उपन्यास अंश

यशोदानंदन-१३

कंस एक क्रूर अधिनायक था। पर साथ ही चतुर और धूर्त राजनीतिज्ञ भी था। मथुरा का वह राजा बन ही गया था। वहां की प्रजा, ऐसा प्रतीत होता था कि एक सांस लेने के बाद दूसरी सांस लेने के लिए कंस की आज्ञा की प्रतीक्षा करती थी। परन्तु उसने अन्य गणराज्यों की शासन-व्यवस्था में सीधे हस्तक्षेप करने से स्वयं को रोक रखा था। जिन गणराज्यों ने उसे अपना महाराज मान लिया था और दूना कर देना स्वीकार कर लिया था, उन्हें वह अनावश्यक कष्ट नहीं देता था। महाराज उग्रसेन और वसुदेव जी को बंदी बनाने के पश्चात्‌ उसने घोषणा की थी कि जो गणराज्य उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, उन्हे वह अपने राज्य में मिला लेगा और राजा को अपना शेष जीवन बंदीगृह में बिताना होगा। कुछ गणराज्यों ने इसका विरोध किया । उनके प्रमुखों  की कंस ने वही दशा की जो महाराज उग्रसेन और वसुदेव जी की की थी। नन्द बाबा ने उसकी शर्तें मान लीं और इस तरह गोकुल की स्वायत्तता अक्षुण्य बनी रही। लेकिन कंस गोकुल समेत अन्य गणराज्यों पर पैनी दृष्टि रखता था। अपने विश्वस्त गुप्तचरों का एक बड़ा जाल उसने इन क्षेत्रों में बिछा रखा था। एक सूई के गिरने की भी सूचना उसे प्राप्त होती रहती थी। फिर गोकुल में कृष्ण के जन्मोत्सव से वह कैसे अनभिज्ञ रहता? इधर नन्द बाबा भी राजनीति में अच्छी तरह पारंगत थे। वे कंस को नाराजगी का एक भी अवसर नहीं देते थे। कंस उन्हें अपना विश्वस्त और निष्ठावान सामन्त मानता था। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के बाद कंस को वार्षिक कर चुकाने के लिए पूरे लाव-लश्कर के साथ नन्द बाबा ने मथुरा के लिए प्रस्थान किया। नन्द बाबा कंस के एकमात्र ऐसे सामन्त थे जो निर्धारित तिथि के पूर्व ही वार्षिक कर चुका देते थे। कंस उनकी इस वृत्ति का प्रशंसक था। नन्द बाबा का मथुरा के राज प्रासाद में सदा की भांति स्वागत हुआ। उनके ठहरने, मनोरंजन और घूमने-फिरने की राजकीय व्यवस्था की गई। नन्द बाबा ने कंस का आतिथ्य मात्र दो दिन तक स्वीकार किया। उनका मन तो शिशु कृष्ण में ही रमा रहता था। श्रीकृष्ण से दो दिनों का वियोग उन्हें दो कल्पों के समान प्रतीत हो रहा था। कंस से अनुमति ले उन्होंने गोकुल के लिए प्रस्थान किया। कुछ समय उन्होंने वसुदेव जी के आवास पर व्यतीत किया। दोनों मित्र अत्यन्त उत्साह से मिले। दोनों प्रेम से विह्वल हो रहे थे। व्यक्तिगत कुशल-क्षेम के आदान-प्रदान के बाद वसुदेव जी ने गोकुल का समाचार बताने के निवेद्न के साथ कहना प्रारंभ किया —

“मेरे भ्राता! तुम्हारे घर सुंदर और समस्त शुभ लक्षणों से युक्त पुत्र उत्पन्न हुआ है। इसके लिए तुम मेरी और देवकी की ओर से ढेरों बधाइयां स्वीकार करो। बन्धुवर! तुम्हारी अवस्था ढल चली थी। अबतक तुम्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई थी। यहां तक कि तुमने सन्तान प्राप्ति की आशा भी छोड़ दी थी। ऐसे में यह परम सौभाग्य की बात हुई कि तुम्हे सन्तान-प्राप्ति हुई, वह भी पुत्र और समस्त शुभ लक्षणों से युक्त। हे मित्र! तुम्हें तो ज्ञात ही है कि मुझे कंस ने बंदी बना लिया था। मैंने तो मुक्त होने की आशा ही छोड़ दी थी। मुझे ऐसा लगने लगा था कि बंदीगृह की काल कोठरी में ही मैं जीवन का अन्तिम श्वास लूंगा, लेकिन नियति ने पता नहीं, कंस को कैसे सद्बुद्धि दी कि हम रिहा कर दिए गए। मेरे लिए यह नये जन्म से तनिक भी कम नहीं है। मुझे तनिक भी आशा नहीं थी कि इस जीवन में मैं अपने सुहृदों के दर्शन कर पाऊंगा, परन्तु ईश्वर परम दयालू है। उसी की कृपा से  मैं आज तुमको देख पा रहा हूँ। अपने प्रेमियों से मिलना भी एक दुर्लभ अवसर होता है।

यद्यपि हमारे कुटुंब तथा कुटुंबी, पुत्र तथा पुत्रियां हैं, किन्तु प्रकृति के नियम स्वरूप हम प्रायः एक-दूसरे से पृथक ही रहते हैं। प्रत्येक जीवात्मा विभिन्न समान कर्मों के फलस्वरूप इस पृथ्वी पर जन्म लेती है। एक स्थान पर कुटुंबियों के रूप में एकत्र भी होते हैं, किन्तु दीर्घ काल तक साथ-साथ रहना संभव कहां हो पाता है? इस संसार का चक्र ही ऐसा है कि सबको समय के प्रवाह के साथ अलग होना ही पड़ता है। सागर की लहरों पर अनेक पौधे तथा लतायें तैरती रहती हैं। कभी पास-पास रहते हैं, तो कभी सदा के लिए बिछुड़ जाते हैं। इसी प्रकार जब हम साथ रहते हैं, तो हमारी पारिवारिक संगति अत्यन्त सुन्दर लगती है, किन्तु काल की तरंगों के फलस्वरूप कुछ समय बाद ही हम विलग हो जाते हैं। अस्तु, छोड़ो, इस दर्शन को। इसपर चर्चा करेंगे तो कई दिन और कई रातें बीत जायेंगी। फिर भी चर्चा अपूर्ण ही रहेगी। अब तुम मुझे वृन्दावन का कुशल-क्षेम बताओ। आजतक तुम जिस मधुवन में अपने भाई-बंधु और स्वजनों के साथ रहते हो, उसमें जल, घास और लता आदि तो भरे-पूरे हैं न? वह वन पशुओं के लिए अनुकूल और सब प्रकार करों से मुक्त है न? हे भ्राता! मेरा पुत्र अपनी माँ रोहिणी के साथ तुम्हारे ही संरक्षण में रहता है। उसका लालन-पालन तुम और यशोदा ही करते हो। वह तो तुम्हें और यशोदा को ही अपना माता-पिता मानता होगा। तुम उसके धर्म पिता हो। वह अच्छी तरह है न? तुम्हारा अपना पुत्र, क्या नाम रखा है उसका – श्रीकृष्ण। वह कुशल से तो है न? तुम स्वयं शास्त्रों के ज्ञाता हो और एक दिव्य पुरुष हो। फिर भी मैं तुम्हें उपदेश देने की धृष्टता कर रहा हूँ। मुझे क्षमा करना।

मनुष्य के लिए वे ही धर्म, अर्थ और काम शास्त्रविहित हैं जिससे उसके स्वजनों को सुख मिले। जिनसे केवल स्वयं को सुख मिलता है और स्वजनों को दुःख मिलता है, वे, धर्म अर्थ और काम सुखकारी नहीं हैं।”

नन्द बाबा की आँखों ने वसुदेव जी की आँखों में शोक का एक महासागर लहराते हुए देखा। जीवन-दर्शन की बातें करनेवाले वसुदेव जी अपने मुख पर उभर आईं वेदना की अनन्त रेखाओं को उभरने से रोक नहीं पाए। बात करते-करते उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। उत्तरीय के कोने से नेत्रों से कपोल पर लुढ़क आए अश्रुकणों को उन्होंने पोंछा। नन्द बाबा ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा –

“मेरे परम मित्र! तुम अपने पुत्र बलराम और रोहिणी के लिए तनिक भी चिन्ता मत करो। दोनों गोकुल में पूरी तरह सुरक्षित और आनंद से हैं। वृंदावन आजकल अपूर्व छटा बिखेर रहा है। यशोदा को पुत्र प्राप्त होने के पश्चात्‌ वृंदावन जैसे नंदन कानन में परिवर्तित हो गया हो। सभी गोकुलवासी सकुशल हैं। मुझे तो बस तुम्हारी कुशलता की चिन्ता लगी रहती है। मुझे क्या, सारे संसार को पता है कि देवकी से उत्पन्न सारे पुत्रों का कंस ने अत्यन्त क्रूरता से वध कर दिया। आप ही नहीं, हम भी इस जघन्य कृत्य के कारण शोक संतप्त हैं। आपकी अन्तिम संतान यद्यपि कन्या थी, कंस ने उसे भी मारने का प्रयत्न किया। हे मित्र! अब अत्यधिक शोक मत करो। हम सभी अपने विगत अदृश्य कर्मों द्वारा नियंत्रित हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्व कर्मों के वश में है। जो व्यक्ति कर्म तथा फल के दर्शन से परिचित है, वह ज्ञानी पुरुष है। ऐसा मनुष्य दुःख से शोकाकुल नहीं होता और सुख की प्राप्ति से विचलित भी नहीं होता। तुम तो परम ज्ञानी पुरुष हो। तुम्हें क्या समझाना। नियति का खेल समझ दुःख और सुख, दोनों को स्वीकार करो। धैर्य और संयम के साथ देवी देवकी को संरक्षण प्रदान करो। वे तो टूट गई होंगी। उन्हें अब तुम्हारा ही सहारा है।”

वसुदेव जी पर नन्द बाबा की बातों का त्वरित गति से प्रभाव पड़ा। उन्होंने स्वयं को संभाला और नन्द जी से बोले –

“प्रिय नन्द जी! लंबे समय तक तुम्हारा गोकुल से बाहर रहना श्रेयस्कर नहीं है। यदि तुमने राजकीय कर का भुगतान कर दिया हो, तो शीघ्र अपने स्थान को लौट जाओ।”

नन्द बाबा ने वार्त्ता के क्रम को आगे नहीं बढ़ाया। वसुदेव जी के संकेत को उन्होंने लक्ष्य किया और शीघ्र ही अपने ग्वालवृंद के साथ गोकुल लौट आए।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.