कविता

गीत – बसंत

बसन्ती रूप निराला देख , मचाता पागल मनवा शोर ।
मोर के पंखों जैसी छटा , दिखाती सुंदर जग की भोर ।|

हिमानी शीत गयी है बीत ,
बहे अब सुरभित मंद बयार
मचाती तन-मन में हलचल,
गिराती संकोची दीवार ।

उठो देखो ये मधुमय मास , उमंगों की जो बांधे डोर |
बसन्ती रूप निराला देख, मचाता पागल मनवा शोर ।|

खेलती मधुऋतु कैसा खेल,
मचाती अंग- अंग में रार,
प्रकृति का रोम रोम रचता
नये पुष्पों की एक संसार |

करे मधुकर अब नवनिर्माण , मधुकरी खींचे अपनी ओर |
बसन्ती रूप निराला देख , मचाता पागल मनवा शोर ।|

सुरेखा शर्मा

सुरेखा शर्मा

सुरेखा शर्मा(पूर्व हिन्दी/संस्कृत विभाग) एम.ए.बी.एड.(हिन्दी साहित्य) ६३९/१०-ए सेक्टर गुडगाँव-१२२००१. email. surekhasharma56@gmail.com

One thought on “गीत – बसंत

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतरीन गीत !

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