गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : बादल…

चाँद को शायद चुप करने की ठानी है।
इसीलिये ये बादल पानी पानी है।

फ़र्क़ नहीं खेतों की गेंहू बिछ जाये,
बारिश की ये जिद, कैसी मनमानी है।

टपक रहीं बूंदें, सोने को जगह नहीं,
कब इसने मजबूर की मुश्किल जानी है।

जब जरुरत हो तब न आये बुलाने से,
ख़ाक कहाँ सूखे की इसने छानी है।

बूंदें बेशक मोती हैं पर क्या करना,
ग्राम देवता के घर, जो वीरानी है।

जब अम्बर से बर्फ के टुकड़े बरसेंगे,
फसलें तो हर हाल में, फिर मुरझानी है।

“देव” न भाये बारिश ये बेमौसम की,
बतला बादल कैसी ये नादानी है। ”

………चेतन रामकिशन “देव”

2 thoughts on “ग़ज़ल : बादल…

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर सामायिक रचना. असामयिक वर्षा से किसानों को जो हानि हुई है, उसको खूबसूरती से व्यक्त करती है यह ग़ज़ल !

  • अच्छी ग़ज़ल .

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