और आज भी माना जाता है। मेरी हार्दिक इच्छा उसी में प्रवेश लेने की थी। अतः अपने बड़े भाई साहब से कहकर मैंने अपना फार्म भरवा दिया। वहाँ कक्षा 9 में प्रवेश के लिए एक प्रवेश परीक्षा होती थी। मुझे इस बात का कोई अनुमान नहीं था कि प्रवेश परीक्षा किस तरह की होगी। फिर भी बिना तैयारी किये मैं अपने बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप के साथ आगरा पहुंँच गया। वहाँ मैं अपनी बुआ के यहाँ ठहरा और टेस्ट वाले दिन बुआजी के लड़के अनिल के साथ जाकर टेस्ट दे भी आया। मैं टेस्ट के समय काफी घबड़ा रहा था इसके दो कारण थे- पहला तो यह कि उस समय आगरा मेरे लिए एकदम नया सा था। गाँव के लोगों में शहरों के प्रति कुछ आतंक मिश्रित भावनाएं होती ही हैं, मैं भी इनसे मुक्त नहीं था। दूसरा कारण यह था कि मैं आगरा के शिक्षा स्तर से अनभिज्ञ था और सोचता था कि वहाँ के लड़के कुछ ज्यादा ही प्रतिभाशाली होते होंगे।

उस प्रवेश परीक्षा के आधार पर 300-400 में से लगभग 30-40 छात्र चुने जाने थे, क्योंकि बाकी स्थान उसी विद्यालय के छात्रों के लिए सुरक्षित थे। मुझे अपना चुना जाना बहुत मुश्किल लग रहा था फिर भी मैं जी कड़ा करके परीक्षा दे आया। अपने हिसाब से पर्चे मैंने ज्यादा अच्छे तो नहीं परन्तु ठीक ही किये थे और पर्चे हो जाने के बाद मुझे आशा थी कि अब तो प्रवेश मिल ही जायेगा। फिर भी मैं मन ही मन यह योजना बनाते हुए वहाँ से बुआ के घर से लौटा कि अगर इस काॅलेज में मेरा प्रवेश न हो पाया तो कहाँ प्रवेश लेना ठीक रहेगा। आगरा के ही दूसरे घटिया काॅलेज में प्रवेश लेने की, बिसावर वाले काॅलेज में पढ़ने की और प्राईवेट हाईस्कूल की परीक्षा देने तक की कल्पनायें मैंने कर डालीं।

तीसरे दिन हमारा परिणाम आने वाला था अर्थात् उन छात्रों की सूची आने वाली थी जिनका प्रवेश स्वीकृत हो गया था। उस दिन प्रातः ही मैं उस काॅलेज में गया और डरते-डरते अपना नाम देखने लगा। मैंने उस सूची को नीचे से देखना शुरू किया, क्योंकि मैं सोच रहा था कि मेरा नाम आया भी होगा तो कहीं नीचे ही होगा। जैसे-जैसे मैं सूची में ऊपर की ओर चढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी। परन्तु देखते-देखते मैं ऊपर चलता गया और उस समय मेरे आश्चर्य तथा प्रसन्नता का ठिकाना न रहा, जब मैंने अपना नाम ऊपर से दूसरे नम्बर पर लिखा हुआ देखा। इसका मतलब था कि उन सब लड़कों में से केवल एक लड़का मुझसे ज्यादा अंक उस प्रवेश परीक्षा में ला सका था। मेरी इस सफलता के दो परिणाम हुए। एक, मेरे ऊपर से आगरा की पढ़ाई का आतंक हवा हो चुका था, क्योंकि उसके शिक्षा स्तर की कलई मेरे सामने खुल चुकी थी। दो, मुझमें काफी आत्मविश्वास जाग्रत हो गया था, जो कि विभिन्न कारणों से प्रायः लुप्त होता जा रहा था।

प्रवेश परीक्षा में सफल होने के बाद मैं अपना स्थानान्तरण प्रमाण पत्र आदि लेने गाँव आ गया। अब तक हमारी माताजी गाँव में ही थीं, अतः कुछ दिनों बाद हम सब पूरी तैयारी करके आगरा आ पहुँचे। आगरा में हमें अपने रहने लायक कोई मकान ढूँढ़ना था जो कि जल्दी मिलना आसान नहीं था। अतः हमने अपने मामा जी के घर में ही ठहरने का निश्चय किया, जहाँ कुछ जगह खाली थी। उस समय वहाँ का वातावरण बहुत ही गमगीन था, क्योंकि हमारे आने से ठीक दो दिन पहले ही उसी घर में हमारी बड़ी मौसी के एक जवान लड़के श्री श्रीचन्द्र का कैंसर से देहान्त हो चुका था। इसलिए हमारा आगरा प्रवास रोने-धोने से प्रारम्भ हुआ और काफी दिनों तक उसी तरह दुःखपूर्ण बना रहा, जिसका प्रमुख कारण था आर्थिक और दूसरा कारण था कलह।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 10)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय जी , आप की अत्म्कम्कथा पड़ कर जाहर है आप को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा . मुझे आर्थिक तंगी का सामना तो इतना करना नहीं पड़ा लेकिन घर में जो हमारे ताऊ जी थे बहुत ही बुरे थे और रोज़ शराब पी कर गालिआं निकालते थे . पड़ाई में मैं बहुत हुशिआर तो नहीं कहूँगा फिर भी एक लड़का मुझे से ज़िआदा क्लैवर था और मैट्रिक में मैंने फस्ट डाविजन में पास किया था . हम हर रोज़ शहर बैसिकलों पर जाया करते थे और रास्ते में बहुत मज़े करते थे . एग्जाम से दो तीन महीने पहले हम शहर एक कमरा किराए पर ले लेते थे . वोह दिन हमारे इतने मज़े के होते थे कि जिंदगी भर नहीं भूल सकेंगे .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाई साहब. हमने अमीरी देखी है तो घोर गरीबी भी देखी है. इसके लिए मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूँ, क्योंकि अगर मैंने गरीबी न देखी होती, तो गरीबों का दुःख दर्द नहीं समझ पाता.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, किशोर जी.

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