गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कौन मेरे टूटते ख्वाबों की भरपाई करे ।
दोस्तों के बीच दुश्मन की शनासाई करे ।

कल भी मुझपे तंज करती थीं शहर की रौनकें ।
आज भी ये काम मेरे दिल की तनहाई करे ।

दर्द आँसू गम चुभन देतीं हैं तेरी ही तरह ।
मुझसे मुजरिम की तरह बरताव पुरवाई करे।

घर में ही होने लगी तलवारबाजी बेसबब ।
अब मुसलसल दुश्मनों का काम खुद भाई करे ।

एक कतरे को समंदर भी बना सकता है जो ।
जिद पे आ जाए तो वो परबत को भी राई करे ।

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

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