लेख

विदा २०१४

दिन +हफ्ते +महीने कर कर के २०१४ का कलेंडर बदल गया ….यदि कुछ नहीं बदला तो वह है इंसान का दिलोदिमाक …नए से कोई ख़ास उम्मीद नहीं पर हा जैसे पिछले चार-पांच साल बिते वैसे ना बीते तो अच्छा ….आगे हरी इच्छा
जीवन को उधेड़ बुन कर अच्छे -बुरे समय को समझना बड़ा मुश्किल हैं, हो सकता है बहुत से पल वो भी आये हो जो अमृत पान कराएं हो, पर वह पल किसे याद रहते है -हा गम के चाबुक कभी नहीं भूलते …..इन्ही चाबुको के बीच अपने और गैर का हम चुनाव कर लेते है…|

कोई गैर अपना बन दिलोदिमाग में घर कर जाये अच्छा लगता है| कोई बनना चाहे अपना तो भी अच्छा लगता है, पर अपना गैरों सा बर्ताव करें बहुत बुरा लगता है …फिर भी समय के साथ हर रिश्तें पर धूल ज़मने देते है कभी रिश्तों पड़ी धूल साफ़ करने की भरपूर कोशिश करते है ……कुछ रिश्ते पर कोशिशें कामयाब होती है, कुछ पर नहीं ….समय फिर भी नहीं रुकता …महीने साल बीतते जाते है समयानुसार ….कभी-कभी अथक परिश्रम कर हम खुद को ठगा सा पाते है ..कभी हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा समय के साथ हो लेते है …..चलिए समय के साथ, सब कुछ समय पर छोड़ …उप्पर वाले ने कोई तो समय मेरे लिय या आपके लिय भी बनाया ही होगा ..मूक बन उस समय का इन्तजार करिए ….बस निस्वार्थ कर्म करते हुए …..
वैसे तो निस्वार्थ कर्म करने को कहना बेमानी सा ही है क्योकि इस आज की दुनिया में कोई निस्वार्थ कहाँ हैं भला|

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया///हर व्यक्ति यदि ऐसी सोच रक्खे ऐसी प्रतिज्ञा कर ले तो, न गये समय के दुःख दर्द याद आये, न नये समय से आशंकित हो …दुःख हो सुख हो अपनों के कंधे का सहारा मिलें तो भवसागर भला कौन नहीं पार कर लेंगा …पर हम इसी उधेड़ बुन में रहते है कि किसने, कब,कैसा मेरे साथ किया उसे कब, कैसे गच्चा देना है …बस समय अपनी राह हो लेता है और हम कष्ट में डूबते ही अपनों का साथ न पा तमतमा जाते है क्योकि अपने जो होते है वह कष्ट में कन्धा देने के बजाय अपनी ही उधेड़बुन में लगे होते है कि कब पैरो के नीचे से चादर खींची जाये | ख़ुशी की सीढी कोई नहीं बनना चाहता है, सब गम की लिफ्ट बन जल्दी से जल्दी उप्पर पहुँचाना चाहते है| अपनों का साथ सभी को चाहिए होता है, पर कोई अपना साथ देने को तैयार नहीं होता|
वक्त के साथ चलिए ,वक्त -वक्त पर मिलते रहिये, वर्ना वक्त यदि बित गया किसी तरह तो वह व्यक्ति खुद ही नहीं याद रखेगा कि आप किस खेत की मूली थे | क्योंकि वक्त एक न एक दिन घूमफिर कर सभी का आता ही हैं| 🙂 सविता मिश्रा
बोलिए गणेश भगवान् की जय 🙂 😀

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

4 thoughts on “विदा २०१४

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लिखा है, बहिन जी.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अच्छा लेख , हर साल ही नया साल मुबारक हो कहते हैं , यह एक रिवाज ही है , वर्ना सब कुछ दुःख सुख ऐसे ही चलता रहता है . देखो न यह एअर एशिया का विमान हादसा ग्रस्त हो गिया , उन विचारों के घरों में किया बीत रही होगी , यह कोई जानना भी नहीं चाहता.

    • सादर नमस्ते भैया ..वह तो जरा दूर की बात है कोहरे के कारण यहाँ एक्सप्रेस वे पर कई मर गये ….उनके लिय भी तो कैसा नया कैसा पुराना ..लेकिन कुछ लोगो को नये पुराने से कोई ख़ास मतलब नहीं बस पार्टी-शार्टी होनी चाहिए बहाना कोई भी हो …आखिर भागमभाग में मौज मस्ती का समय कहा है अतः बहाना ही सही

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