कविता

कब्र में जाग रही हैं डेढ़ सौ औरतें

 

इस बर्फ-सी जमी रात में
कब्र में जाग रही हैं डेढ़ सौ औरतें
दरअसल उन्हें आता ही नहीं था सोना

जिस दिन आने लगती थी नींद
बालों से पकड़ कर खींच लिया जाता था उन्हें
और फिर भौथरे चाकू से
हलाल किया जाता था रात भर
सोने और जागने के बीच
कराहने की आवाज़
उनके ज़िंदा होने का सबूत थी

kabra men auraten

जिस दिन वे देखना चाहती थीं चाँद
घुमड़ आते थे काले बादल
कड़कती थीं बिजलियाँ
और उन्हें छिपा दिया जाता था
गदहों के अस्तबल में
उनके मुल्क में बस यही तरीका था
औरत को बचाने का
हालाँकि उनकी जान
किसी गदहे से कीमती नहीं थी

उनके खून से
दलदल हो गई है कब्र की मिट्टी
उनके पेट में अब भी जल रही है
भूख की भट्ठी
आप तो जानते ही हैं,
इंसान मरता है,
मुफलिस की भूख नहीं

वे जानती हैं कोई नहीं आएगा
यहाँ फातिहा पढ़ने
फिर से गिना जाएगा
जवान हो रहा मादा गोश्त
और बंदूक की नोक पर
नीलाम कर दिया जाएगा
फलूजा के इसी चौक में
सारे मौलवी चुपचाप खड़े रहेंगे
कमर के पीछे हाथ बाँधे
आखिर उनके घरों में भी तो
जवान बेटियाँ हैं

खुदा तुम नहीं छीन सकते मर्द की वहशत
कोई बात नहीं
खुदा तुम रोक नहीं सकते मुल्कों के बीच जंग
कोई बात नहीं
खुदा तुम्हारे वश में नहीं हैं
आँधी तूफान और भूचालों का आना
कोई बात नहीं
बस इतना कर दीजिए
औरत के जिस्म पर उग़ा दीजिए काँटे
कि जंगल में नागफनी की तरह
वे बेफिक्र रहें हर मौसम में
जानवर भी सूँघ कर छोड़ जाएं उन्हें

इस बर्फ-सी जमी रात में
कब्र में, सजदे में हैं डेढ़ सौ औरतें
दरअसल उन्हें फिक्र है उन औरतों की जो अभी बची हैं
नाखुदा के फज़ल से!

——राजेश्वर वशिष्ठ

One thought on “कब्र में जाग रही हैं डेढ़ सौ औरतें

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत करारी कविता।

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