गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आओ   मजहब  की  नई   रीत  बनाकर   देखें ।
दर्दे   इंसानियत   को  दिल  में  सजाकर   देखें ।।

जली   हैं   बेटियां  अक्सर  इन्हीं  चिताओं   में ।
लगी  है  आग  जो   थोड़ी  सी  बुझा  कर  देखें ।।

काबा  काशी   के  चरागों से  सबक क्या सीखा ?
गरीबखाने    में   इक    दीप   जलाकर    देखें ।।

लुट   गया   मुल्क  है  दौलत  के निगहबानों  से ।
काले   पर्दों  को  जरा  हम  भी  उठाकर   देखें ।।

डूबते   कर्ज  से   लाशें   दिखीं    किसानो   की ।
इस   हकीकत   का  गुनहगार   मिटाकर    देंखे।।

हो  ना  कुर्बान  फिर  शहीद  इस  सियासत   से।
जुबाँ  पे    ताले   सियासत  के  लगाकर   देखें ।।

खो ना जाए कहीं तहजीबे तकल्लुफ का चलन ।
चलो    इंसान    को    इंसान     बनाकर   देंखे ।।

           – नवीन मणि त्रिपाठी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक naveentripathi35@gmail.com

3 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी ग़ज़ल !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी .

Comments are closed.