सामाजिक

बाल श्रम

बाल श्रम की समस्या को जड़ से मिटाना है, तो बाल श्रम कानूनों का ठीक ढंग से क्रियांवित करना ही पर्याप्त होगा। बाल दिवस पर बच्चों को बेहतर भविष्य देने के सरकारी वादे तभी पूरे हो पाएंगे, जब बच्चों का बचपन छीनने वालों को कड़ी सजा मिले, ताकि दूसरा कोई कानून के साथ खिलवाड़ करने का साहस ना जुटा सके। दो दिन पहले राजस्थान में भरतपुर व जयपुर में 231 बाल श्रमिकों के पकड़े जाने से यह तो साबित हो ही गया है कि कानून से खिलवाड़ करने वाले लोग बचपन को नीलाम करने से बाज नहीं आ रहे। साधुवाद उस सामाजिक कार्यकर्ता का, जिसने बाल श्रमिकों को मुक्त कराने में सयि भूमिका निभाई।

लेकिन अहम सवाल यहीं से पैदा होता है कि बिना किसी पहल के बाल श्रमिकों की तरफ ध्यान देने वाला कोई क्यों नहीं? देश के हर बड़े-छोटे शहरों-कस्बों में बाल श्रमिक मजदूरी करते नजर आते हैं, लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नजर नहीं आता। हर होटल-ढाबे, चाय-किराने की दुकानों पर लाखों की तादाद में बच्चों का बचपना दो वक्त की रोटी की भेंट चढ़ जाता है। हर राय में बाल अधिकार संरक्षण आयोग, बाल कल्याण समिति, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग के अलावा गैर सरकारी संगठन कार्य कर रहे हैं, लेकिन समस्या का समाधान होने की बजाय मर्ज बढ़ता जा रहा है। हर सरकार बाल श्रम रोकने के बड़े-बड़े दावे करती है, लेकिन हकीकत उच्चतम न्यायालय से मिलने वाली फटकारों में छिपी होती है।

देश में लापता बच्चों को तलाशने के मामले में तमाम निर्देशों को हवा में उड़ाने वाले सरकारी अधिकारियों के प्रति उच्चतम न्यायालय की कड़ी लताड़ जमीन पर पसरी वास्तविकता को उजागर करती है। देश में लगभग पौने दो लाख बच्चे सरकारी रिकॉर्ड में गायब हैं, लेकिन उनकी सुध लेने की परवाह किसी को नहीं। जाहिर है ये बच्चे किसी होटल-ढाबे, ईट-भट्टे अथवा गलीचा या चूड़ी फैक्ट्री में अपना बचपन तबाह होता देख रहे होंगे।

रमा शर्मा

कोबे, जापान

बाल श्रम

 

रमा शर्मा

लेखिका, अध्यापिका, कुकिंग टीचर, तीन कविता संग्रह और एक सांझा लघू कथा संग्रह आ चुके है तीन कविता संग्रहो की संपादिका तीन पत्रिकाओ की प्रवासी संपादिका कविता, लेख , कहानी छपते रहते हैं सह संपादक 'जय विजय'

2 thoughts on “बाल श्रम

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ऐसे लेख मैंने बहुत पड़े है , यहाँ के अखबार भी बहुत कुछ लिख चुक्के हैं और अभी भी लिख रहे हैं लेकिन एक सवाल मेरे मन में हमेशा रहता है कि , कौन माँ बाप नहीं चाहता कि उनके बचे पड़े लिखें ? इस सब की जड़ गरीबी बे रोजगारी है . जो पड़ा लिखा है वोह भी काम ढून्ढ रहा है , मजदूर के लिए है ही किया ? यहाँ इंग्लैण्ड में बैठा मैं टीवी देख कर कांप जाता हूँ . मैं बड़ी बड़ी इमारतों की तरफ नहीं देखता , मैं गरीब को देखता हूँ . मैह्न्घाई भारत में इतनी है कि यहाँ बैठा बैठा मैं सोचने लगता हूँ कि मेरे जैसा डिसेबल इंडिया में कैसे रहेगा ? यह जो चाएल्ड लेबर है वोह मजबूरी की वजह से है . कुछ लोग हैं जो कोई पब्लिसिटी नहीं चाहते और सच्चे दिल से जो कुछ बन पड़ता है करते हैं और शेष तो विजय भाई ने लिख ही दिया कि सेवा के नाम पर मेवा चाहते हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख ! इस समस्या को दूर करने के लिए अनेक संगठन कार्यरत हैं, पर सभी सेवा के नाम पर केवल मेवा चरते हैं. कठोर कानून के साथ ही समाज में जागरूकता और अनिवार्य शिक्षा से ही इस समस्या को हल किया जा सकता है.

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