सामाजिक

धर्माचरण

धैर्य क्षमा संयम चोरी न करना पवित्रता और इन्द्रिय निग्रह आदि को धर्म के दस लक्षण बताया गया है। इन लक्षणों को जीवन का अंग बना लेना ही धर्माचरण हैं कर्मों की पवित्रता ही सच्चा पूजापाठ और कर्मकाण्ड है। ऐसा सत्य आचरण ही वास्तविक धर्म है। सदाचार को धर्म मान लेने के बाद यह व्यावहारिक प्रश्न उठता है कि हम धर्म-अधर्म का निश्चय कैसे करें इसका समाधान करते हुए महर्षि मनु ने कहा है कि वेद ओर वेदानुकूल आचरण करने वाले महापुरुषों द्वारा रचित स्मृ्ति आदि ग्रन्थ सत्याचरण करने वाले पुरुषों का आचरण ओर आत्मा को प्रिय लगने वाला व्यवहार आदि बातों से धर्म-अधर्म का निश्चय किया जा सकता है।

संसार में ऐसे बहुत से लोग हैं जो सब शास्त्रों का ज्ञान तो रखते हें परन्तु उन्हें जीवन में अपनाते नहीं हैं। ऐसा इसलिए क्योकि उनके संस्कार इतने दूषित होते हैं कि वे अहंकार क्रोध लोभ मोह और इन्द्रिय सम्बन्धी विकारों के कारण सदाचार के मार्ग पर चलने में असमर्थ महसूस करते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो धर्म के तत्त्वों के विषय में सैद्धान्तिक रूप से कोई जानकारी नहीं रखते परन्तु उनका अन्तःकरण पवित्र होता है। ऐसे लोगों के संस्कार इतने दृढ़ होते हें कि उनका जीवन धर्माचरण से परिपूर्ण होता है। ज्ञान और अनुभव की तुलना करें तो अनुभव अधिक महत्त्वपूर्ण है।

वेदों और शास्त्रों को पढ़कर यदि कोई व्यक्ति जीवन में उन नियमों को नहीं अपनाता है तो वह ज्ञान एक प्रकार का बोझ है। इसलिए सत्य धर्माचरण की कसौटी ज्ञान नहीं है अपितु व्यावहारिक जीवन में धर्माचरण से सम्बन्धित बातों पर अमल करना है। ऋषियों द्वारा प्रतिपदित सिद्धान्तों से भी अनेक बार कई व्यक्ति सन्तुष्ट नहीं होते हैं और उनके मन में किसी बात को स्वीकार करने के विषय में शंका बनी रहती है। ऐसी स्थिति में परमेश्वर की प्रेरणा से अन्तःकरण से जो आवाज सुनाई पड़ती है उसी से धर्मानुकूल निर्णय लेने में सहायता मिलती है। इसे आत्म-संतुष्टि कहते हैं। इस दृष्टि से जिस कार्य को को करने में आत्मा में कोई भय या शंका नहीं रहती है उसी को धर्मानुकूल मानना चाहिए।

कृष्ण कान्त वैदिक

One thought on “धर्माचरण

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख. जिसका उपदेश हम दूसरों को देते हैं, उसे स्वयं के आचरण में उतरना आवश्यक है.

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