उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 11)

हमारे आगरा आने के कुछ दिनों बाद ही बड़े चाचाजी ने बँटवारा करा लिया। आगरा आने के कारण हमारा खर्च बढ़ ही गया था। आमदनी कम हो जाने के कारण हमारी अर्थ-व्यवस्था और ज्यादा डगमगाने लगी। पिताजी के ऊपर काफी कर्ज पहले से ही था, खराब आर्थिक स्थिति के कारण वे ब्याज तक चुकाने में असमर्थ थे, अतः कर्जा चढ़ने लगा। हमारे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा प्रायः उसकी आर्थिक स्थिति से आंकी जाती है। हमारी आर्थिक स्थिति खराब होते ही हमारे प्रतिष्ठा भी धूमिल होने लगी। कल तक जो लोग हमारे पिताजी के सामने सिर तक उठाकर नहीं चल सकते थे, अब उनसे बहस और तू-तड़ाक भी करने लगे थे। उन्हीं दिनों दो ऐसी घटनायें हो गयीं, जिनसे हमारी रही-सही प्रतिष्ठा भी धूूूल में मिल गयी। वे दोनों घटनायें इस प्रकार थी।,

मेरे बड़े भाई श्री राममूर्ति ने उस वर्ष जीव विज्ञान के साथ इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी थी, उनका विचार एम.बी.बी.एस. करने अर्थात् डाक्टरी पढ़ने का था अतः वे उस वर्ष सी.पी.एम.टी. की परीक्षा में बैठे। लेकिन ईश्वर की लीला कुछ ऐसी हुई कि तमाम कोशिशों के बाद भी वे उसमें पास नहीं हो पाये।

दूसरी घटना यह थी कि हमारे सबसे बड़े भाईसाहब श्री महावीर प्रसाद जिन्होंने उस वर्ष बी.एस.सी. प्रथम वर्ष की परीक्षा दी थी कुछ अंकों से अनुत्तीर्ण हो गये। ‘फेल’ शब्द के साथ यह हमारा पहला साक्षात्कार था। अब तक हम सभी भाई अच्छे नम्बरों से पास होते आये थे और फेल होने वाले दूसरे लड़कों का प्रायः मजाक बनाया करते थे। लेकिन जब स्वयं हमारे बड़े भाईसाहब फेल हुए, तो हमें इसकी त्रासदी का अनुभव हुआ। इस घटना ने हमारी रही-सही प्रतिष्ठा भी धूल में मिला दी। लेकिन कुछ दिनों बाद ईश्वर की कृपा ऐसी हुई कि विश्वविद्यालय ने उस वर्ष प्रत्येक फेल होने वाले विद्यार्थी को 5 कृपांक प्रदान किए जिनसे हमारे भाई साहब उत्तीर्ण हो गये और उनका एक अमूल्य वर्ष नष्ट होने से बच गया।

आगरा में स्वयं को समंजित करने में अर्थात् खपाने में मुझे थोड़ा समय लगा। अपने छोटे मामाजी के समवयस्क लड़के अरुण से प्रायः मेरा झगड़ा चलता रहता था, क्योंकि हम दोनों का स्वभाव ही ऐसा था। इसमें प्रायः मुझे ही डांट खानी पड़ती थी। कभी-कभी यह झगड़ा बहुत गंभीर रूप ले लेता था। इस झगड़े का अन्त तभी हो पाया, जब हमने अपना अलग मकान किराये पर ले लिया। हालांकि वह उसी मुहल्ले में था।

मेरा स्कूल हमारे घर से एक मील से भी अधिक (लगभग 2 किमी) दूर था और मुझे वहाँ तक पैदल ही जाना पड़ता था। पैदल जाना मेरे लिए कोई बड़ी समस्या नहीं थी, क्योंकि पैदल चलने का मुझे काफी अभ्यास था और वह अभ्यास अभी तक बना हुआ है। अपनी कक्षा में मैं कद-काठी में सबसे छोटा था लेकिन पढ़ने-लिखने में काफी आगे भी था। लड़कों ने मेरा नाम ‘चुहिया’ रख छोड़ा था और इसी बात पर मेरा प्रायः झगड़ा हो जाया करता था। लेकिन कई लड़के ऐसे भी थे, जिनके साथ मेरी अच्छी दोस्ती थी और वे प्रायः झगड़ों में मेरा पक्ष लिया करते थे।

मैं उन दिनों अंग्रेजी में कुछ कमजोर था हालांकि अपने गाँव के स्कूल में मुझसे ज्यादा अंग्रेजी जानने वाला दूसरा कोई नहीं था। अंग्रेजी के व्याकरण पर मेरा अच्छा अधिकार था, लेकिन मुझे अंग्रेजी के बहुत कम शब्दों का ज्ञान था और साहित्यिक शब्दों में मेरी पैठ लगभग नहीं के बराबर थी। फिर भी मेरी अंग्रेजी औसत से काफी अच्छी थी। अंग्रेजी के हमारे शिक्षक श्री यतीन्द्र नाथ भट्ट जी थे, जो मुझे बहुत प्यार और सहयोग देते थे। वे हमारे कक्षाध्यापक भी थे। उन्हीं की कृपा से उस विद्यालय में मेरी आधी फीस माफ हो गयी थी, हालांकि मैं पूरी फीस माफ होने की आशा कर रहा था।

गणित मेरा प्रिय विषय था और इस विषय में मैं पूरी कक्षा में सबसे आगे रहता था। गणित में हमारे अध्यापक थे श्री लक्ष्मी नारायण वशिष्ठ, जिनके नाम के आद्याक्षरों ‘एल.एन.’ को ज्यादातर लड़के प्रायः ‘हेलन’ कहा करते थे। उनका पढ़ाने का तरीका बहुत अच्छा था, लेकिन वे काफी अनुशासनप्रिय भी थे। ऊपर से देखने में वे बहुत कठोर और रूखे थे और हम प्रायः पीठ पीछे उनका मजाक बनाया करते थे। लेकिन एक घटना उन दिनों ऐसी हो गयी कि हमें उनके महानता के दर्शन हुए।

हुआ यह कि एक दिन हमारा गणित का पीरियड चल रहा था श्री वशिष्ठ जी पढ़ा ही रहे थे कि एक चपरासी प्रधानाचार्य जी का आदेश लेकर आया कि हमारी कक्षा इस कमरे को छोड़ कर पास के ही दूसरे कमरे में चली जाय। यह आदेश सुनते ही लड़कों ने बहुत जोर का शोर मचाया और अपनी-अपनी किताब-कापियाँ उठाकर दूसरे कमरे में जगह घेरने के लिए भाग निकले। हमारे जैसे कुछ लड़के आराम से चलते हुए आये और पीछे की सीटों पर बैठने का स्थान पा सके।

तब तक वह शोर हमारे प्रधानाचार्य श्री पृथ्वी नाथ चतुर्वेदी के कानों तक पहुँच चुका था। वे बहुत ही अनुशासनप्रिय थे, हालांकि दयालु भी थे। लेकिन इस शोर को वे बर्दाश्त नहीं कर सके और कक्षा में आकर पूछने लगे कि शोर क्यों और किसने मचाया है। उस समय वह बहुत ही क्रोध में थे और उनसे कुछ भी कहने का मतलब था अपनी आफत बुलाना। उन्हें देखते ही सारे लड़कों को साँप सूँघ गया और वे थर-थर काँपने लगे। प्रधानाचार्य जी ने कई बार कड़क कर पूछा कि बताइये शोर किसने मचाया है। मगर किसी लड़के ने जबान नहीं खोली तब उन्होंने सबकी पीठ पर एक-एक बैंत जमाया।

फिर उन्होंने वशिष्ठ जी से डाँट कर कहा कि ‘आप उन लड़कों का नाम बताइये जिन्होंने शोर मचाया है नहीं तो यह आपके हक में ठीक नहीं होगा।’ कक्षा में कई लड़के ऐसे थे जो वशिष्ठ जी को तरह-तरह से तंग किया करते थे। वशिष्ठ जी उन्हें मारते भी थे और प्रायः धमकी भी दिया करते थे कि तुम्हारी शिकायत प्रिंसिपल साहब से करूँगा। अगर वे चाहते और किसी लड़के की तरफ इशारा भी कर देते तो उस लड़के की जिन्दगी खराब कर सकते थे, लेकिन वे एक शब्द भी नहीं बोले और स्वयं आधा घंटे तक खड़े-खड़े प्रिंसिपल साहब की डाँट खाते रहे।

इस घटना के बाद हमारी नजरों में उनका सम्मान बहुत बढ़ गया था और ज्यादातर लड़कों ने आगे उन्हें परेशान करना लगभग बन्द कर दिया था। उनकी एक विशेषता और थी कि वे बिना किताब के पढ़ाया करते थे। फिर भी कोई नया सवाल उनके सामने आने पर वे तुरन्त बता देते थे कि यह सवाल किस प्रश्नावली में किस नम्बर पर है। उनकी इस याददाश्त से हम बहुत चमत्कृत थे।

विज्ञान के हमारे अध्यापक थे श्री गौरी दत्त शर्मा, जिन्हें सब लोग ‘जीडी’ कहा करते थे। वे भी मेरी तरफ बहुत ध्यान दिया करते थे और प्रायः मेरा पक्ष लिया करते थे। लेकिन उनका पढ़ाने का तरीका कुछ अच्छा नहीं था, अतः ज्यादातर लड़के उनसे प्रायः असंतुष्ट रहते थे।

हमें संस्कृत पढ़ाते थे श्री कोमल प्रसाद शर्मा, जिनका नाम लड़कों ने ‘तिलकधारी’ रख छोड़ा था। मैं संस्कृत में काफी अच्छा था अतः वे मुझसे बहुत प्रभावित थे।

अपने सभी अध्यापकों में जिनसे मुझे बहुत चिढ़ थी वे थे हमारे हिन्दी के शिक्षिक श्री केशव देव माहेश्वरी, जिन्हें लड़के ‘के.डी.’ कहकर पुकारते थे। झकाझक सफेद कुर्ते और पाजामे में वे विद्यालय पधारा करते थे। प्रायः हमारा सबसे पहला पीरियड हिन्दी का ही होता था, अतः वे सुबह-सुबह आकर कुर्सी पर धँस जाते थे। प्रायः उनकी आँखें लाल पड़ी रहती थीं और लड़कों का ख्याल था कि वे भंग-भवानी के शौकीन हैं। उनका सबसे पहला काम होता था अपने किसी मुँहलगे लड़के (चमचे) को भेजकर तम्बाकू वाला पान मँगवाना। फिर वे किसी दूसरे चमचे की तरफ इशारा करते और कहते- ‘अबे गधे! खड़ा हो जा, पढ़’। वह लड़का तुरन्त हिन्दी की कोई भी किताब खोलकर पढ़ना शुरू कर देता था। बाकी लड़के बोर होते हुए सुनते रहते थे और माहेश्वरी जी ऊँघते हुए पान की जुगाली करते रहते थे। पीरियड ख़त्म होने की घंटी बजते ही वे उठकर चल देते थे।

उनसे मेरी चिढ़ने की वजह यह थी कि वे मेरे जैसे पढ़ने वाले और उनकी चमचागीरी न करने वाले लड़कों से बहुत नाराज रहते थे और प्रायः उन्हें अपमानित करने का मौका ढूँढ़ते रहते थे। इसके विपरीत वे अपनी चमचागीरी करने वाले और सदा फिसड्डी रहने वाले लड़कों से बहुत खुश रहते थे।

उनका दूसरा ‘गुण’ यह था कि वे अपने वरिष्ठ साथियों तक की बिल्कुल इज्जत नहीं करते थे। कई बार हमने अपनी आँखों से देखा था कि अध्यापकों के कक्ष में प्रिंसीपल साहब के आने पर सारे अध्यापक सम्मान में खड़े हो जाते थे, लेकिन माहेश्वरी जी जानबूझकर बैठे रहते थे। इस सबके कारण हम कुछ लड़कों की नजर में उनका सम्मान बहुत कम हो गया था और हम प्रायः हम उनकी उपेक्षा और अवहेलना करते रहते थे, हालांकि इससे हमारा ही नुकसान होता था।

यहाँ एक घटना मुझे याद आती है। एक बार अर्द्धवार्षिक परीक्षा में हिन्दी के पेपर में संस्कृत के कुछ रूप पूछे गये थे। संस्कृत के विद्यार्थी होने के कारण हमने प्रायः सारे रूप सही लिख दिये थे, लेकिन उन्होंने आदतन हमारे उत्तर गलत बताकर काट दिये। एक बार हमने उनसे शिकायत की कि यह उत्तर सही है, फिर काट क्यों दिया, तो उन्होंने यह किया कि उस उत्तर पर आधा नम्बर दे दिया, जबकि वह प्रश्न 2 नम्बर का था और इसके बदले में किसी दूसरे प्रश्न में जहाँ उन्होंने दो अंक दिये थे डेढ़ कर दिये, ताकि कुल योग न बदलना पड़े। हमें इस पर गुस्सा तो बहुत आया था, लेकिन उनसे कुछ कहने का मतलब था अपनी आफत बुलाना।

लेकिन उनमें एक गुण भी था। वह यह कि कभी-कभी मूड में आने पर बहुत जीवनोपयोगी बातें बताया करते थे। आत्मनिर्भरता का पाठ मैंने सबसे पहले उन्हीं से सीखा था।

मैं कक्षा 8 में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ था। अतः मुझे छात्रवृत्ति की उम्मीद भी थी और जरूरत भी क्योंकि हमारी आर्थिक स्थिति काफी खराब थी। मैं अपने हिसाब से ठीक तैयारी के साथ छात्रवृत्ति की परीक्षा में बैठा। उसमें चार पर्चे थे- गणित, हिन्दी, अंग्रेजी और सामान्य ज्ञान। मेरे सारे पेपर अच्छे हुए थे केवल सामान्य ज्ञान के पेपर को छोड़कर। फिर भी मुझे विश्वास कि इसमें भी मुझे 40 अंक अवश्य मिल जायेंगे। परिणाम निकलने पर मालूम पड़ा कि उसमें केवल मेरे 25 अंक थे अर्थात मात्र उत्तीर्ण, जबकि गणित में मेरे अंक थे 96 शायद उच्चतम। मेरे लिए संतोष की बात यह थी कि छात्रवृत्ति मुझे मिल चुकी थी। यद्यपि उसकी राशि मात्र 10 रुपये मासिक थी। लेकिन मेरे लिए वह बहुमूल्य थी, क्योंकि यह हमारी आर्थिक स्थिति का ही नहीं बल्कि मेरी आत्मनिर्भरता और प्रतिष्ठा का भी प्रश्न था।

घर आकर मैंने माता जी को यह शुभ समाचार सुनाया और उनके पैर छुए। मेरे बड़े भाइयों ने भी संतोष व्यक्त किया कि आखिर छात्रवृत्ति मिल गयी, हालांकि उनका यह भी कहना था कि अगर सामान्य ज्ञान के पेपर में एक अंक भी कम हो जाता तो छात्रवृत्ति नहीं मिलती। मैंने अपने बड़े मामाजी श्री दयालचन्द जी गोयल से भी नमस्ते की, क्योंकि भांजा होने के कारण मैं उनके पैर नहीं छू सकता था। संयोग से उस दिन 1973 की पहली जनवरी थी। मामा जी ने समझा कि मैं नये वर्ष की नमस्ते कर रहा हूँ, लेकिन जब मैंने उन्हें बताया कि मुझे छात्रवृत्ति मिल गयी है, तो वे बहुत प्रसन्न हुए।

इन्हीं दिनों मेरी क्रिकेट में रुचि जागृत हुई जैसा कि शहरों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए स्वाभाविक है। आजकल तो यह हाल है कि शहरों के बच्चे आधुनिक अभिमन्यु की तरह पेट से बाहर आने से पहले ही क्रिकेट और डिस्को सीख लेते हैं। लेकिन आप विश्वास नहीं करेंगे कि कक्षा 9 में पढ़ने के लिए आगरा आने से पहले मैंने क्रिकेट, हाकी वगैरह का केवल नाम ही सुना था। बैडमिंटन को चिड़िया बाॅल कहा करता था और हाकी की स्टिक मात्र देख रखी थी। टेेबिल टेनिस, टेनिस, कैरम, ब्रिज जैसे खेलों के अस्तित्व से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ था। आगरा आने पर मैंने भी अपनी कक्षा के लड़कों की देखा-देखी क्रिकेट में रुचि लेना शुरू किया। हालांकि मुझे सिर्फ बैटिंग करने को मिलती थी, जिसमें मैं प्रायः पहली या दूसरी गेंद पर क्लीन बोल्ड हो जाता था।

लेकिन मैंने एक दिन एक रन भी बनाया और संयोग से उस दिन आउट नहीं हुआ। वह रन मेरे द्वारा बनाया गया पहला और उस विद्यालय में आखिरी रन था, क्योंकि उसके बाद मुझे खेलने का अवसर ही नहीं मिला। कुछ इसलिए भी कि कक्षा में मुझसे बहुत अच्छे-अच्छे खिलाड़ी मौजूद थे। गाँव के खेलों जैसे कबड्डी, गित्ती-फोड़ और कंचा-गोली में मैं अभी भी पूर्ण पारंगत हूँ और प्रायः इन्हीं खेलों को आगरा में खेला करता था।

लेकिन आप यह न समझें कि क्रिकेट में मेरी रुचि समाप्त हो गयी थी। सत्य तो यह था कि मैं क्रिकेट में और ज्यादा रुचि लेने लगा था। उन दिनों टाॅनी लुइस की कप्तानी में एम.सी.सी. (इग्लैण्ड) की क्रिकेट टीम भारत में टेस्ट मैच खेलने आयी हुई थी। उस अवधि में मेरा क्रिकेट ज्ञान इतना बढ़ गया था कि मैं स्वयं को क्रिकेट का विशेषज्ञ समझने लगा था, हालांकि मैं स्वयं क्रिकेट नहीं खेलता था। कहावत है कि मैं अंडे नहीं देता, लेकिन आमलेट के बारे में मुर्गी से ज्यादा जानता हूँ। यह कहावत यहाँ सही उतरती थी।

मुझे राजनीति में भी काफी दिलचस्पी रही है और अखबार पढ़ने का मुझे व्यसन सा है। मुझे याद है कि गाँव में हमारे यहाँ दिल्ली से छपने वाला ‘वीर अर्जुन’ नामक अखबार आया करता था, जिसके शीर्षक कभी-कभी मैं भी पढ़ लेता था। हालांकि उन दिनों कुछ समझ में नहीं आता था। आगरा में आने पर मैं प्रायः रोज ही शाम को और कभी-कभी सुबह भी वाचनालयों में जाया करता था।

लोहामण्डी, आगरा में उन दिनों दो वाचनालय थे- एक था ‘श्री वीर पुस्तकालय एवं वाचनालय’ जो नौबस्ता चौराहे के पास मंजूमल की बगीची में था और दूसरा था ‘शिवहरे वैश्य वाचनालय एवं पुस्तकालय’, जो आलमगंज में श्री राधाकृष्ण के मन्दिर में था। मैं इन दोनों वाचनालयों में आने वाले लगभग सभी अखबार और अधिकांश पत्रिकाओं का नियमित पारायण किया करता था। दुर्लभ पत्रिकाओं के लिए मैं कभी-कभी नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकालय, गोकुलपुरा तथा जाॅन्स पब्लिक लाइब्रेरी, पालीवाल पार्क में भी जाता था। पढ़ने की इस आदत के कारण मेरे सामान्य ज्ञान में काफी वृद्धि हुई। हालांकि अत्यधिक मानसिक श्रम के कारण मेरे स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता था। इन सब पुस्तकालयों की दूरी मैं पैदल ही तय करता था, क्योंकि उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति रिक्शों का व्यय उठाने की नहीं थी और टैम्पो जैसे सस्ते साधन तब उपलब्ध नहीं थे।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com