सामाजिक

पुरस्कार ही नहीं, दण्ड भी उपयोगी है

एक व्यक्ति को उसके भयकंर अपराधों के लिए फाँसी की सज़ा सुनाई गई। फाँसी से पूर्व उसकी माँ अपने बेटे से मिलने के लिए आई। माँ का रो-रोकर बुरा हाल था। बेटे ने इशारे से माँ को अपने पास बुलाया और अपना मुँह उसके कान के पास ले गया मानो चुपचाप उससे कोई राज़ की बात कहना चाहता हो लेकिन उसने कुछ कहने की बजाय अपनी माँ का कान ही काट लिया और कहा, ‘‘ माँ, बचपन में एक दिन मैं स्कूल से किसी दूसरे विद्यार्थी की पैंसिल चुरा लाया था और तुमने मुझे डाँटने या दण्ड देने की बजाय चुपचाप वो पैंसिल उठा कर रख ली थी। मैं जब भी दूसरों की कोई चीज़ उठाकर लाता तुम हमेशा उसे उठाकर रख लेतीं। ये सिलसिला जारी रहा। ग़लत काम के लिए तुम्हारे न डाँटने या दण्ड न देने का ही परिणाम है यह जो आज मैं इतना बड़ा अपराधी बन गया कि मुझे फाँसी की सज़ा दी जा रही है।’’

अतः अपराध भयंकर रूप ले ले तभी नहीं, अपराध की शुरूआत में ही उसे रोकना व ग़लती करने वाले को किसी न किसी रूप में दण्ड देना ज़रूरी हो जाता है। कुछ लोग किसी भी प्रकार के दण्ड के ख़िलाफ होते हैं लेकिन अपराधियों को उचित दण्ड न देने का ही ये प्रभाव है कि देश में हर क्षेत्र में अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। आर्थिक व सामाजिक अपराध बढ़ते जा रहे हैं। देश में बढ़ते भ्रष्टाचार का मुख्य कारण भी अपराधियों को समय पर उचित सज़ा न मिलना ही है। शासनतंत्र में भ्रष्टाचार, विद्यालयों में अनुशासनहीनता तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में रैगिंग, गुण्डागर्दी व अपराध सभी दण्ड व्यवस्था के लचीलेपन के कारण ही बढ़ते जा रहे हैं। जब अपराधी बेख़ौफ होकर खुले घूमते हैं तो न केवल उनकी अपराध करने की हिम्मत बढ़ती है अपितु आम आदमी भी त्रस्त दिखलाई पड़ता है और उसका मनोबल गिरता है। अपराधियों को दण्ड न देना अच्छे नागरिकों के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। जब बुरा बनने पर कोई हानि नहीं होगी तो कोई क्यों मेहनत करके अच्छा बनने का प्रयास करेगा?

कुछ लोगों मानना है कि अपराध के लिए दण्ड अनिवार्य है जबकि कुछ लोग कहते हैं कि अपराधी को दण्ड देने की बजाय उसे सुधारना अधिक उचित है अतः अपराध के लिए सुधारात्मक उपाय अपनाने चाहिएँ। देखा जाए तो प्रकृति भी तो हमें हमारी ग़लतियों के लिए दण्ड ही देती है। आग में हाथ डालना ग़लत है अतः आग में हाथ डालने पर जलना एक प्राकृतिक दण्ड का ही रूप है लेकिन यदि एक बार किसी का हाथ जल जाए तो वह जीवनभर आग से सावधान रहता है। वास्तव में दण्ड भी एक सुधारात्मक उपाय ही है। विद्यार्थियों के लिए पुरस्कार के साथ-साथ दण्ड भी ज़रूरी है ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। कोई विद्यार्थी अपनी ग़लत आदतों, अनुशासनहीनता अथवा अकर्मण्यता के कारण किसी बड़े संकट में फंस जाए या उसका जीवन मज़ाक बन के रह जाए उससे ज़्यादा अच्छा है अभिभावक अथवा अध्यापक का समय पर लगाया गया एक चाँटा। उर्दू के मशहूर शायर मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ का एक शेर है:

अहले-बीनिश को है तूफ़ाने-हवादिस मक्तब,
लत्मा-ए-मौज कम अज़ सीली-ए-उस्ताद नहीं।

तात्पर्य ये है कि अहले-बीनिश अर्थात् नज़र वालों या पारखियों की दृष्टि में तूफ़ाने-हवादिस अर्थात् जीवन की समस्याओं के तूफ़ान एक विद्यालय की तरह हैं और लत्मा-ए-मौज अर्थात् जीवन की समस्याओं के तूफ़ानों का चाँटा अध्यापक के दंड से कम नहीं। यहाँ उस्ताद द्वारा उसके शागिर्द को उसकी भलाई के लिए दिए गए दण्ड को सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है। जीवन में जब समस्याएँ अथवा विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो हमें कष्ट तो होता है लेकिन उन समस्याओं तथा विकट परिस्थितियों से हम जितना अधिक सीखते हैं वो सब सामान्य स्थितियों में सीखना संभव ही नहीं। यदि ग़लती करने पर दण्ड देने से थोड़ा-बहुत शारीरिक या मानसिक कष्ट होता है तो वह हमारी भलाई के लिए ही होता है और जिसने उस कष्ट को सह लिया वो अग्नि में तपे हुए कुंदन की तरह शुद्ध-स्वच्छ हो जाता है। उसका खोट, उसकी बुराइयाँ मिट जाती हैं।

वैसे भी जब भी हम किसी रोग से पीड़ित होते हैं तो रोग से मुक्त होने के लिए औषधि लेते हैं। कई बार यह औषधि अत्यंत कटु अथवा बेस्वाद भी हो सकती है लेकिन रोग दूर करने के लिए दवा का कड़वा व बेस्वाद घूँट पीना ही पड़ता है। मैले कपड़ों से मैल हटाने के लिए साबुन अथवा डिटर्जेंट अनिवार्य है। इसी प्रकार से ग़लत आदतों, अनुशासनहीनता अथवा अकर्मण्यता पर अंकुश लगाना अथवा इनका उपचार करना भी ज़रूरी हो जाता है। ग़लत आदतें, अनुशासनहीनता अथवा अकर्मण्यता जब हद से अधिक बढ़ जाती है तो वह अपराध की श्रेणी में आ जाती है। अपराध भयंकर रूप ले ले इससे पहले इसका उपचार करना अथवा दण्ड देना ज़रूरी हो जाता है। कहते हैं बुराई को उसके मूल में ही समाप्त कर दिया जाए तो अच्छा है और इसके लिए ग़लत काम के शुरू में ही दण्ड का सहारा ले लिया जाए तो कोई बुराई नहीं। किसी भी भयंकर आग की शुरूआत एक नन्ही-सी चिंगारी से ही होती है और यदि समय रहते उसे देख लिया जाए तो मात्र एक प्याला पानी ही उसे बुझाने के लिए पर्याप्त होता है। यही बात अपराध के संबंध में भी लागू होती है।

भयंकर आग पर काबू पाने के लिए प्रारंभ में एक प्याले पानी की तरह ही है प्रथम बार ग़लती करने पर बच्चे के गाल पर लगाया गया तमाचा अथवा झिड़की। दण्ड चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो अथवा आर्थिक हो ग़लत कार्य करने वाले पर सकारात्मक प्रभाव ही डालता है। दण्ड अपराधी को सचेत करता है। दण्ड मिलने पर अपराधी अपना पुनर्मूल्यांकन करने पर विवश होता है। दूध का जला छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीता है। इसी प्रकार से दण्ड मिलने के बाद एक दण्डप्राप्त व्यक्ति भी दण्ड के अपमान से बचने के लिए दोबारा वह ग़लती नहीं दोहराएगा। मेरा अपना अनुभव है कि जिस ग़लती अथवा असावधानी के लिए मुझे दण्ड मिला मैंने उससे बचने का हर संभव प्रयास किया लेकिन जिन ग़लतियों अथवा दोषों की तरफ आज तक किसी का ध्यान नहीं गया और उनके लिए किसी भी प्रकार की कोई सज़ा नहीं मिली वो आज भी किसी न किसी रूप में दोहराए जा रहे हैं।

सीताराम गुप्ता

सीता राम गुप्ता

ए.डी. 106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034 फोन नं. 09555622323 Email : srgupta54@yahoo.co.in

One thought on “पुरस्कार ही नहीं, दण्ड भी उपयोगी है

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. दंड व्यवस्था के अभाव में समाज में बहुत उच्छ्रंखलता फ़ैल जाएगी.

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