सामाजिक

आदिवासी परम्पराएं “दापा प्रथा “

पतिदेव की पोस्टिंग 13 बरस पहले उदयपुर से तक़रीबन 110km दूर कोटड़ा आदिवासी बहुल क्षेत्र में रही। उन दो बरसों में आदिवासी जीवन को बहुत करीब से जानने समझने का मौका मिला। गुजरात की सीमा से सटा साबरमती नदी के किनारे बसा यह गाँव प्राकृतिक सौन्दर्य का अनूठा खजाना है। बांस , खजूर, महुवा, आम जामुन टेशू के पेड़ों से लदी यहाँ की ऊँची-नीची पहाड़ियां, बीच-बीच में पतली-पतली नदियों के गुजरे नक्श हरी भरी वादियाँ , खुला गगन शहरी कोलाहल से दूर शांत वातावरण मन को आनन्दित कर देते हैं ।

हालाँकि इस गाँव में पंहुचना आसान नहीं होता था शाम पांच बजे के बाद व सुबह 9 बजे से पहले कोई वाहन नहीं मिलता था। सुबह जल्द निकलने वाले व रात में देर से आने वाले वाहनों को आदिवासी लोग झुण्ड बनाकर लूट लेते थे। इस कारण ये साधन शाम ढलने से पहले ही बंद हो जाते थे, सुबह भी साफ़ उजाला होने से पहले नहीं चलते थे । खाने पीने का समुचित सामान नहीं मिलता था यहाँ तक कि दूध भी नहीं मिलता था । उदयपुर से लाकर ज्यादा रखते तो रात को आदिवासी कब चुरा कर ले जाए पता ही नहीं चलता था । आप एक कमरे में सोते रहो बाहर से आपका कुंदा लगाकर पूरा घर बड़ी चतुराई से साफ़ कर देते थे।

ये तीर चलाने में बड़े माहिर होते हैं। इनके छोटे छोटे बच्चे भी उड़ती चिड़िया को ऐसा निशाना मारते हैं कि बार में ही वो ज़मीन पर आ गिरती है ..चोरी करते वक्त भी पहले तो तीर चला कर आपके आस-पास जलते सारे बल्ब फोड़ते हैं। फिर चुपके से दबे पाँव आपके घर क्वार्टर में घुसते और सामान चुरा ले जाते यहाँ तक की राशन का सामान भी। इनकी भी पोस्टिंग के दूसरे दिन ही जितना सामान साथ ले गए टी वी, अटेची कुछ बर्तन कपडे बेग खाने पिने का सामान, बाल्टी, घड़े, वो सारा रात में चोरी हो गया। पर हाँ चोरी करते वक़्त उन्होंने पतिदेव की एक बाहर व एक घर में पहनने की सबसे पुरानी ड्रेस छोड़ दी थी। इनके दबे पाँव चलने पर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। जब इनको पहाडी पर भी चढ़ते-उतरते देखती हूँ तो कोई आवाज नहीं आती इनके क़दमों की। इनके जितने दबे पांव तो बिल्ली भी नहीं आती।

ऑफिस से जब कोई सामान लेने ऑफिस के सर्वेंटस जीवा या मेघा आते तो इतने दबे पाँव चुपके से क्वाटर के अंदर आते कि मैं अचानक से डर जाती । फिर धीरे-धीरे मैंने क्वाटर की अंदर से चिटखनी लगानी शुरू कर दी ताकि वो जब आयें दरवाजा खटखटाकर अन्दर आयें, पर वो बिना दरवाजा बजाये वापस लौट जाते ऑफिस में जाकर बोलते ‘मेडम किंवाड़ नीं खोलता ..।’ फिर सर्वेन्ट्स को किसी काम से भेजने से पहले ये मुझे लैंड लाइन पर फ़ोन करने लगे। जीवा तो 24 घंटे पिए हुवे रहता चोरी में ये लोग भी लिप्त रहते। जो जो आदिवासी जहाँ काम करता उस जगह आस पास की सारी जानकारी एकत्रित करता। अपने साथियों को बताता व रात में तक़रीबन दो बजे से तीन साढे तीन बजे यह चोरी को अंजाम देते। हमारे चोरी होने के बाद हम रोज आधा किलो एक किलो आटा जरूरत के मुताबिक खरीदने लगे। दालें वगेरह भी पाँव आधा किलो तक ही ।

गर्मियों के दिन थे। हम सब चौक में खाट लगाकर सो रहे थे। रात को ढाई बजे बाहर चौक का बल्ब फूटा। अचानक आकर तीर लगा। मैं जग ही रही थी वैसे ही मुझे रात चार बजे के बाद ही नींद आती है। अक्सर तो कोई किताब पढ़ती रहती हूँ .. मैं जोर से चिल्लाई कौन है। उठ कर भागने लगी तो क्वाटर की दीवार पर दो साए दौड़ रहे थे, पर दौड़ने में भी इनके क़दमों में आवाज नहीं थी । डर और प्रकृति के सौन्दर्य का अजब मेल देखा उन दो सालों में।

अभी फिर पोस्टिंग पिण्डवाडा जिला सिरोही यह भी कोटड़ा ,बेकरिया, वासा , उखलियात , झेड़ सारे आदिवासी गाँव करीब होने के कारण कभी-कभार गाड़ी उठाकर निकल जाती हूँ। एक बार फिर आदिवासी जन-जीवन को करीब से देखने समझने का मौका मिल रहा है । परन्तु 13 साल पहले गाड़ी उठाकर निकलना तो बहुत दूर की बात मैं जरा गाँव में भी एक दो किलोमीटर तक चली जाती तो ये बड़े चिंतित हो उठते। तब आदिवासियों का काफी खोफ था, लूट का भी। पर अब इन 13 बरसों में आये बदलाव को भी महसूस किया जा सकता है ।

उन दिनों इनके बारे में बहुत सारी जानकारी जुटाई इनके रहन-सहन, खान-पान इनके पहनने -ओढने इनकी संस्कृति के बारे में। उनमे सबसे अधिक मुझे चोंकाया इनकी योरोप संस्कृति के लिव इन रिलेशनशिप से मिलती जुलती परंपरा ने। यह परम्परा उदयपुर सिरोही बांसवाडा डूंगरपुर के आदिवासी क्षेत्र में बरसों से चली आ रही है। बरसों से तो मैं देख रही हूँ। इतिहास कहता है इनमे यह परम्परा सदियों से चली आ रही है । इन आदिवासी व अन्य घुमक्कड़ जातियों में ‘दापा प्रथा’ युगों से प्रचलित है, जिसमें पति की मृत्युपरांत या जीवित अवस्था में भी स्त्री पुनर्विवाह कर सकती थी। लोग कहते थे जीवा की पत्नी ने भी दूसरा पति कर लिया। इस प्रथा’ के अन्तर्गत लड़के वालों द्वारा लड़की वालों को ‘वधू मूल्य’ चुकाना पड़ता है । यह प्रथा ठीक वैसे ही जो अपने आपको उच्च कुल का समझते हैं उनमे लड़के के घर वालों द्वारा लड़की वालों से दहेज़ लेना ।

उदयपुर के कोटडा में अभी आठ माह पहले ही एक 70 वर्षीय आदिवासी पाडलवाडा निवासी नानिया ने अपने साथ तकरीबन 42 वर्ष से रह रही 65 वर्षीय काली से विवाह रचाया। यह विवाह उसने अपने तीन पुत्रों के विवाह के साथ ही रचाया। जब तक वे दोनों पति-पत्नी की तरह साथ तो रह रहे थे बच्चे भी किये पर रीती रिवाजों से शादी नही की थी। पुत्र भी 50 से 35 वर्ष की आयु के बीच के। अपनी जीवनसंगनियों के साथ लिव इन रिलेशन जैसी प्रथा की तरह ही रह रहे थे। इस इन शादियों में नाते पोते ,पड़पोते नाती,पोतियाँ पड़पोतियाँ सब शामिल हुवे।

यह प्रथा दापा प्रथा कहलाती है। इस प्रथा में सबसे पहले युवक-युवती सहमति बनाते हैं। लड़के वाले लड़की पक्ष को कुछ राशि देते हैं। राशि का फैसला सामाजिक स्तर पर तय होता है। दोनों परिवार एक दूसरे से वचन करते हैं। इसके बाद युवक -युवती दम्पती की तरह रहना शुरू कर देते हैं। अगर आपसी विचार मेल नहीं खाते या कोई और समस्या होने पर बगैर किसी विवाद के इस रिश्ते को खत्म किया जा सकता है। रिश्ता खत्म करने की लिए युवक को फिर कुछ राशि युवती के परिवार वालों को देनी पड़ती है। उसके बाद दोनों किसी से भी विवाह में बंधने के लिए स्वतंत्र होते हैं, लेकिन इस रिश्ते में पैदा हुए बच्चे सदैव पिता के पास ही रहते हैं।

उदयपुर सिरोही बांसवाडा डूंगरपुर सहित राजस्थान के कई आदिवासी बहुल जिलों में आज भी कहीं-कहीं यह प्रथा प्रचलित है परन्तु आज उतनी नहीं जितनी 13 साल पहले देखने को मिलती थी । इंटरनेट व टी.वी आवगमन के साधनों की बढ्तोरी व शिक्षा का इन इलाकों में समुचित प्रसार प्रचार के कारण युवा पीढ़ी में चेतना आई है। वे इसे कुप्रथा के रूप में देखते हैं व शादी करके ही घर बसाने में विश्वास रखते हैं ।साथ ही लड़की के घर वाले भी लड़की के एवज में पैसा लेना बुराई मानने लगे हैं।

अब आदिवासी लोग अपने समाज में फैली कुप्रथाओं के खिलाफ लामबद्ध हुवे हैं। दहेज प्रथा, दापा प्रथा, सामाजिक आयोजनों में नशाखोरी आदि कुरीतियों पर प्रतिबंद लगाने के लिए अब यह समाज एक जुट होता दिखाई दे रहा है । बाल विवाह से समाज पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव समझने लगे हैं । अब इनके सामाजिक पंच बाल विवाह पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को कटिबद्ध हैं । इन कुरीतियों से निपटने के लिए इनके कई गांवों में पंचों ने ने बाल विवाह करने पर 51 हजार रुपए का जुर्माना करने का भी निर्णय लिया है । वहीं बाल विवाह में भाग लेने वाले परिवार से इक्कीस हजार रुपए वसूलने का निर्णय लिया है इन लोगों ने ।

आशा पाण्डे ओझा

आशा पाण्डेय ओझा

जन्म स्थान ओसियां( जोधपुर ) जन्मतिथि 25/10/1970 पिता : श्री शिवचंद ओझा शिक्षा :एम .ए (हिंदी साहित्य )एल एल .बी। जय नारायण व्यास विश्व विद्यालया ,जोधपुर (राज .) प्रकाशित कृतियां 1. दो बूंद समुद्र के नाम 2. एक कोशिश रोशनी की ओर (काव्य ) 3. त्रिसुगंधि (सम्पादन ) 4 ज़र्रे-ज़र्रे में वो है शीघ्र प्रकाश्य 1. वजूद की तलाश (संपादन ) 2. वक्त की शाख से ( काव्य ) 3. पांखी (हाइकु संग्रह ) देश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं व इ पत्रिकाओं में कविताएं ,मुक्तक ,ग़ज़ल,क़तआत ,दोहा,हाइकु,कहानी , व्यंग समीक्षा ,आलेख ,निंबंध ,शोधपत्र निरंतर प्रकाशित सम्मान -पुरस्कार :- कवि तेज पुरस्कार जैसलमेर ,राजकुमारी रत्नावती पुरस्कार जैसलमेर ,महाराजा कृष्णचन्द्र जैन स्मृति सम्मान एवं पुरस्कारपूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग (मेघालय ) साहित्य साधना समिति पाली एवंराजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर द्वारा अभिनंदन ,वीर दुर्गादास राठौड़साहित्य सम्मान जोधपुर ,पांचवे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेनताशकंद में सहभागिता एवं सृजन श्री सम्मान,प्रेस मित्र क्लब बीकानेरराजस्थान द्वारा अभिनंदन ,मारवाड़ी युवा मंच श्रीगंगानगर राजस्थान द्वारा अभिनंदन , संत कविसुंदरदास राष्ट्रीय सम्मान समारोह समिति भीलवाड़ा राजस्थान द्वारासाहित्य श्री सम्मान ,सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान पूर्वोत्तर हिंदीअकादमी शिलांग मेघालय ,अंतराष्ट्रीय साहित्यकला मंच मुरादाबाद केसत्ताईसवें अंतराष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन काठमांडू नेपाल मेंसहभागिता एवं हरिशंकर पाण्डेय साहित्य भूषण सम्मान ,राजस्थान साहित्यकारपरिषद कांकरोली राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,श्री नर्मदेश्वर सन्यास आश्रमपरमार्थ ट्रस्ट एवं सर्व धर्म मैत्री संघ अजमेर राजस्थान के संयुक्ततत्वावधान में अभी अभिनंदन ,राष्ट्रीय साहित्य कला एवं संस्कृति परिषद्हल्दीघाटी द्वारा काव्य शिरोमणि सम्मान ,राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुरएवं साहित्य साधना समिति पाली राजस्थान द्वारा पुन: सितम्बर २०१३ मेंअभिनंदन सलिला संस्था सलुम्बर द्वारा सलिला साहित्य रत्न सम्मान 2014 रूचि :लेखन,पठन,फोटोग्राफी,पेंटिंग,पर्यटन संपर्क : 07597199995 /09414495867 E mail I D asha09.pandey@gmail.com ब्लॉग ashapandeyojha.blogspot.com पृष्ठ _आशा का आंगन एवं Asha pandey ojha _ sahityakar

4 thoughts on “आदिवासी परम्पराएं “दापा प्रथा “

Comments are closed.