हास्य व्यंग्य

चाय की प्याली में

बाबू प्रेमलाल न सिर्फ नाम बल्कि काम से भी बाबू ही थे। वे अपने को आॅफिस का बाबू कम बापू ज्यादा मानते थे। उनके अनुसार परिवार में जो स्थिति बाप की होती है, वही आॅफिस में बाबू की। बाबू किसी भी दफ्तर की शोभा होता है। जिस प्रकार मूर्ति के बिना मंदिर की कल्पना अधूरी होती है, उसी प्रकार बाबू के बिना दफ्तर की। उन्होंने अपनी ही शान में एक दोहा गढ़ रखा था- “कुल की शोभा पूत है”

पर लगातार पच्चीस वर्षों तक बाबूगिरि का पराक्रम दिखानेवाले इस योद्धा का राम नाम सत हो गया। बाबुओं के सारे लक्षणों से परिपूर्ण इस आत्मा को लेने यमराज को स्वयं आना पड़ा। ज्यों ही यमदूत आए, उनकी आत्मा ने अपना पहला स्थायी लक्षण छौंका- ”भैया, हम चपरासियों के बुलावे पर भरोसा नहीं करते। हमारा काम सीधे अधिकारी से होता है।“ अब बेचारे यमराज स्वयं न आते तो क्या करते?

ज्यों ही यमराज आए, प्रेमलाल जी न जाने के लिए अड़ गए। यूंही बात-बात पर अड़ जाना, काम न करना, बाबू प्रेमलाल की आदत थी। ये अड़ी हुई बात तभी आगे बढ़ती जब तक कि उनके बच्चों की मिठाई का बंदोबश्त सामनेवाला न कर देता। विवश यमराज को भी यहाँ घुटने टेकने पड़े। सौ का नोट देने के बाद ही प्रेमलाल की आत्मा ने शरीर का त्याग किया।
मार्ग में यमराज से उपर के दाँव पेंचों की जानकारियाँ प्राप्त करते हुए वे यमपुरी पहुँचे। यमराज को ही क्या, अब तक बड़े-बड़े महान लोगों की आत्माओं को तो लगता था कि बाबुओं के बिना नीचे वालों का ही काम नहीं होता होगा, अरे मिला बाॅस इसी बात पर हाथ।’

अचानक प्रेमलाल का ध्यान घड़ी पर पड़ा। चौंक कर उन्होंने चित्रगुप्त की ओर देख, ‘अरे यार रात के दस बज रहे हैं और तू काम रहा है। अच्छा ओवर टाइम का लफड़ा होगा?’ चित्रगुप्त समझ न पा रहे थे कि आखिर ये क्या हो रहा है।
‘अच्छा एक बात बता तेरे पास तो पूरा अकाउण्ट सेक्शन है। सब का मामला तूइच फिट करता है? तो उपर की कमाई दिनभर में कितनी हो जाती होगी?’ बाबू प्रेमलाल का यह प्रश्न चित्रगुप्त के सिर पर से निकल गया। पर उत्तर भी प्रेमलाल के पास था- ‘यार तेरे गहने-वहने देखकर तो लगता है कि तेरे को उपर का माल बहुत मिलता होगा। भाई देख, तू ये मेरी घड़ी रख और ऐसा मामला सेट कर कि अपन तेरा असिस्टेंट बन जाए। ये स्वर्ग-नरक के चक्कर में कौन पड़े।’ प्रेमलाल ने धीरे से एक आँख दबाकर कहा।

बाबू प्रेमलाल की बकबक ने चित्रगुप्त का दिमाग खराब कर दिया था। जल्दी से उन्होंने प्रेमलाल की फाइल निबटाकर आगे सरका दी। यमराज, बाबू प्रेमलाल को लेकर चल पड़े नरक यात्रा कराने।

सारी यात्रा करवाकर जब यमराज बाबू प्रेमलाल सहित स्वर्ग लौटे तो बाबूजी का चेहरा उतरा हुआ था। यमराज ने पूछा- ”वत्स, बड़े उदास लग रहे हो, क्या बात है?“ काफी पूछने पर प्रेमलाल ने मौन तोड़ा-‘सर, एक प्याली चाय मिल जाती तो बड़ा अच्छा होता।’ चाय शब्द यमराज के लिए नया था। वास्तविकता जानने पर उन्होंने प्रेमलाल के लिए सोमरस की व्यवस्था करवा दी। पर प्रेमलाल फिर अड़ गए- ”नो सर! बिना चाय के काम नहीं चलेगा। अरे ये चाय ही तो हम बाबुओें की पहचान है। आपको शायद पता नहीं हमारे देश की चालीस प्रतिशत चाय तो सिर्फ बाबू लोग ही पीते हैं। और आप कहते हैं कि चाय नहीं मिल सकती। ये स्वर्ग है आपका? जहाँ एक प्याली चाय का जुगाड़ नहीं हो सकता। इससे अच्छी तो हमारे रामू की टपरी थी।“ और एक प्याली चाय के अभाव में वह स्वर्ग बाबू प्रेमलाल के लिए नरक में बदल गया।

2 thoughts on “चाय की प्याली में

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा , खूब बाबूओं का पोस्ट मार्टम किया .

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया हास्य !

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