उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 36)

अभी मेरा कम्प्यूटर का काम पूरा नहीं हुआ था, अतः मुझे उसमें जुट जाना था। लेकिन इससे पहले मुझे दो-तीन काम और करने थे। पहला यह था कि मैंने नेशनल इन्फाॅर्मोटिक्स सेन्टर (NIC) दिल्ली में प्रोग्रामर के पद के लिए आवेदन किया था। उसका इन्टरव्यू 5 जनवरी 1983 को होना था। मुझे यह पता नहीं था कि टेस्ट या इन्टरव्यू किस प्रकार का होगा, अतः मैं अधिकतम जानकारी प्राप्त करके इन्टरव्यू में जाना चाहता था। वहाँ पहले हमारा लिखित टेस्ट हुआ। उसके बाद हमारा इन्टरव्यू हुआ। मेरे टेस्ट तथा इन्टरव्यू दोनों ही मेरे विचार से अच्छे हो गये थे। मुझे पूरा विश्वास था कि मेरा चयन (सलैक्शन) हो जायेगा। वैसा हुआ भी। लेकिन मुझे पता चला कि कुछ लोगों ने सिफारिश आदि के द्वारा अपना सलैक्शन पहले करा लिया। मेरा क्रम उस सूची में छठा या सातवाँ था, जबकि पहले केवल चार या पांच लोगों को जगह दी गयी थी। अब मेरा नाम प्रतीक्षा सूची में था। मैं इन्तजार करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था।

उसी महीने की 24 तारीख (अर्थात् 24 जनवरी, 1983) को मुझे हिन्दुस्तान ऐरोनाॅटिक्स लिमिटेड, लखनऊ में प्रोग्रामर जैसी ही पोस्ट के लिए इन्टरव्यू के लिए बुलाया गया था। निश्चित तारीख को मैं वहाँ गया। मुझे काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस में आरक्षण मिल गया था। वह गाड़ी रात को 11 बजे वहाँ पहुंच गयी, जबकि मुझे अगले दिन 8 बजे बुलाया गया था। अब मेरे सामने इसके सिवा कोई विकल्प नहीं था कि मैं प्लेटफार्म पर ही रात काट लूँ। वह जनवरी का महीना था और उस वर्ष वैसे भी भारी जाड़ा पड़ा था। मेरे पास ओढ़ने के लिए मात्र एक कम्बलनुमा चादर थी और मेरी मुख्य जर्सी आगरा में रह गयी थी। ऐसी हालत में भी मैंने पूरी रात प्लेटफार्म पर बैठे हुए तथा कभी ऊँघते हुए काट दी।

प्रातःकाल 6 बजने पर मैं वहीं के शौचालय में शौच से निवृत्त हुआ और हाथ-मुँह धोये। नहाने का प्रश्न ही नहीं था। फिर कपड़े बदल कर मैं टैम्पो से एच.ए.एल. चल दिया। जिस समय मैं वहाँ पहुंचा, 7.45 हो रहे थे। मुझे खुशी थी कि मैं समय से पहले आ गया। लेकिन मेरी खुशी उस समय उड़ गयी, जब वहाँ के एक चौकीदार ने बताया कि कोई भी इन्टरव्यू 9-10 बजे से पहले शुरू नहीं होता। मेरी तरह दो-चार और लड़के भी आ गये थे। हमें लगभग डेढ़ घंटे बाहर खड़े रहना पड़ा। तब तक हम कुल 13 लोग इन्टरव्यू देने के लिए आ चुके थे। उससे एक दिन पहले भी कई लोगों का इन्टरव्यू हो चुका था। जब हमें अन्दर जाने की इजाजत मिली तब तक 9.30 बज गये थे। वहाँ हमें कैन्टीन में बैठकर प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया। आखिर 10.00 बजे एक लिपिक महोदय पधारे और हमसे एक प्रार्थना पत्र फिर भरवाया गया। उनके प्रस्थान करने के बाद हमें फिर इन्टरव्यू की प्रतीक्षा करनी थी।

इन्टरव्यू लगभग 10.30 बजे शुरू हुआ और मेरा नम्बर 12 बजे आ गया। जब मैं वहाँ गया तो देखा कि वहाँ 10-12 लोग एक बड़ी मेज के चारों ओर बैठे हैं। उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं चिड़ियाघर से छूट कर आया कोई जानवर होऊँ। मेरा हुलिया भी कोई बहुत अच्छा नहीं था। लापरवाही से, या आधुनिक भाषा में कहें तो समय की कमी से, मैंने चार दिन से अपनी दाढ़ी नहीं बनायी थी। अत्यधिक मेहनत करने के कारण और जाड़े के कारण मैं कुछ कमजोर सा लग रहा था। उस पर तुर्रा यह कि उस दिन तब तक मैंने एक कप चाय तक नहीं पी थी।

मैंने अपनी सुनने की कठिनाई बतायी। शीघ्र ही चारों ओर से प्रश्न स्लिपों पर लिखकर आने शुरू हो गये। मैंने सबका समुचित जबाव दिया। इन्टरव्यू लेने वालों के अध्यक्ष (जिनका नाम श्री आर.के. तायल मुझे बाद में पता चला) ने मुझसे कहा कि तुम कम्प्यूटर और डाटाबेस के बारे में जो जानते हो बताओ। मैंने संक्षेप में एक-दो वाक्यों में बता दिया। तो उन्होंने कहा- बताते रहो। अब मैंने विस्तार से बताना शुरू किया और 2-3 मिनट तक बोलता रहा। इसके बाद फिर मुझसे कई प्रश्न पूछे गये। उनमें से ज्यादातर व्यक्तिगत थे। उन्हें इस बात में संदेह था कि मैं अकेला लखनऊ में कैसे रहूँगा। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तीन साल से दिल्ली में अकेला रह रहा हूँ तथा वहाँ से अकेला ही इन्टरव्यू देने आया हूँ, तो वे संतुष्ट हो गये। उनमें से एक ने मुझसे यह भी पूछ डाला कि मेरी शादी हो गयी है या नहीं और अगर नहीं तो कब करूँगा। मैंने उनको बताया कि पहले अपने पैरों पर खड़ा हो जाने के बाद ही इसके बारे में सोचा जाएगा। उन्होंने मुझे चाय भी पिलाई। मेरा इन्टरव्यू काफी लम्बा चला। पूरा होने के बाद मैं धन्यवाद देकर और उन सबको नमस्ते करके बाहर आया।

बाहर आकर सबसे पहले मैंने कैन्टीन में खाना खाया फिर इस बात की जानकारी ली कि मेरा यात्रा खर्च कब मिलेगा। लगभग 2 बजे मुझे 73/- रुपये यात्रा खर्च के मिले। तब मैं वहाँ से छुट्टी पा सका। वहाँ से मैं सीधा स्टेशन गया और पता लगाया कि आगरा के लिए रिजर्वेशन मिल जायेगा कि नहीं। उन्होंने मना किया। तब मैं बस स्टेशन गया। वहाँ से पता चला कि एक बस शाम को सात बजे चलकर सुबह 6 बजे आगरा पहुँचा देगी। मैंने बस से ही जाने का फैसला किया। बीच के 3-4 घंटे मैंने स्टेशन से बाहर लान में बैठकर तथा गौतम बुद्ध मार्ग पर घूम कर काटे। उसी मार्ग पर मेरी पत्र-मित्र कु. अनीता अग्रवाल का घर था जिसे मैंने ढूँढ़ लिया और दूर से देखकर लौट आया। उस समय उसकी छोटी बहन तथा वह भी बालकनी में खड़ी थी। शायद उसने मुझे पहचान भी लिया हो। लेकिन बातें करने अथवा उनके घर में जाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। इसलिए मैं वहीं से लौट आया।

शाम को निर्धारित समय पर बस चली। रास्ते में जाड़ा तो लग रहा था, लेकिन उससे भी ज्यादा परेशानी मुझे नींद की वजह से हो रही थी। पिछली रात मैं बिल्कुल नहीं सो पाया था तथा पूरा दिन भी खड़े-खड़े या टहलते हुए बीता था। मुझे बहुत जोर से नींद आ रही थी लेकिन मैं किसी तरह जागता रहा। रास्ते में बस हर दो घंटे बाद 10-15 मिनट के लिए रुका करती थी, मैंने उसी बीच सोने की कोशिश करता था। प्रातः आगरा पहुँच कर घर जाकर मुझे कुछ शान्ति मिली।

करीब सप्ताह भर आगरा में ही रहने के बाद मैं पुनः दिल्ली लौटा। अब मुझे कायदे से पीएच.डी. करनी चाहिए थी। पीएच.डी. के लिए मेरा रजिस्ट्रेशन भी हो गया था। लेकिन मेरी इच्छा पीएच.डी. करने की बिल्कुल नहीं थी और मैं नौकरी करना चाहता था। मुझे पूरा विश्वास था कि एन.आई.सी. तथा एच.ए.एल. दोनों में से किसी न किसी एक जगह मेरा चयन हो जायेगा।

एन.आई.सी. में पूछताछ करने पर पता चला कि मेरा नाम प्रतीक्षा सूची में है तथा जुलाई-अगस्त तक मैं बुलावे की आशा कर सकता हूँ। एच.ए.एल. से फरवरी-मार्च में भी कोई जबाब न आने पर मैंने उन्हें एक पत्र लिखा। उन्होंने सूचित किया कि अभी कोई निश्चय नहीं हुआ है और होने पर तुरन्त सूचित किया जायेगा।

लेकिन मुझे ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी और 27 अप्रैल 1983 को मेरे पास एच.ए.एल. से नौकरी का प्रस्ताव आ गया। सबसे पहले मैंने श्री राम नरेश सिंह को इस बारे में सूचित किया। मेरा मन एच.ए.एल. में जाने का नहीं था क्योंकि वहाँ कुल वेतन मात्र 1285 रुपये था, जो उस समय के हिसाब से भी कम था। लेकिन राम नरेश सिंह ने कहा कि मुझे यह मौका छोड़ना नहीं चाहिए। मैंने अपने परिवार वालों से भी पूछा। वहाँ से जबाव आया कि 40-45 रुपये प्रतिदिन की नौकरी छोड़ना ठीक नहीं है। अन्त में मैंने जाने का निश्चय कर लिया और एच.ए.एल. को सूचित कर दिया कि मैं 16 मई तक वहाँ आ जाऊँगा।

मेरा कम्प्यूटर का काम अभी भी पूरा नहीं हो पाया था, क्योंकि डिजर्टेशन जमा करने के बाद मेरा मूड खराब हो गया था और मैं इस तरफ से लापरवाह हो गया था। लेकिन जब मुझे एच.ए.एल. से नौकरी का प्रस्ताव मिल गया, तो मैं समझ गया कि यह कार्य भी जाने से पहले पूरा कर लेना है, क्योंकि यदि यह अब न हो पाया तो फिर कभी नहीं हो पायेगा। मुझे तब तक एन.आई.सी. के कम्प्यूटर पर काम करने की अनुमति मिल गयी थी और मैं एक दूसरी प्रोग्रामिंग भाषा पास्कल (Pascal) में अपनी डिजर्टेशन के लिए प्रोग्राम लिख रहा था। मैंने तय कर लिया कि यह कार्य 13-14 मई तक पूरा कर लूँगा और फिर आगरा होकर लखनऊ चला जाऊँगा। इसी उद्देश्य को लेकर मैं फिर कठिन परिश्रम में जुट गया। पास्कल भाषा का प्रयोग केवल शाम को 5 बजे से 8 बजे तक किया जा सकता था, अतः मैं दिन भर अपने कमरे पर प्रोग्राम लिखता तथा शाम को 5 बजे एनआईसी जाकर कम्प्यूटर में वही प्रोग्राम प्रविष्ट करता। जल्दी ही मेरा 1500 पंक्तियों का प्रोग्राम पूरा हो गया।

यह मेरा अब तक का सबसे लम्बा प्रोग्राम था और पास्कल भाषा में प्रोग्राम लिखना वैसे भी काफी कठिन होता है। फिर भी मैंने यह कार्य पूरा कर लिया। अब केवल दो दिन का ही काम बाकी रह गया था। तभी ऐसी घटना घट गयी, जिसने मेरी जिन्दगी को लम्बे समय के लिए विषाक्त कर दिया।

उन दिनों हमारे वि.वि. में राजनैतिक सरगर्मियां बड़े जोरों पर थीं। वि.वि. के अधिकारियों ने एक छात्र को जबर्दस्ती उसके कमरे से निकाल दिया था। इसके जबाब में छात्रसंघ ने उस कमरे का ताला तोड़कर उस छात्र को पुनः उसी में स्थापित कर दिया। इस घटना या दुस्साहस की सजा के तौर पर कुलपति ने, जिसकी कुर्सी को उन दिनों श्री पी.एन. श्रीवास्तव कार्यवाहक कुलपति के तौर पर ‘सुशोभित’ कर रहे थे, उस छात्र श्री जलीस अहमद तथा छात्रसंघ के अध्यक्ष श्री मोहंती और महामंत्री श्री सुबोध मलाकर को तीन-तीन साल के लिए विश्वविद्यालय से निकाल दिया। यह कार्रवाई छात्रों को भड़काने के उद्देश्य से जान-बूझकर की गयी थी और इसका कोई औचित्य नहीं था।

अधिकारियों की आशा और षड्यंत्र के अनुसार छात्र भड़क गये और उन्होंने कुलपति, रजिस्ट्रार तथा रेक्टर तीनों बड़े अधिकारियों का घेराव कर लिया। तीनों को कुलपति के निवास स्थान पर एक कमरे में बैठा दिया गया। प्रारम्भ में उनकी बिजली, पानी भी बंद रखी गयी, लेकिन शीघ्र ही वह प्रतिबंध हटा लिया। छात्रों ने तीनों अधिकारियों को बहुत समझाया, उनके लिए अच्छे से अच्छा खाना लाकर खिलाया, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। अध्यापकों ने कई बार उनको घेराव से मुक्त कराने की कोशिश की, लेकिन छात्रों की सुदृढ़ एकता के कारण उनका कोई बस नहीं चला।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 36)

  • सुधीर मलिक

    बहुत सुन्दर…अत्यन्त रोचक

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, प्रियवर !

  • रमेश कुमार सिंह

    बहुत अच्छा सफर है श्रीमान जी।जिन्दगी का

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, बंधु.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, बन्धुवर !

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