भाषा-साहित्य

सुभद्राकुमारी चौहान और राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद और देशप्रेम सुभद्राकुमारी चौहाब जी के रग रग में भरा हुआ था। इसलिए उनकी कविताओं में राष्ट्रप्रेम और वीर रस भरपूर मात्रा में देखने को मिलता है। राष्ट्रीय कविताओं की दृष्टि से उनकी ’जालियाँवाला बाग में बसंत’, ’राखी’, ’विजय दशमी’, ’लक्ष्मीबाई की समाधि पर’, और ’वीरों का कैसा हो बसंत’ आदि कविताओं में सुभद्रा जी का राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद झलक उठता है।  राष्ट्रीय कविता  की कतार में उअनकी ’झाँसी की रानी” अत्यंत लोकप्रिय है और उसी एक कविता से ही सुभद्रा जी संपूर्ण देश भर में छा गयी थी।  सुभद्राकुमारी चौहान  का जन्म इलाहाबाद में हुआ था। 15 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह खंडवा के वकील लक्ष्मण सिंह चौहान से हो गया था। पति पत्नी दोनो ही राष्ट्रीय विचारधारा के होने के कारण महात्मा गांधीजी से  प्रभावित होकर, अपना घरबार त्यागकर स्वतंत्रता के आंदोलन मे कुद पड़े। इसी लिये इन्हे कइ बार जेल भी जाना पड़ा। दोनों पति-पत्नी मन-प्राण से कांग्रेस का काम करने लगे। सुभद्रा महिलाओं के बीच जाकर स्वाधीनता संग्राम का संदेश पहुँचाने लगीं। वे उन्हें स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने, पर्दा छोड़ने, छुआछूत और ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठने की सलाह देती थी। स्त्रियाँ सुभद्रा की बातें बड़े ध्यान से सुनती थीं। १९२०-२१ में मध्यवर्ग की बहुओं में प्रगतिशील मूल्यों का संचार करने में सुभद्रा ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई।

सुभद्राजी की कविताओं में देश प्रेम की भावना और मातृत्व ही मुल आधार है। उनकी कविता “झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई” के “खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी…” सुनकर आज भी हम देश भक्ति की  भावना से हर्षित हो उठते हैं। सुभद्राकुमारी की कविता ‘झाँसी की रानी’ महाजीवन की महागाथा है। कुछ पंक्तियों की इस कविता में उन्होंने एक विराट जीवन का महाकाव्य ही लिख दिया है। इस कविता में लोकजीवन से प्रेरणा लेकर लोक आस्थाओं से उधार लेकर जो एक मिथकीय संसार उन्होंने खड़ा किया है उससे ‘झाँसी की रानी’ के साथ सुभद्रा जी भी एक किंवदंती बन गई हैं। भारतीय इतिहास में यह शौर्यगीत सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया है-

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी भाषा सरल तथा शुद्ध खड़ी बोली है। देश के लिए कर्तव्य और समाज की ज़िम्मेदारी सँभालते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि चढ़ा दी-

न होने दूँगी अत्याचार, चलो मैं हो जाऊँ बलिदान।

‘जलियांवाला बाग’ (१९१७) के नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। उन्होंने तीन आग्नेय कविताएँ लिखीं। ‘जलियाँवाले बाग़ में वसंत’ में उन्होंने लिखा-

परिमलहीन पराग दाग़-सा बना पड़ा है

हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना

यह है शौक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर

कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।

१९२२ का जबलपुर का झंडा सत्याग्रह देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा जी की पहली महिली सत्याग्रही थीं। रोज़-रोज़ सभाएँ होती थीं और जिनमें सुभद्रा भी बोलती थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट में उनका उल्लेख ‘लोकल सरोजिनी’ कहकर किया था।

प्रसिद्ध हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा जी के राष्ट्रीय काव्य को हिंदी में बेजोड़ माना है- ‘कुछ विशेष अर्थों में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य हिंदी में बेजोड़ है….।’

राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और अनवरत जेल यात्रा के बावजूद उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- ‘बिखरे मोती (१९३२), उन्मादिनी (१९३४), सीधे-सादे चित्र (१९४७)।

वह ‘स्वतंत्रता’ नहीं, ‘स्वराज्य’ चाहती है। परतंत्रता नहीं, स्वानुशासन चाहती है। रूढ़ियों-बंधनों से मुक्त होकर वह स्वनियंत्रण में रहना चाहती है। सुभद्रा जी की सभी कहानियों को हम एक तरह से सत्याग्रही कहानियाँ कह सकते हैं। उनकी स्त्रियाँ सत्याग्रही स्त्रियाँ हैं। दलित चेतना और स्त्रीवादी विमर्श को उठाने वाली सुभद्राकुमारी चौहान हिंदी की पहली कहानीकार हैं-

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी।

पंद्रह अगस्त १९४७ को जब देश आज़ाद हुआ तो सबने खुशियाँ मनाईं। सुभद्रा जी ने भेड़ाघाट जाकर वहाँ के खान मज़दूरों को कपड़े और मिठाई बाँटी। उस दिन वे अपना सिरदर्द भूल गई थीं, थकावट भूल गई थीं, आराम करना भूल गई थीं।

गांधी जी की हत्या से सुभद्रा जी को ऐसा लगा कि जैसे वे सचमुच अनाथ हो गई हों। बगैर कुछ खाए-पिए चार मील पैदल ग्वारीघाट तक गईं। जैसे कोई उनके घर का चला गया हो। सुभद्रा जी ने कहा, ”मैंने तो सोचा था कि मैं कुछ दिन गांधी जी के आश्रम में बिताऊँगी लेकिन परमात्मा को वह भी मंज़ूर नहीं था!”

सुभद्रा जी की ’खिलौनेवाला’ कविता में उनकी देशभक्ति उमढ पडी है-

   मैं तो तलवार खरीदूँगा माँ

   या मैं लूँगा तीर-कमान

   जंगल में जा, किसी ताड़का

   को मारुँगा राम समान।

सुभद्रा जी की काव्य साधना के पीछे उत्कट देश प्रेम, अपूर्व साहस तथा आत्मोत्सर्ग की प्रबल कामना है। इनकी कविता में सच्ची वीरांगना का ओज और शौर्य प्रकट हुआ है। हिंदी काव्य जगत में ये अकेली ऐसी कवयित्री हैं जिन्होंने अपने कंठ की पुकार से लाखों भारतीय युवक-युवतियों को युग-युग की अकर्मण्य उपासी को त्याग, स्वतंत्रता संग्राम में अपने को समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया। वर्षों तक सुभद्रा जी की ‘झांसी वाली रानी थी’ और ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ शीर्षक कविताएँ लाखों तरुण-तरुणियों के हृदय में आग फूँकती रहेंगी। झाँसी की रानी की समाधि पर’ में सुभद्रा जी का वीर रस उमढ पडता है-

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |

जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||

यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |

अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

कार दुर्घटना में सुभद्रा कुमारी चौहान जी का देहांत १५ फरवरी १९४८ को ४४ वर्ष की आयु में ही हो गया। एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत हो गया। परंतु हिन्दी साहित्य ही अपितु सारा देश सुभद्रा जी कभी नहीं भूल सकता। उनका देशप्रेम और राष्ट्रवाद हम सब के लिए ऊर्जा बन गयी है। ऐसे महान व्यक्तित्व को हमारा शत शत प्रणाम।

संदर्भ:-

.१. झाँसी की रानी -सुभद्राकुमारी चौहान

२. उन्मादिनी -सुभद्राकुमारी चौहान

३. त्रिधारा -सुभद्राकुमारी चौहान

४. हमारे प्रतिनिधि कवि और लेखक -डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी

५. अंतर्जाल

 

डॉ. सुनील कुमार परीट

नाम :- डॉ. सुनील कुमार परीट विद्यासागर जन्मकाल :- ०१-०१-१९७९ जन्मस्थान :- कर्नाटक के बेलगाम जिले के चन्दूर गाँव में। माता :- श्रीमती शकुंतला पिता :- स्व. सोल्जर लक्ष्मण परीट मातृभाषा :- कन्नड शिक्षा :- एम.ए., एम.फिल., बी.एड., पी.एच.डी. हिन्दी में। सेवा :- हिन्दी अध्यापक के रुप में कार्यरत। अनुभव :- दस साल से वरिष्ठ हिन्दी अध्यपक के रुप में अध्यापन का अनुभव लेखन विधा :- कविता, लेख, गजल, लघुकथा, गीत और समीक्षा अनुवाद :- हिन्दी-कन्नड-मराठी में परस्पर अनुवाद अनुवाद कार्य :- डाँ.ए, कीर्तिवर्धन, डाँ. हरिसिह पाल, डाँ. सुषमा सिंह, डाँ. उपाध्याय डाँ. भरत प्रसाद, की कविताओं को कन्नड में अनुवाद। अनुवाद :- १. परिचय पत्र (डा. कीर्तिवर्धन) की कविता संग्रह का कन्नड में अनुवाद। शोध कार्य :- १.अमरकान्त जी के उपन्यासों का मूल्यांकन (M.Phil.) २. अन्तिम दशक की हिन्दी कविता में नैतिक मूल्य (Ph.D.) इंटरनेट पर :- www.swargvibha.in पत्रिका प्रतिनिधि :-१. वाइस आफ हेल्थ, नई दिल्ली २. शिक्षा व धर्म-संस्कृति, नरवाना, हरियाणा ३. यूनाइटेड महाराष्ट्र, मुंबई ४. हलंन्त, देहरागून, उ.प्र. ५. हरित वसुंधरा, पटना, म.प्र.