कविता

आज का आदमी

आँधियाँ भी नहीं बुझाती कभी चिरागों को इस तरह ,

आज इंसानियत को जिस तरह से मिटाता है आदमी,

महासागर की लहरें भी नहीं उछलती ज्वार में इस तरह,

अपनी दौलत के नशे में ,आज ज्यों उछलता है आदमी,

कभी इस तरह भी नहीं पलते सफ़ेद शांति के दूत कबूतर ,

अब जिस तरह अपनी आस्तीनों में, सांप पालता है आदमी,

वैसे तो कहने पर अपने दोस्तों के वह गिनाता है अनेक नाम,

गर देनी पड़े किसी दोस्त को मदद,तब कैसे कतराता है आदमी

जान बचाने खातिर गरीब को, खून की बोतल भी नहीं नसीब,

फिर क्यों कत्ले आम करके, आदमी का खून बहाता है आदमी,

अब तो डरता भी नहीं है तिल भर अपने खुदा से कोई शख्स,

,वैसे सुबह शाम उसके दरबार जाकर ,सजदे करता है आदमी,

गुनाह करता और भूल जाता है, खुदा को जो सबका है मालिक,

पर खुद जब गिरता है तो उसी खुदा ,को याद करता है आदमी.

—जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845

2 thoughts on “आज का आदमी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अछे विचार पेश किये कविता के रूप में .

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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