कहानी

एक शाम

आरती के विषय में सुनकर वह एकदम अवाक रह गया। अभी तीन साल ही हुए थे उसकी शादी को। उसकी ऑंखों के सामने वे सारे द्दश्‍य चलचित्र की भॉति उभरने लगे जो उसने उसके साथ बिताए या नजदीक से देखे थे। गोया कल की ही बात हो। सोचा कि चलकर सहानुभूति के दो-चार शब्‍द कह दे। हालॉकि खबर उसे पूरे दो हफ्ते बाद मिल रही थी। क्‍या सोचेगी कि सारे शहर को पता चल गया और एक वही है जिसे नहीं मालूम।

कॉलेज के स्‍वछन्‍द दिनों में उसने आरती को कुवारी के रुप में देखा था। उसके हाथों में मेंहदी लगी नहीं देखी थी। उसी दिन वह बाहर जो चला गया था। अब सीधे उसे विधवा के लिबास में देखेगा। विधि की विडम्‍बना पर वह मन ही मन एक वक्र हॅसी हॅस पड़ा।

काफी देर तक सोच-विचार करता रहा। क्‍या जाना उचित होगा? उसे देखकर वह यह तो नहीं सोचेगी कि पुरानी कहानी ताजी करने चला आया। शाम को वह रवाना हुआ।

गेट खोलकर अन्‍दर दाखिल हुआ1 अहाते में कोई कुत्‍ता वगैरह नहीं था जोकि भौंक कर अजनबियों के अतिक्रमण का अहसास घरवालों को कराता। वैसे वह जानता था कि आरती का पति बड़ा आदमी था। कुत्‍ता-वुत्‍ता जरुर होगा। शायद इस समय इधर-उधर हो। नौकर ने उसे बैठाया। घर में अभी अभी भी कतिपय रिश्‍तेदार विद्यमान थे। आरती के मॉ-बाप भी आए ही थे। ऐसे वक्‍त बेटी को अकेला कैसे छोड़ दे।

कुछ समय बाद वह आयी। सफेद लिबास में लिपटी। उसे ऐसा लगा कि उसको देखकर वह हैरान हुई। वह उठकर खड़ा हो गया। ”सुनकर बेहद दुख हुआ,” बिना किसी भूमिका के वह सीधा बोला,”खबर पाते ही चला आ रहा हू।” यह जोड़ना भी उसने आवश्‍यक समझा। आरती की मुद्रा भावहीन रही। सम्‍भवत: वह पहले ही अपने जी को काफी हल्‍का कर चुकी थी।

”अपने को सॅभालो आरती,” वह तुम पर उतर आया। इसका बोध उसे तीर निकल जाने पर हुआ। कॉलेज के दिनों का खुमार असर कर गया।

”बैठो।” वह संयत स्‍वर में बोली। दोनों सोफे पर बैठ गए। आमने-सामने। आरती की नजरें फर्श पर झुकी थी। वह ध्‍यान से देख रहा था। लगभग वही चेहरा,देह-यष्टि में भी कोई महत्‍वपूर्ण परिवर्तन नहीं। बस थोड़ा सा वजन बढ़ा था। लेकिन उसे भारी शरीर का न कहकर भरे हुए शरीर का कहा जाए तो शायद यह सत्‍य के अधिक निकट होता। सामने दीवार पर उसके पति की तस्‍वीर टॅगी थी। साथ में फूलों की माला भी पड़ी थी। दो-चार अगरबत्तियॉ सुलग रही थीं।

”और सब कैसा है?” वह जानबूझ कर विषय-परिवर्तन की गरज से बोला। बेकार में मातमपुर्सी का राग अलाप कर उसके मन के कोमल तारों को इस समय छेड़ना नहीं चाहता था।

”तुम अपनी सुनाओ।” उसके चेहरे पर एक फीकी मुस्‍कान थी। वह चुप रह गया।

एक जमाना था जब वे एक दूसरे के निकट थे। उसके संगी-साथियों की राय थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा होते ही आरती से शादी कर लेगा। उसने तो इस दिशा में कदम भी बढ़ाया था। लेकिन पिताजी…। उन्‍हे तो बस स्‍टेटस चाहिए था। भले ही अन्‍दर से कुछ न हो पर अपनी चमक-दमक को बरकरार रखना चाहते थे। भला वे एक क्‍लर्क की पुत्री को कैसे स्‍वीकार कर सकते थे। उसक समय वह भी पिता का विरोध नहीं कर पाया। शायद इसका पछतावा उसके मन को अभी भी साल रहा था।

आरती क्‍लास की सबसे हॅसमुख स्‍टूडेंट मानी जाती थी। जोक्‍स का जैसे उसके पास भण्‍डार था। उसे लगा कि वह अनायास पिघलता जा रहा है।

इधर-उधर की बातें होने लगीं। ढ़ेर सारी।

चाय आ गयी। किसी ने उसे हाथ नहीं लगाया। बातों में ही न चाहते हुए भी पुराने दिनों की बातें निकल आयी। उसने कुछ निश्‍चय कर लिया। अब वह पिताजी के रुढि़वादी ख्‍यालात का शिकार नहीं बनेगा। रिश्‍तेदारों और पड़ोसियों की परवाह नहीं करेगा। फिर अब वह आत्‍मनिर्भर है। आरती का भी अपना बॅगला,बैंक-बैलेन्‍स वगैरह है। दोनों मिलकर आराम से जिन्‍दगी की गाड़ी खींच सकते हैं। उसने एक बार जी खोलकर ड्राइंग-रुम की विशालता और उसकी भव्‍य सजावट का विहंगम अवलोकन किया। ठीक है कि अभी के माहौल में चीजें कुछ बिखरी-बिखरी हैं,लेकिन हमेशा तो ऐसा नहीं होता होगा।

आरती पूछ रही थी,”तुमने शादी कर ली?” वह नींद से जागा।

”नहीं।” कहते वक्‍त एक संतोष का भाव उसके चेहरे पर आया।

”क्‍यों?” उसके मुख पर उत्‍सुकता थी।

”बस।” वह इतना ही कह पाया। ऐसे वातावरण में क्‍या कहे। लेकिन एक महीने या दो-तीन महीनों बाद वह सब कुछ कहेगा। हॉ! अब वह अपनी जिन्‍दगी को और ज्‍यादा बरबाद होते नहीं देख सकता है। बहुत सहन किया है रीति-रिवाजों और बुजुर्गो के प्रति सम्‍मान के नाम पर।

आरती से वह सुरेन्‍द्र की तस्‍वीर ड्राइंग-रुम से हटाकर कहीं और लगाने को कहेगा। आखिर वह तस्‍वीर को फेंकने को नहीं कह रहा है। बस ड्राइंग-रुम या बेडरुम में नहीं।

”वे क्‍या गए मेरी तो दुनिया ही उजड़ गयी।” पहली बार आरती के मुंह से उसने भावनाऍ प्रकट होती देखी। उसे अच्‍छा लगा।

”फिक्र न करो। मैं हूँ ना।” उसकी इच्‍छा हुई कि अपने हाथों में उसका हाथ ले ले।

”इनका सारा इनवेस्‍टवेट डूब गया। क्‍या सोचा था,क्‍या हो गया। गल्‍फ में हमारी सारी फॉरच्‍यून खत्‍म हो गयी। अभी सब चुप हैं। लेकिन कब तक रहेगें। थोड़े समय बाद तकाजा करेगें ही,” उसने ऑचल को उंगलियों में फॅसाते हुए कहा,”पैसा कोई थोड़े न छोड़ेगा।”

”कितना बाकी है?” उसने सहमते हुए पूछा।

”यही कोई बीस लाख। मुझे तो लगता है कि यह बॅगला भी गिरवी रखना पड़ेगा।”

”ममी!” लगभग दो साल की एक बच्‍ची ढुलमुल चलती कमरे में आयी। आरती ने उसे अपनी गोद में छुपा लिया। उसने देखा कि वह बेहद भावुक हो चली थी। अब तक शायद दूसरे के सामने अपनी भावनाऍ छिपाने की कोशिश कर रही थी।

उसकी तरफ मुड़कर बोली,”अब इनकी यही एक निशानी बची है।” वह इधर-उधर देखने लगा।

उसे याद आया। बचपन में उसके गलियों में गुल्‍ली-डंडा या कंचे खेलने पर पिताजी कैसे डॉटा करते थे। वह रुठ जाता तो बाजार से चॉकलेट भी ले आते। अपनी जिन्‍दगी की गाढ़ी कमाई से उसे पढ़ाया है उन्‍होंने। मॉ को बस उसी की चिन्‍ता रहती है। एक अच्‍छी लड़की ढूढ़ने के लिए उन्‍होंने क्‍या नहीं किया। उसे ठेस पहुचाने का उसे कोई हक नहीं है।

वह अचानक उठ खड़ा हुआ। आरती की ऑंखें प्रश्‍नसूचक स्‍वरुप लेकर उठीं, ”मैं फिर आ जाऊगॉ। अभी किसी काम से जाना है।” कहकर वह चल पड़ा।

शाम गहरी होकर रात का रुप लेने वाली थी।

मनीष कुमार सिंह

मनीष कुमार सिंह

जन्मइ 16 अगस्तm,1968 को पटना के निकट खगौल (बिहार) में हुआ। प्राइमरी के बाद की शिक्षा इलाहाबाद में। भारत सरकार, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी 1987 में ‘नैतिकता का पुजारी’ लिखी। विभिन्नथ पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्या,साक्षात्काौर,पाखी,दैनिक भास्कओर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्द्योग, ‍इत्यांदि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’(2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013) और ‘आत्मविश्वास’ (2014) प्रकाशित। पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्तवर प्रदेश। पिन-201010 मोबाइल: 09868140022 ईमेल: manishkumarsingh513@gmail.com

One thought on “एक शाम

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी. धन के सामने सभी भावनाएं दम तोड़ देती हैं और अपने लिए अच्छा सा बहाना भी खोज लेती हैं. यही स्पष्ट करती है, यह कहानी.

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