कविता

नवगीत

रोजी रोटी की खातिर, फिर
चलने का दस्तूर निभायें
क्या छोड़ें, क्या लेकर जायें
नयी दिशा में कदम बढ़ायें।

चिलक चिलक करता है मन
बंजारों का नहीं संगमन
दो पल शीतल छाँव मिली, तो
तेज धूप का हुआ आगमन

चिंता ज्वाला घेर रही है
किस कंबल से इसे बुझायें।

हेलमेल की बहती धारा
बना न, कोई सेतु पुराना
नये नये टीले पर पंछी
नित करते हैं आना जाना

बंजारे कदमों से कह दो
बस्ती में अब दिल न लगायें।

क्या खोया है, क्या पाया है
समीकरण में उलझे रहते
जीवन बीजगणित का परचा
नितदिन प्रश्न बदलते रहते

अवरोधों के सारे कोष्टक
नियत समय पर खुलते जायें।

शशि पुरवार

2 thoughts on “नवगीत

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा गीत !

  • रमेश कुमार सिंह

    सुन्दर ।

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