लघुकथा

लघुकथा : लाली

लाली इस नाम को सुनते ही होंठो पर बरबस मुस्कुराहट आ जाती है । लाली हमारी गली का कूड़ा उठाने वाली की बेटी , मेरी हम उमर ही रही होगी लगभग , थोड़ा बहुत कम ज़ियादा हो सकता है । जिस दिन उसकी माँ की तबीयत खराब होती तो लाली आ जाती अपनी माँ की जगह काम करने, बस उसे देख कर मेरी बाँछे खिल जाती , आंखो ही आंखो मे इशारा हो जाता ताकि माँ को पता ना चले वरना पिटाई हो जाती थी मेरी । मुझे कभी समझ नही आया था कि मुझे लाली से क्यों खेलने नही देते हैं, बस उसकी फ्राक कुछ पुरानी होती थी और कुछ कुछ फटी भी, लेकिन उससे क्या होता है , वो है तो कितनी अच्छी , मुझ से डाँट भी खा लेती थी और बाकी सब की तरह लड़ती भी नही थी , उसे मैं जान कर हरा देती बस कुछ उदास होती फिर झट ही मुस्कुराने लगती ना कि बाकि सब की तरह या तो कट्टी करती या माँ को शिकायत लगाती, वो ऐसा कुछ नही करती थी , उसके चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान हमेशा रहती थी चाहे खेलते हुए हम पकड़ी जाएं ड़ाँट वोही खाती थी चुपचाप , कभी मेरा नाम नही लेती थी कि मैने बुलाया है उसे खेलने के लिये ।

lali

जिस दिन लाली आती , वो दोपहर कितनी मजे़दार हो जाती, कड़कती गर्मी मे जब माँ हम सब भाई बहनो को सुला कर खुद भी सोती तो मैं चुपके से उठती और धीरे से चिटकनी खोल कर बाहर आ जाती फिर सामने वाले पेड़ के नीचे हम दोनो कई खेल खेलती , वो कभी नही रूठती थी ।

कई बार माँ की आंख खुलती तो कमरे में मुझे ना देख वो समझ जाती थी कि मैं कहां होऊंगी, बस चुपके से पीछे आ कर खड़ी हो जाती और लाली का उतरा हुआ चेहरा देख कर मैं पलटती तो माँ की लाल आंखे देख कर सहम जाती और झट से लाली का नाम लगा देती कि इसने खेलने बुलाया था वो आंखो में आंसू भरे माँ की डांट खा कर चली जाती , मेरी चुटिया खींचते हुए माँ मुझे कमरे मे ला कर खूब डांटती कि कितनी बार मना किया है उस के साथ खेलने को , मुझे कभी समझ नही आई थी माँ की बाते , माँ तो कभी गुस्सा नही करती थी पर लाली के साथ खेलते देख माँ को क्या हो जाता है.

कुछ दिन बाद मैंने सुना माँ बाबू जी को बता रही थी कि लाली की शादी हो गयी है , मै डर के मारे पूछ भी नही सकी कि शादी तो बड़ो की होती है और लाली तो अभी फ्राक डालती थी और मेरी उम्र की थी , मन ही मन मै सोच रही थी कि मैं तो अभी दस साल की हूँ फिर कैसे , दिल से आवाज़ आई कि माँ को गलती लगी होगी लेकिन लाली अब आती नही थी , मै हर उसकी इंतज़ार करती करती दस से पंद्रह की हो गयी और एक दिन अचानक लाली आ गई लेकिन ये तो कोई और ही थी मेरी लाली नही, कैसे बिखरे से बाल थे उसके , फटी सी कोई साड़ी डाली हुई थी और….. कमर पर एक अधनंगा सा बच्चा लटकाती संभालती हुई सी, मैं हैरान रह गई उसको देखकर अब खेलने का भी मन नही किया बस छिप कर किवाड़ से झांकती रही कि ये क्या मेरी लाली है, कौतुहल से भरी आंखो से देखती रही उसे और सोचती रही………

रमा शर्मा
कोबे, जापान

रमा शर्मा

लेखिका, अध्यापिका, कुकिंग टीचर, तीन कविता संग्रह और एक सांझा लघू कथा संग्रह आ चुके है तीन कविता संग्रहो की संपादिका तीन पत्रिकाओ की प्रवासी संपादिका कविता, लेख , कहानी छपते रहते हैं सह संपादक 'जय विजय'

One thought on “लघुकथा : लाली

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक लघु कथा.

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