भाषा-साहित्य

आधुनिक कथा साहित्य की बदलती प्रवृत्तियाँ

कहा जाता है कि यथार्थ को संजोते हुए जीवन की वास्तविकता का चित्रण कर समाज की गतिशीलता को बनाये रखने का मर्म ही कहानी हैं। लेकिन उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है आधुनिक कथा साहित्य, क्योंकि जीवन वास्तविक तत्यों से कुछ हटकर ही आधुनिक कथा साहित्य ने रुप धारण कर लिया है। जिनसे उम्मीद सी बंधती थी कि इस दौरान कुछ ऐसी कहानियां आयेंगी जिनकी गूंज इस सदी के अंत तक सुनाई पड़ेंगी. पर यहां ऐसा कुछ न था जो हिंदी कहानी की रचनात्मक सत्ता स्थापित करने की निर्मल इच्छा से भरा हो और अक्सर चर्चा के केंद्र में रचना से ज्यादा रचनेतर चीजें हावी रहीं. महाभारत और महाबार के दौर में विशेषांक के पहले ‘महा’ विशेषण जोड़ने की मौलिक कल्पना वाले रवीन्द्र कालिया ने छियासठ कहानियों के एकत्रीकरण से यह सिद्ध कर दिया कि पत्रिका सम्पादित करने के लिए दृष्टि कितनी गैर जरूरी चीज होती है! और जब कालियाजी को इसका आभास हुआ तो वे अपने उतावलेपन में ऐ लड़की कहानी की गैर रचनात्मक खूबियों का बखान करने में इस तरह जुट गये मानों उनका संपादक होना कृष्णा सोबती द्वारा वह कहानी लिख पाने के लिए आवश्यक था. ऐसा पहली बार हुआ कि कोई संपादक छियासठ कहानियों को पढ़े जाने का अवकाश दिए बिना किसी कहानी की चर्चा का श्रेय लेने की हडबड़ाहट में इस तरह भर गया हो, और ‘मैं महान’ वाला आत्मगौरव भी ऐसे कि किस तरह एक पाठक ने लिखा कि वे ऐ लड़की पढकर इतना डर गये कि गायत्री मन्त्र का जाप करने लगे. यह नये किस्म का पुनरुत्थानवाद था और वहां सूचनाएं थीं कि कैसे अलका सरावगी ने अपनी पहली कहानी से ही कमाल कर दिया,

आज की हिंदी कहानी अब भी गांव में घूम रही है. इस सिलसिले में यह जानना आतंक भरा है कि यहां बहुत कम कहानियां अपना शहर उसके पूरे आतंक को साथ लेकर उपस्थित हुई हैं. गांव से लेकर कस्बे की या फिर ‘देश काल रहित’ इन कहानियों में, अमानवीकरण के खतरे से लेकर संवेदनशून्यता का ठंडा स्वीकार, सारा कुछ मौजूद तो है पर इन सबके बावजूद शहर अपने परिवेश सहित जैसे यहां अनुपस्थित है, और यह तब जब अब भी ज्यादातर कथाकार शहरों में हैं, छुट्टियों में गांव भले जाते हों! तो क्या इससे संकेत यह लिया जा सकता है कि साहित्य

कई बार आसपास से यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या हिन्दी में नई कविता की तरह आज एक नई कहानी भी जन्म ले रही है? आज की कविता के साथ ‘नई’ विशेषण कुछ इस तरह से रूढ़ हो गया है कि उसकी अपनी अर्थवत्ता गुम-सी हो गयी प्रतीत होती है। हर युग में युग की परिस्थितियों के अनुकूल नई कविता जन्म लेती रही है, और इस अर्थ में नि:सन्देह आज एक नई कहानी जन्म ले रही है और नि:सन्देह वह हमारे समय तक की संचित चेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन रही है। नई कहानी से यह अर्थ कदापि नहीं है कि आज की कहानी ने पहले की परंपरा से सर्वथा विच्छिन्न होकर उसे ‘पुरानी’ की संज्ञा में बन्द कर दिया है और स्वयं उससे स्वतन्त्र होकर विकास कर रही है। नई कविता के क्षेत्र में इस तरह के भ्रम का अवकाश फिर भी है, परन्तु नई कहानी के क्षेत्र में बिल्कुल नहीं। इसलिए हमारे सामने प्रश्न वस्तुत: यह है कि क्या आज की कहानी अपनी परंपरा को विकास के अगले सोपान तक ले जाने में समर्थ हुई है? क्या वस्तुत: आज के कहानीकारों ने अपने समय तक की उपलब्धियों से आगे किसी नए धरातल को छूने के प्रयत्न में सफलता प्राप्त की है? क्या इस पीढ़ी के हाथों इस कला को अधिक अर्थवत्ता प्राप्त हुई है?

समकालीन आलोचना का अध्ययन करने पर नई कहानी तो क्या कहानी के अस्तित्व में ही सन्देह होता है। जैसाकि नामवर सिंह के ‘कहानी’ के विशेषांक में प्रकाशित लेख से स्पष्ट है, कहानी के सम्बन्ध मंि समकालीन हिन्दी आलोचक की उदासीनता या उखड़ी-उखड़ी-सी जानकारी कहानी की सीमाओं को नहीं, आलोचक की सीमाओं को ही व्यक्त करती है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में साहित्य की इस विधा के अन्तर्गत जितने प्रयोग हुए हैं,

पिछले दो-तीन वर्षों में आज की हिन्दी कहानी के मूल्यांकन के कुछ प्रयत्न हुए हैं, परन्तु उनसे स्थिति स्पष्ट हो सकी हो, ऐसा नहीं। अधिकांश लेखों में दो-एक कहानीकारों के वस्तु और शिल्प सम्बन्धी प्रयोगों की चर्चा उठाकर और शेष लोगों की नामावलियाँ प्रस्तुत करके ही कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गयी। अन्यत्र इसी तरह के कुछ प्रयोगों के वस्तु और शिल्प को आधार मानकर नई कहानी की उपलब्धियों का सैद्धान्तिक

आज का कहानीकार समकालीन आलोचक से यह आशा करे ये दुराग्रह न होगा कि वह उसके रूप में ही उसकी आलोचना करे, किसी अन्य के द्वितीय या तृतीय संस्करण के रूप में नहीं। कहानी के रूप का परिमार्जन और उसकी सामथ्र्य का विस्तार पिछली कई शताब्दियों में हुआ है। आज के कहानीकार की सफलता या असफलता का निर्णय इस आधार पर होगा कि वह उस शताब्दियों की विरासत का सही उपयोग करता हुआ उसमें समृद्धि ला सका है या नहीं।

आज का कहानीकार आसपास के जीवन की मांसल भूमि को छोडक़र किन्हीं वायव्य संकेतों में नहीं भटकना चाहता, इसलिए उसकी कहानी स्थूल है। परन्तु साथ ही कलात्मक प्रभाव पर दृष्टि रखते हुए वह अपनी बात अभिधा से न कहकर, एक संकेत, एक सजेशन द्वारा कहना चाहता है, इसलिए उसका लेखन उलझा हुआ प्रतीत होता है। यथार्थ की प्रामाणिकता के साथ सांकेतिक प्रभावान्विति के समन्वय के सभी प्रयत्न सफल हुए हों, ऐसा नहीं। परन्तु कई एक कहानियाँ हैं, जिनमें इन विशेषताओं का निर्वाह बहुत सफलतापूर्वक हुआ है। भीष्म साहनी की ‘भाग्यरेखा’, राजेन्द्र यादव की ‘नया मकान और प्रश्नवाचक पेड़’, कमलेश्वर की ‘राजा निरबंसिया’ और शेखर जोशी की ‘बदबू’ आदि कहानियाँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं। कहीं कहानी मानव-मन की विकृतियों का चित्रण करके उस वातावरण की भयावहता का संकेत देती है, जो उन विकृतियों को जन्म देता है, कहीं असुन्दर के विश्लेषण द्वारा सुन्दर के प्रति आस्था को व्यक्त करती है। इसीलिए कई बार केवल एक चरित्र या केवल एक वातावरण के चित्रण द्वारा भी कहानीकार एक सजेशन देने का प्रयत्न करता है। यदि वह सजेशन देने में सफल है, तो उसकी रचना अधूरी या एकांगी नहीं कही जा सकती।
वातावरण की एक ध्वनि और व्यक्ति-मन की एक-एक प्रतिक्रिया के संघटन द्वारा वह अपेक्षित द्वन्द्व की सृष्टि में सफल होता है। रामकुमार की कहानी ‘डेक’ और निर्मल वर्मा की ‘परिन्दे’ इस प्रकार के संघटन के सफल उदाहरण हैं। इन कहानियों में वातावरण ने भी जैसे सजीव और सक्रिय चरित्र के रूप में भावगत ट्रेजेडी के निर्माण में भाग लिया है।

नए कहानीकार वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से कहानी के स्वरूप के परिमार्जन में व्यस्त हैं, इतना श्रेय तो उन्हें देना होगा। परन्तु नए-नए क्षेत्रों की खोज में और असुन्दर से सुन्दर तथा सुन्दर से असुन्दर तक की अपनी अनवरत यात्रा में यदि कहीं वे भटक जाते हैं तो इसे उन्हें नत-शिर होकर स्वीकार करना होगा।

आज की कहानी की अनुपलब्धियों की बात उठायें तो सबसे पहले यही बात ध्यान में आती है कि नई कहानी समकालीन जीवन के यथार्थ का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रही, क्योंकि खंडगत जीवन के बहुत-से चित्रों के अन्दर आज के अखंड जीवन का सही प्रतिबिम्ब देखने को नहीं मिलता। अधिकांश कहानीकारों ने नागरिक या ग्रामीण जीवन की संकीर्णता या असंकीर्णता के जो चित्र अपनी कहानियों में प्रस्तुत किये हैं, उनसे आज के भारतीय जीवन के विराट् स्पन्दन का सही अनुभव नहीं होता। कुछ लेखकों के दिमाग़ में यह बात समायी है कि आज का नागरिक जीवन इस तरह के दलदलों में फँसा है कि वहाँ स्वस्थ मानव के दर्शन नहीं हो सकते, इसलिए वे कहानी में ग्रामीण जीवन के चित्र प्रस्तुत करके ही मानव के स्वस्थ-सुन्दर रूप का परिचय दे सकते हैं। बात इतने तक ही सीमित नहीं है कि कहानी के अन्तर्गत जिन चरित्रों को हम प्रस्तुत करते हैं, वे दुर्बल हैं या सबल, या कि जिस वातावरण को हम उठाते हैं, वह संकुल है या असंकुल। असुन्दर से दूर कहीं सुन्दर का भी सद्भाव है, निर्बल से दूर कहीं सबल भी वर्तमान है, क्या इतने मात्र से जीवन को कुछ संकेत मिल पाता है? जीवन निरन्तर विकास कर रहा है और उसके विकासक्रम में ही वह सब कूड़ा-कचरा पैदा होता है, जो उसके विकास में बाधा पहुँचाना चाहता है। उसकी सड़ाँध से ऊबकर हम वहाँ चले जाएँ, जहाँ अपेक्षया अधिक ताजी हवा बहती है, तो क्या उससे वह सड़ाँध दूर होगी? हिन्दी में ग्राम-जीवन को लेकर लिखी गयी कहानियों की प्रतिष्ठा के प्रसंग में कई बार ऐसी-ऐसी उद्घोषणाएँ की जाती हैं, जिनसे जीवन की विकास-यात्रा के सम्बन्ध में भ्रान्ति उत्पन्न हो सकती है।

यह सच होते हुए भी कि भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है, इसमें सन्देह नहीं कि गाँव हमारे जीवन के विकास-क्रम का अगला सोपान नहीं है। जीवन के विकास-क्रम को प्रभावित करनेवाली समस्याएँ जिन राजनीतिक, आर्थिक और साम्प्रदायिक आवर्तों में जन्म लेती हैं, उनके केन्द्र नि:सन्देह हमारे गाँव नहीं हैं, गाँवों का जीवन उनसे प्रभावित अवश्य हो रहा है। जीवन की प्रगति में विश्वास रखनेवाले और उसके कल के रूप को निर्धारित करने में योग देनेवाले कलाकार के लिए क्या यही मार्ग है कि वह उस जीवन से दूर हट जाए, क्योंकि उसमें बहुत संकुलता दिखाई देती है? क्योंकि शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में उसे जीवन और सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते, इसलिए क्या इसी में उसकी महत्त्वाकांक्षा की परिणति है कि वह गाँवों में जीवन का स्वस्थ सौन्दर्य और मानव की ऊर्जस्वित शक्ति देखकर सन्तुष्ट हो रहे? और क्या सचमुच शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में कुछ भी स्वस्थ और सुन्दर नहीं है? उन घुन खाये इन्सानों के अन्दर कहीं भी मानवसुलभ कोमलता नज़र नहीं आती? मानव की दृढ़ता का परिचय नहीं मिलता? और गाँवों का जीवन क्या वास्तव में सुन्दर और ऊर्जस्वित मात्र ही है? झूठ, फरेब, चोरी और मक्कारी आदि की विडम्बनाओं से यह सर्वथा मुक्त है?

इससे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि आज की कहानी में हुए कुछ प्रयोगों के आधार पर जीवन के यथार्थ के सम्बन्ध में अपनी धारणा को संकुचित बनाकर हम जीवन के उत्तरोत्तर विकासमान रूप के साथ न्याय नहीं करते। जहाँ यह आवश्यक है कि लेखक अपने अनुभव-क्षेत्र से प्रेरणा ग्रहण करे, जिससे उसकी रचना जीवन के प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत कर सके,

पिछले पाँच-छ: वर्षों में हिन्दी कथा-साहित्य के अन्तर्गत बहुत से ऐसे प्रयोग हुए हैं जिनसे साहित्य के इस अंग को नई दिशा और नई अर्थवत्ता प्राप्त हुई है। उपन्यास के क्षेत्र में ‘बूँद और समुद्र’ तथा ‘परती : परिकथा’ जैसी कृतियों ने सर्वथा नए धरातल छूने में सफलता प्राप्त की है तो कहानी के क्षेत्र में ‘भाग्य रेखा’, ‘डेक’, ‘परिन्दे’, ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’, ‘राजा निरबंसिया’, ‘डिप्टी कलक्टरी’, ‘बदबूदार गली’, ‘गुलरा के बाबा’, ‘शहीद’ और ‘कोसी का घटवार’ जैसी रचनाओं ने नए मूल्यों की स्थापना का श्रेय प्राप्त किया है।

प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा-साहित्य दो सर्वथा अलग-अलग धाराओं में बँट गया था जिनका प्रतिनिधित्व क्रमश: यशपाल और अज्ञेय की रचनाएँ करती हैं। यशपाल की रचनाओं में सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन मिलता है तो अज्ञेय की रचनाओं में एक गूढ़ सांकेतिकता है, साथ ही भाषा का वह गुम्फन है जिससे भाषा की सामथ्र्य का विस्तार होता है। उपन्यास के क्षेत्र में ‘मनुष्य के रूप’ और ‘नदी के द्वीप’ इन दो सीमाओं का संकेत देते हैं तो कहानी के क्षेत्र में ‘प्रतिष्ठा का बोझ’ एक दिशा है और ‘साँप’ दूसरी।

आज की कहानी कल की कहानी से बदल गयी है, इसमें सन्देह नहीं। यह परिवर्तन कहानी लिखने के ढंग में उतना नहीं है, जितना कहानी की वस्तु में और कहानी के दृष्टि-बिन्दु में।

पिछले दस वर्ष में कहानी-लेखकों की जो नई पीढ़ी आगे आयी है, उसमें जीवन के प्रति ईमानदारी का अधिक प्रबल आग्रह है। इस पीढ़ी के लेखकों ने प्रेमचन्द के सूत्र को पकडक़र उनके मार्ग पर बढऩे का प्रयत्न भी किया है और कई नई पगडंडियाँ भी खोज निकाली हैं।
हम चन्द्रकिरण सौनरिक्सा, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, राजेन्द्र यादव, मोहन चोपड़ा, कमल जोशी, कमलेश्वर, मार्कण्डेय और अमरकान्त आदि का उल्लेख कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई नाम लिये जा सकते हैं, परन्तु नाम-परिगणना हमारा उद्देश्य नहीं है। कहानी लेखकों की यह पीढ़ी कहानी के लिए निरन्तर नए-नए धरातल खोज रही है और इस नाते निरन्तर प्रयोगशील भी है,

डॉ. सुनील कुमार परीट

नाम :- डॉ. सुनील कुमार परीट विद्यासागर जन्मकाल :- ०१-०१-१९७९ जन्मस्थान :- कर्नाटक के बेलगाम जिले के चन्दूर गाँव में। माता :- श्रीमती शकुंतला पिता :- स्व. सोल्जर लक्ष्मण परीट मातृभाषा :- कन्नड शिक्षा :- एम.ए., एम.फिल., बी.एड., पी.एच.डी. हिन्दी में। सेवा :- हिन्दी अध्यापक के रुप में कार्यरत। अनुभव :- दस साल से वरिष्ठ हिन्दी अध्यपक के रुप में अध्यापन का अनुभव लेखन विधा :- कविता, लेख, गजल, लघुकथा, गीत और समीक्षा अनुवाद :- हिन्दी-कन्नड-मराठी में परस्पर अनुवाद अनुवाद कार्य :- डाँ.ए, कीर्तिवर्धन, डाँ. हरिसिह पाल, डाँ. सुषमा सिंह, डाँ. उपाध्याय डाँ. भरत प्रसाद, की कविताओं को कन्नड में अनुवाद। अनुवाद :- १. परिचय पत्र (डा. कीर्तिवर्धन) की कविता संग्रह का कन्नड में अनुवाद। शोध कार्य :- १.अमरकान्त जी के उपन्यासों का मूल्यांकन (M.Phil.) २. अन्तिम दशक की हिन्दी कविता में नैतिक मूल्य (Ph.D.) इंटरनेट पर :- www.swargvibha.in पत्रिका प्रतिनिधि :-१. वाइस आफ हेल्थ, नई दिल्ली २. शिक्षा व धर्म-संस्कृति, नरवाना, हरियाणा ३. यूनाइटेड महाराष्ट्र, मुंबई ४. हलंन्त, देहरागून, उ.प्र. ५. हरित वसुंधरा, पटना, म.प्र.

One thought on “आधुनिक कथा साहित्य की बदलती प्रवृत्तियाँ

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा जानकारीपूर्ण लेख

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