मर रहा है बचपन
आज फिर
पुराना वर्ष गया
न्या वर्ष आया है
लोगों के मन मस्तिष्क में
अद्भित सी उत्सुकता लाया है
कुछ खोने का गम
कुछ पाने की ललक लाया है
पहले से कुछ बेहतर
होने की चाहत लाया है
दूर सड़क पर
सोया मासूम बचपन
यह हल्ला कोलाहल देखकर
कुछ सकपकाया है
अँधेरे कमरो से बाहर
रौशनी का अनुमान लगाया है
कल रात जो सोया था भूखा
आप पेट भरने की तृष्णा लाया ह
लेकिन किसको है मालूम
फेंके जाएंगे
हज़ारों कागज़ के टुकड़े
पब और पार्टी के नाम पे
सुरम्य संगीत
और रसास्वाद के नाम पे
मर जायगा वो मासूम
सड़क पर सोये सोये
जिसके होने पर न कोई हँसे
और दम भी तोड़ देगा
तो ना कोई रोय
ऐसे ही मर रहा है
मासूम बचपन
मर रही है मानवता
कब होगा इनका प्रणोदय
कोई नही जानता
इसकी अनिश्चितता के साथ
फिर से
पुराना वर्ष गया है
नया वर्ष आया है
नया वर्ष आया है
महेश जी , नया साल मुबारक कहने से किया फर्क पड़ेगा जब हर नया साल गरीबों के लिए पहले साल जैसा ही होता है?