लघुकथा

लघु कथा- “श्रद्धा”

विनय पहली बार अपनी मम्मी के साथ मन्दिर जारहा था। रास्ते-भर माँ ने उसे अनेक उपदेश दिए, कि हमें हमेशा गरीबों की सेवा करनी चाहिए, जो दूसरों की सहायता करते हैं भगवान उसे वरदान देते हैं, हमें बडों की सेवा करनी चाहिये ,मन्दिर जाना चाहिये,भूखेको भोजन देना चाहिए, भगवान में श्रद्धा होनी चाहिये आदि आदि।

चलते-चलते रास्ते में फलों की दुकान देखकर उस की मम्मी रुकी और मन्दिर में भगवान को चढाने के लिए केलों का मोल भाव करने लगी। फल वाले ने कहा, “माँ जी, ये पांच रूपये के छ:और यह वाले दस रूपये के छ:।”

“पांच रूपये वाले दे दो” कहकर वे रुमाल में बँधे पैसे खोलने लगी ।

“पर माँ, ये तो गले हुए और सडे हुए है।

“तो क्या हुआ, हमें थौडे ही खाने हैं ?भगवान को ही तो चढाने हैं और भगवान जी भी खाते थोडे ही हैं। बस पूजा में श्रद्धा होनी चाहिए बेटा।”

विनय सोचने लगा… कैसी है ये मम्मी की पूजा- श्रद्धा ?

सुरेखा शर्मा

सुरेखा शर्मा(पूर्व हिन्दी/संस्कृत विभाग) एम.ए.बी.एड.(हिन्दी साहित्य) ६३९/१०-ए सेक्टर गुडगाँव-१२२००१. email. surekhasharma56@gmail.com

2 thoughts on “लघु कथा- “श्रद्धा”

  • विजय कुमार सिंघल

    पाखंड पर चोट करती अच्छी लघुकथा.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सुरेखा जी , यह कर्म काण्ड सभ अंधविश्वास और पाखंड ही है . बचपन से ही मैं अंधविश्वास से मुक्त रहा हूँ , मेरी ममी बहुत धार्मिक विचारों वाली थी , अक्सर हम तीनों भाई मिल कर मम का हंसी में मज़ाक किया करते थे लेकिन मेरी ममी की सब से अच्छी बात यह थी कि अंधविश्वास को मानती हुई भी वोह गरीबों की मदद बहुत किया करती थी . इसी को हम धर्म मानते थे . मेरे पिता जी भी साधू संतों के बहुत खिलाफ हुआ करते थे और उन्हीं से हम ने भी बहुत कुछ सीखा . यह जो केले वाली बात आप ने लिखी मुझे माँ को याद करके हंसी आ गई . कथा अच्छी लगी , आगे भी इंतज़ार रहेगा .

Comments are closed.