कविता

पश्चिमी सभ्यता हमें लील जायेगी

दिख रहा है गजब का खुमार
युवाओं पर चढ़ा प्यार का बुखार
मातृ-पितृ दिवस को कौन पूछता है
वेलेंटाइन डे के आगे सब फीका है ।

प्रपोज, रोज, टैडी और किस डे
युवा मना रहें हग और चौकलेट डे
इतना उत्साह से कहाँ मनता फादर्स डे
बे रौनक ही रहता है मदर्स डे ।

पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़
युवा छलांग लगा रहे चारो ओर
माँ-पिता का तो टूट रहा अरमान
सुबह पुत्र भी कहाँ करता उन्हें प्रणाम ।

वो दिन और थे, वो दौर और थे
साँझ-सवेरे पुत्र करता था प्रणाम
माँ-पिता को देता था सम्मान
हालात ऐसी देख आज, अचरज में भगवान ।

माँ-पिता के चरण में तो जन्नत है बसती
आशीर्वाद से लोग बनते हैं नामचीन हस्ती
हावी हो रही इस धरा पर पश्चिमी संस्कृति
कौन करता है अब माँ-पिता की स्तुति ।

युवाओं के चेहरे पर बढ़ी है चमक
विदेशी धुन पर, पाँव रहा है थिरक
ये पश्चिमी सभ्यता हमें लील जाएगी
देखिएगा
लोगों के चेहरे पर एक दिन आँसू लाएगी ।।

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.