संस्मरण

मेरी कहानी – 3

देहरादून की पहली याद तो लिख चुका  हूँ लेकिन अपने गाँव राणी पुर का छोटा सा इतिहास भी लिखना चाहूंगा। जितने भी गाँव शहर या देश होते हैं उन को नाम देने का कोई कारण होता है  जो अक्सर सभी भूल जाते हैं और या हमें पता ही नहीं होता।  दिल्ली हमारे देश की राजधानी है लेकिन कितने लोग जानते हैं कि दिल्ली के सिवा  कितने नाम पहले हुए हैं। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ राणी पुर  के नाम से सम्बंधित दांत कथा जो मेरी माँ  ने ही सुनाई थी.  हमारे घर के सामने के आँगन में कुछ औरतें चरखा कात  रहीं थी और मैं वहीँ बैठा उनकी बातें सुन रहा था , अक्सर कुछ औरतें हंस कर कह देती थीं- ‘क्यों बे ! तू बैठा औरतों में क्या कर रहा है.’ लेकिन मैं हीं हीं करके बैठा ही रहता क्योंकि मुझे माँ की हर बात दिलचस्प लगती थी।  एक दिन एक एक स्त्री कहने लगी ” हमारे गाँव का नाम कितना बुरा है, भला किस ने रखा होगा इस का नाम ?”

हमारे गाँव को पहले रण थुआ बोलते थे जो सुनने में अच्छा नहीं लगता था। जब की मैं बात कर रहा हूँ उस वक्त रण थुआ ही बोलते थे। यह मेरे देखने की बात ही है कि धीरे धीरे लोग राणी पुर  बोलने लग गए और आज रण थुआ सब भूल गए हैं। मेरी माँ बोली, जानती हो हमारे गाँव का नाम राणी पुर  क्यों पड़ा ? जब  सब ने ‘ना’ बोला तो माँ बोली, ” हमारे गाँव में एक राजा के महल थे और उस का राज बहुत दूर दूर तक था।  एक दफा राजे ने किसी और राजे के ऊपर हमला करना था जिस का उस से बहुत देर से झगड़ा चल  रहा था। जब राजा अपनी फ़ौज ले कर जाने लगा तो वोह अपनी रानिओं से बोला, लड़ाई के बाद अगर हम जीत गए तो हम नगाड़ा इस तर्ज पर बजाएंगे, अगर हम हार गए तो  दुसरी तर्ज़ पर वजाएंगे। ”

राजा जीत गिया और उन्होंने ख़ुशी में नगाड़ा बजा दिया लेकिन गलती से उन्होंने गलत तर्ज़ पर नगाड़ा बजा दिया। रानिओं ने समझा  कि उन की फौजें हार गई हैं। रानिओं ने महलों को आग लगा दी और सभी ने आग में कूद कर जान दे दी। जब राजा वापिस आया तो सब देख सुन कर बहुत रोया और हमेशा के लिए यह जगह छोड़ गया। चरखा कात रही सभी औरतें इस कहानी को सुन कर प्रभावित हुईं और इस पर बातें करने लगीं। मैं पास बैठा मन ही मन में वो आग का सीन सोच रहा था। इस के बाद और और बातें शुरू हो गईं लेकिन मेरे दिमाग में जैसे एक पक्की मोहर लग गई जिस को आज तक नहीं भूला। यह कहानी कहाँ तक सच्ची है मैं नहीं जानता लेकिन जब दूर से देखा जाए तो राणी पुर गाँव का मिड्ल ऊंचा दिखाई देता है जिस से जाहिर होता है कि यह जगह खण्डरात रही होगी क्योंकि पहले गाँव का नाम राणी थुआ ही होता था। थुआ या थेय  का अर्थ पंजाबी में खण्डरात होता है।

यह तो बात हो गई राणी पुर की, अब मैं देहरादून से वापिस आने के बाद की यादें लिखुँगा. कुछ अरसे बाद मेरे पिता जी फिर अफ्रीका चले गए। कुछ बड़ा हुआ तो बहुत दोस्त बन गए थे।  सारा दिन खेलने में गुज़ार देते। हमारे घर की एक तरफ था बुआ परतापो का घर, सामने होता था मलावा राम का घर, जिस का बेटा था मदन लाल जिस को हम मद्दी बोलते थे। बुआ एक बाल विधवा औरत थी जो अब साठ पैंसठ की होगी और अकेली रहती थी। बुआ के एक रिश्तेदार का बेटा था तरसेम। मद्दी, मैं और तरसेम बुआ के घर खेलते रहते। बुआ बहुत अच्छी थी, सबी उस को बुआ ही कहते थे। कुछ और लड़के भी दोस्त बन गए थे। हम बुआ के घर बचपन की खेलें खेलते, बुआ बहुत खुश होती और हमें कुछ न कुछ खाने को दे देती।

मेरे पिता जी उस वक्त जवान ही होंगे क्योंकि वोह अक्सर फ़िल्मी गाने गाते रहते थे, एक था ‘तू कौन सी बदली में मेरे चाँद है जा’, एक था ‘रिम झिम बरसे बादल व , मस्त हवाएं आईं , पिया घर आजा आजा  पिया घर आ जा’ , एक था ‘गम किये मुस्तकिल कितना नाज़ुक है दिल यह  न जाना।’  यह गाने मैंने सीखे हुए थे और बुआ मुझे कहती , गेली! कोई गाना गा। मैं ख़ुशी से गाना शुरू कर देता। सभी दोस्त कभी कभी जलसा भी किया करते जिस में हम झूठ मूठ का माइक्रोफोन बना लेते जिस में एक डंडे के साथ ऊपर कोई छोटा सा ग्लास रख देते और मैं बोलने लगता, और सबी लड़के सरोते बन जाते। कभी कभी एक धार्मिक गाना भी मैं गा देता जो मैंने पिता जी से सीखा था, कुछ कुछ अभी तक याद है जो पंजाबी में था, कुछ इस तरह था , ‘फूलां ते सौने वाले रोड़ां पे सौं गए प्रीतम।’  यह गाना बुआ बहुत पसंद करती थी और हमें मूंगफली या रेडिआं देती।

सब से ज़्यादा मज़ा हमें गर्मिओं के दिनों में आता था  क्योंकि सभी लोग अपने अपने घर की छतों पर ही सोते थे, बिजली है नहीं थी , इस लिए लोग अँधेरा होने से पहले  ही रोटी खा कर छतों पर पड़ी चारपाईओं पर सो जाते और एक दूसरे के साथ बातें करते। चांदनी रातों में अपना ही एक मज़ा होता था।  एक घर था बाबू राम मास्टर का घर, जिसको पैदल जाने के लिए बहुत दूर से जाना पड़ता था लेकिन उस की छत बुआ की छत के साथ लगती थी।  इस लिए बाबू राम से कहानीआं सुनना बहुत आसान था। हम कहते ,मास्टर जी! कोई कहानी सुनाओ।  मास्टर जी शुरू हो जाते और राजे रानिओं की कहानीआं शुरू कर देते जिनमें भूत चुड़ैलों का ज़िकर ज़्यादा होता था और इन को पसंद भी बहुत करते थे। मास्टर जी की कहानी हमेशा बहुत बड़ी होती थी लेकिन वोह आधी सुना कर ऐसी जगह छोड़ देते जब क्लाइमैक्स होने को होता था। हम ज़िद करते मास्टर जी , थोह्ड़ी और सुनाओ लेकिन वोह मानते नहीं थे और हम कहानी सोचते सोचते सो जाते।

जब कभी मास्टर जी ना होते तो बुआ कुछ छेड़ देती। अक्सर वोह कहती कि आधी रात को एक आग का गोला उन के घरों के नज़दीक हो कर जाता है , यह गोला बहुत दूर से आता है और कुछ ही मिंटो में यहां आ कर पता नहीं कहाँ चला जाता है। बुआ कहती कि तुम ने देखना हो तो  रात को  जागते रहो लेकिन हमें नींद आ जाती थी। एक रात की बात है कि मेरी बहन और उस की कुछ सहेलिआं इकठिआं हो कर बाहिर गईं जिस को वोह जंगल पानी बोलती थीं। उन दिनों गाँवों में टॉयलेट नहीं होती थी और लड़किआं इकठी हो कर जाती थीं। अभी आधा ही घंटा हुआ होगा कि वोह सभी दौड़ती हुई वापिस आ गईं। बुआ भी घबरा गई और मेरी माँ भी बाहिर आ गई , किया हुआ किया हुआ की आवाज़ें आने लगीं। बहन बोलने लगी कि जब वोह  गुरदुआरे के नज़दीक पौहंची तो उन्होंने दूर एक टिमटिमाता हुआ दिया सा देखा।  उन्होंने सोचा की शायद कोई अपने खेतों में लालटेन लिए हुए घूम रहा होगा लेकिन बातें करते करते  ही वोह एक बड़ा सा आग का गोला बन कर नज़दीक आने लगा और वोह भाग कर दौड़ आईं। उन्होंने पीछे मुड़  कर देखा तो वोह गोला वहीँ से हो कर गुज़रा वहां वोह खड़ी थीं।

इस घटना को मैं ने कालिज के ज़माने में फिज़िक्स के प्रोफेसर अजीत सिंह को सुनाई तो वोह बोला ” तुम्हारे गाँव में कबरें भी हैं ” जब मैंने बताया कि उस ज़माने में  हमारे गाँव में बहुत मुसलमान थे और उन का अपना कबरस्तान होता था। तो अजीत सिंह बोला कि अक्सर गर्मिओं के दिनों में मुर्दों की हडिओं में  से फास्फोरस निकल जाती है जिस को हवा में आते ही आग लग जाती है और जब तक वोह पूरी खत्म नहीं हो जाती वोह उड़ती रहती है और कुछ देर बाद  खत्म हो जाती है…।”

चलता…..

6 thoughts on “मेरी कहानी – 3

  • स्वर्णा साहा

    आपकी आत्मकथा की बहुत ही रोचक प्रस्तुति. कभी-कभी कल्पना करती हूँ कि आज के बालकों को यदि पुरानी और नयी परिस्थितियों के गुण-दोष का पूर्णतः ज्ञान रहे और उन्हें दोनों परिवेशों में चयन करना हो तो वे किसे तरजीह देंगे.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहन जी , मैंने कभी सोचा नहीं था कि कभी यह लिख पाऊंगा लेकिन मन में एक ऐसी चुभन सी रहती थी कि आज की युवा पीड़ी को हो किया गिया है. हम ने जितना कुछ देखा है , पैरों में जूते भी नहीं होते थे , कपडे जो पहनते थे शाएद आज के युवा हंस दें लेकिन हम ने उस सादा जिनगी में सुख ही पाया है. मैं चाहता हूँ कि छोटी से छोटी घटना को दिल खोल कर लिखूं , यह पिछले साठ पैंसठ साल का इतहास है . आज बलात्कार की घटनाएं ऐसी लगती हैं जैसे अगर कोई अखबार किसी ऐसी खबर को ना छापेगा तो उस का अखबार नहीं विकेगा . मैं ने गाँवों में इतना दिसिप्लन देखा है कि लड़के किसी लड़की को हैलो भी नहीं कह सकते थे , अगर कोई लड़का ऐसा करने की हिमत करता तो ऐसी सजा होती थी कि सारी उम्र के लिए खानदान पर कलंक लग जाता था.

  • विजय कुमार सिंघल

    आपकी कहानी पढ़कर अच्छा लगा. श्मशान में बत्ती जलने कि बात हमने भी अपने गाँव में सुनी थी और देखी थी. तब जानकारों ने बताया था कि हड्डियों का फास्फोरस हवा से मिलकर चमकता है. भूत प्रेतों पर मुझे कभी विश्वास नहीं रहा. केवल भय का भूत होता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , आप का धन्यवाद . दरअसल ऐसी बातें गाँवों में बहुत होती थी, मैं आगे चल कर लिखूंगा अगर भाग्य ने साथ दिया तो. मैं बहुत सैन्स्तिव होता था और धीरे धीरे इन बातों पर अपने तजुर्बे करता लेकिन किसी को बताता नहीं था . इन बातों का मुझे फैदा भी बहुत हुआ . मेरा कोई बच्चा इन बातों को मानता नहीं है, आज भी यहाँ अखबारों में बाबा संतों के बड़े बड़े इश्तिहार होते हैं लेकिन किसी जोतिषी को कभी हाथ नहीं दिखाया , न किसी बाबा को एक पैसा भी दिया . लेकिन कोशिश की कि सही लोगों को जितना भी हो सके मदद करें . हा हा , सकूल के दिनों में हम दोस्त जो सड़कों पर मजमा लाने वाले लोग होते थे उन को डिस्टर्ब करते थे .

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी आत्मा कथा की तीनो कड़ियाँ आज पढ़ी। आपने सभी घटनाओं को सुरुचिपूर्ण ढंग से लिखा है. पढ़कर तृप्ति हुई। धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , आप का बहुत बहुत धन्यवाद , कोशिश कर रहा हूँ कि हर बात को पूरी डीटेल से लिख सकूँ . मनमोहन जी , यह सभी बातें अब हो नहीं रहीं , इस लिए यह भी एक इतहास ही कह सकते हैं . वरतमान युवा पीड़ी इन बातों को जानती नहीं , इस लिए उन को बताना अपना सुभाग समझता हूँ.

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