सामाजिक

भौतिकता और आध्यात्मिकता

क्या हम जानते हैं कि दुनिया में किस प्रकार से रहना चाहिए? इस पार्थिव जीवन के अतिरिक्त क्या कोई अन्य जीवन है जो लौकिक न होकर पारलौकिक है? इस संसार का जीवन तभी सार्थक हो सकता है जब वह उस पारलौकिक जीवन की एक कड़ी हो, अन्यथा अगर इहलौकिक जीवन सिर्फ इस लोक का है, यहां प्रारम्भ होता होकर यहीं समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन पैदा होना और मिट्टी में मिल जाना- इसके सिवा कुछ नहीं रहता। हमारा यह जीवन तभी सार्थक कहा जा सकता है, जब यह इस भौतिक जीवन के आगे जो कुछ है, यह उसकी तैयारी समझा जाय। अगर यह जीवन अपने आप में स्वतन्त्र है, किसी भावी जीवन की तैयारी नहीं है, तो यह व्यर्थ है।

हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि यथार्थता शरीर की है या शरीरी (आत्मा) की है। ज्यों-ज्यों हम ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करते जाते हैं त्यों-त्यों यह सिद्ध होता जाता है कि हमारा ज्ञान आत्मा का ज्ञान है। भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से भिन्न समझ लेने का परिणाम यह होता है कि इन्द्रिय युक्त भौतिक जीवन को हम सब कुछ समझ लेते हैं। इन्द्रियों का जीवन विषय भोग के लिए है, ऐसे में मनुष्य किसी दिशा में न जाकर जीवन के मार्ग में भटक जाता है। जीवन की दिशा निश्चित होने पर मनुष्य बिना किसी सन्देह के अपनी जीवन नौका उस ओर खेने लगता है। यदि उसे दिशा भ्रम हो जाय तो हर समय वह सन्देह में पड़ा रहता है कि जीवन के मार्ग में सत्य क्या है, सही रास्ता क्या है।

अगर यही जीवन सब कुछ है और परमार्थ कुछ नहीं, तो यह सोच कर वह भौतिकवादी होने लगता है परन्तु यह भौतिक जीवन अन्तिम अवस्था नहीं है। यह आगे के दिव्य जीवन की एक कड़ी मात्र है, यदि यह दृष्टिकोण अपना लिया जाय तो वह आाध्यात्मिक मार्ग पर चल सकता है। मनुष्य जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों का होना अनिवार्य है। भौतिकता साधनों के लिए है और आध्यात्मिकता साध्य है। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम शरीर को साधन मानकर आत्मिक जीवन के के विकास हेतु प्रयास करें।

3 thoughts on “भौतिकता और आध्यात्मिकता

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छे विचार, अच्छा लेख. भौतिकता और आध्यात्मिकता में एक संतुलन होना आवश्यक है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    भौतिकता और आध्यात्मिका का हमारे जीवन से गहरा सम्बन्ध है। इसके लिए हमें वैदिक सिधान्तो का ज्ञान होना अव्वश्यक है अन्यथा जिस प्रकार एक बालक बिना अध्यापक और गुरु के विद्याविहीन रह जाता है इसी प्रकार से एक साधक या मनुष्य बिना ज्ञान के जीवन के उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के साधनो से वंचित होकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा। यदि सद्गुरु, आजकल के टीवी कथावाचक नहीं, मिल जाये तो भी मनुष्य जीवन के लक्ष्य व साधनो को जानकार अपना जीवन उसके अनुरूप बनाकर सफलता प्राप्त कर सकता है। लेख के धन्यवाद।

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