धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जीव व ईश्वर का स्वरुप और दोनों के परस्पर सम्बन्ध

आत्मा को जीव वा जीवात्मा कहते हैं जो कि सत्य, चित्त, एकदेशी, अल्पज्ञ, अनादि व नित्य स्वरूप वाला है। ईश्वर एक सत्य, चित्त, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा व नित्य सत्ता को कहते हैं। ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म है तथा जीवात्मा अतिसूक्ष्म पदार्थ है। जीवात्मा को कभी किसी ने नहीं बनाया। इसका अस्तित्व स्वयंभू अर्थात् स्वमेव है।

जीवात्मा व ईश्वर का परस्पर क्या सम्बन्ध है, इस पर प्रकाश डालते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा है कि जीव और परमेश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। इस विवरण को जानकर किसी को भी यह शंका होना स्वाभाविक है कि जिस स्थान पर एक वस्तु होती है, उसी स्थान में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती। अतः जहां जीवात्मा है वहां परमेश्वर और जहां परमेश्वर है वहां जीवात्मा की सत्ता कैसे हो सकती है? इस शंका का समाधान यह है कि एक साथ दो पदार्थों का न होने का नियम समान आकार वाले पदार्थों में घट सकता है। असमान आकार वाले पदार्थों में इस स्थिति से भिन्न स्थिति का होना सम्भव है अर्थात् भिन्न आकार वाले पदार्थों में यह नियम लागू नहीं भी होता। महर्षि दयानन्द ने इसका उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे लोहा स्थूल और अग्नि सूक्ष्म होता है, इसलिए लोहे में विद्युत् रूपी अग्नि व्यापक होकर एक ही स्थान में देानों रहते हैं, वैसे ही जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है। व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध की भांति ईश्वर और जीव का सेव्य-सेवक, आधार-आधेय, स्वामी-भृत्य, राजा-प्रजा और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध भी है। आईये, दोनों सत्ताओं की समानताओं व भिन्नताओं पर विचार करते हैं। जीव और ईश्वर दोनों चेतन पदार्थ हैं। दोनों का स्वभाव पवित्र है, दोनों ही अविनाशी हैं तथा धार्मिकता आदि गुणों से युक्त हैं। इसके अतिरिक्त जीव व ईश्वर में अनेक भेद भी हैं। ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को करता है, सबको नियम में रखता है तथा जीवों को पाप-पुण्य के फल देता है। यह वह ऐसे अनेक धर्मयुक्त कर्म परमेश्वर के द्वारा किए जाते हैं।  जीव के कामों में सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन-पोषण तथा ज्ञान-विज्ञान सहित तकनीकी का अनुसंधान व विकास कर उसका उपयोग अपनी आवश्यकता की नाना प्रकार की वस्तुए घड़ी, रेलगाड़ी, कार, कम्प्यूटर, विद्युत से कार्य करने वाले बल्ब व निवास भवन आदि सामग्री बनाना है। जीवात्मा अच्छे काम भी करता है और बुरे काम भी जो उसे नहीं करने चाहिये। जीवों के द्वारा किए जाने वाले बुरे कार्य अज्ञान व स्वार्थ से प्रेरित होकर किये जाते हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द और अनन्त बल आदि गुण हैं जबकि जीव के इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख, ज्ञान और प्रयत्न आदि गुण हैं। जीव अल्प परिमाणी है तथा अल्पज्ञ है और ब्रह्म अर्थात् ईश्वर सर्वव्यापक तथा सर्वज्ञ है। ईश्वर नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध और नित्यमुक्त स्वभाव वाला है जबकि जीव कभी बद्ध होता है और कभी मुक्त होता है। ईश्वर के सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने के कारण उसे कभी भ्रम अथवा अज्ञान वा अविद्या नहीं हो सकती परन्तु जीव को अल्प परिमाण, एकदेशी व अल्पज्ञ होने के कारण कभी विद्या और कभी अविद्या होती रहती है। ईश्वर जन्म-मरण के दुःख को प्राप्त नहीं होता परन्तु जीव होता है। यह भेद ईश्वर व जीवात्मा कें हैं।

हम आशा करते हैं कि ईश्वर व जीव के स्वरुप व परस्पर सम्बन्ध को जानकर पाठकों को कुछ  लाभ हो सकता है।  सभी मतों व धर्मो के लोगों को ईश्वर व जीव के स्वरूप व सम्बन्धों को जानकर ज्ञानपूर्वक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करने में तत्पर होना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “जीव व ईश्वर का स्वरुप और दोनों के परस्पर सम्बन्ध

  • मनमोहन जी , अच्छा लेख है . अगर सच्चे दिल से हर इंसान भगवान् के बारे में सोचने लगे तो यह संसार बहुत अच्छा हो सकता है . इस संसार रचना को हम सोचना शुरू कर दें तो सोचते ही जायेंगे .`पिछले साल मैं अपने गार्डन में बैठा था . एक नया प्लांट लगाया था , तो वोह जब फूल लगे तो सूखना शुरू हो गिया . उस की शाखें काली होनी शुरू हो गईं थी . मैंने किऊरिऔस्ती के लिए एक शाख को धियान से देखना शुरू किया यह जान्ने के लिए यह काली कियों हो गई थी . यों ही मैंने हाथ लगाया तो उस में हरकत होनी शुरू हो गई . धियान से देखा तो लाखों की तादाद में ब्लैक फ्लाई हिलने लगी . मैं भीतर से मैग्निफाइंग ग्लास ले आया . उन को देखने लगा तो जाना कि एक एक कीड़ा मूव कर रहा है , उन की टांगें थी जिस से वोह मूव हो रहे थे . पहले तो सोचने लगा कि इतने कीड़े कहाँ से आ गए ? फिर सोचने लगा कि इन में दिमाग भी होगा , इन का कोई लीवर हार्ट किडनी और नाड़ों में बैहता हुआ खून भी होगा . आखिर में हार गिया कि मुझे कुछ नहीं पता .

    • Man Mohan Kumar Arya

      आपको बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. आपने फूल के पौधे की शाखाओं में जो विविधता, जटिलताएं वा समझ में न आने वाली बातों को देखा यही एक अज्ञेय सत्ता ईश्वर की सत्ता की ओर संकेत कर रहा है, ऐसा मुझे लगता है। ऋषियों द्वारा कहा गया है कि ईश्वर सर्वज्ञ है। उसके ज्ञान की यदि समुद्र के कुल जल से तुलना करें तो मनुष्य का ज्ञान समुद्र के कुल जल के एक बूँद या एक लोटे जल के बराबर ही है। इस कारण हम चाह कर भी बहुत सी चीजों को पूरी तरह से नहीं जान सकते। पूर्ण वा उच्च ज्ञान के लिए ईश्वर की सहायता, ध्यान व समाधी, की अपेक्षा जीवों को है। हार्दिक धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा विचारणीय लेख. तुलसीदास जी ने जीव को इश्वर का अंश बताया है. इसका क्या तात्पर्य है?

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद। ईश्वर व जीवात्मा दोनों ही चेतन तत्व हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है तथा जीवात्मा एकदेशी, अल्प व परिमित परिमाण वाला तथा अल्पज्ञ है। आद्य स्वामी शंकराचार्य जी ईश्वर के अस्तित्व को मानते थे परन्तु जीवात्माओं तथा जड़ प्रकृति के अस्तित्व को नहीं मानते थे। जीवात्माओं के अस्तित्व को न मानने के कारण उन्होंने जीवात्माओं को ईश्वर का अंश स्वीकार किया। यह मान्यता दोषपूर्ण है। इसका कारण यदि जीवात्मा को ईश्वर का अंश मानते हैं तो ईश्वर खण्डनीय होने से ईश्वर रहता ही नहीं है। वेदो के अनुसार ईश्वर सर्व्यापक, सर्वत्र एकरस व अखण्डनीय है। जीवात्मा का पृथक स्वतंत्र अस्तित्व है जो नित्य, पवित्र, अजन्मा, अनादि, अमर, अल्पज्ञ, एकदेशी, कर्मफल चक्र में बंधा वा फंसा हुआ है जो मुक्ति पर्यन्त चलता है। यदि जीवात्मा ईश्वर का अंश होता तो ईश्वर होने के कारण इसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, पूजा, वेदपाठ, धर्म – कर्म आदि करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि ईश्वर का अंश ईश्वर ही होगा।

Comments are closed.