संस्मरण

मेरी कहानी – 5

हमारे घर की बाईं तरफ परतापो बुआ का मकान था तो दाईं ओर ताऊ नन्द सिंह का मकान था , नन्द सिंह के मकान के बिलकुल सामने ताऊ रतन सिंह का मकान था । रतन सिंह के मकान की दुसरी तरफ से मुसलमानों का मुहल्ला शुरू हो जाता था। इन लोगों की अपनी एक मस्जिद होती थी और कुछ दूरी पर एक मज़ार थी जिस को पीर जिन्दे शाह की कबर बोलते थे। साथ ही बहुत बड़ा बोह्ड का दरख्त होता था। इस मुहल्ले में हमारा जाना आना नहीं था क्योंकि इस मुहल्ले में जाने के लिए हमें बहुत घूम कर जाना पड़ता था और तकरीबन पंद्रां मिनट लग जाते थे।

कुछ दिनों से गाँव की हवा अजीब सी हो गई थी। मोहल्ले में पहले वाली रौनक नहीं थी। लोग एक दूसरे से बहुत धीरे बात करते। घरों में भी दब्बी आवाज़ में बात करते। मेरी माँ को लड़के लड़किआं चाची कहा करते थे। कभी कोई आता और माँ को बताता ” चाची ! मुसलमानों ने मुहद्दी पुर को आग लगा दी है। मेरी माँ डर जाती , कभी कोई आ जाता और कहता , चाची ! पाकिस्तान बन गिया है। मुझे कुछ भी पता नहीं था कि क्या हो रहा है।

एक दिन मैं दोस्त के साथ खेल रहा था तो मैंने ऊंची आवाज़ में कहा ” पाकिस्तान  ज़िंदाबाद ” मेरी माँ जैसे उबल पड़ी और जोर से बोली , खबरदार ! अगर ऐसी बात मुंह से निकाली तो , बेडा गरक हो पाकिस्तान का , पाक (पीप ) पै जाए इस पाकिस्तान को। सभी लोग डरे हुए लगते थे।मुसलमान तो बहुत चुप थे , घरों में दरवाज़े बंद कर के बैठे रहते , ना कोल्हू  चलता , ना खादी का कपड़ा बुनने की आवाज़ आती। यह सब कुछ जब हम बड़े हो गए तो हम ने लोगों से पुछा था और उन्होंने सब कुछ बताया था।

एक दिन बड़े भाई और दादा जी कहीं बाहिर गए हुए थे , मैं मेरी बहन और माँ घर के भीतर थे। पिता जी अफ्रीका गए हुए थे। चुबारे में से मैं कुछ लेने के लिए सीड़ीआं चढ़ रहा था , तभी गोली चलने की आवाज़ आई। आवाज़ इतनी भयंकर थी कि मैं सीढ़ीओं से गिरते गिरते बचा। मैं वापिस उतरने लगा , तभी एक और गोली चली। माँ और हम रोने लगे। मैंने रोते रोते माँ से कहा , माँ हम दौड़ कर मासी के घर चले चलें ? माँ ! हम नानके चले चलें ?. फिर लगातार गोलिआं चलने लगीं। माँ एक ट्रंक में कपडे डालने लगी। यह गोलिआं पीर जिन्दे शाह की कबर की तरफ से आ रही थीं जो कि हमारे घर से पचास गज़ की दूरी पर ही था।

अब बहुत शोर मचने लगा था। हम ने एक आवाज़ सुनी , एक आदमी गली में ऊंची ऊंची बोल रहा था ” भाइओ ! रहमत अली ५०० पठानो को ले कर गाँव पे चढ़ाई करने के लिए आ रहा है , जो कुछ भी तुम्हारे पास है , किरपान लाठीआं या किसी के पास कोई बन्दूक है ले कर आ जाओ “. कुछ देर बाद मेरे दादा जी भी घर आ गए , उन्होंने सर पर बड़ा सा कपडा बाँधा और अलमारी से किरपान निकाल ली। मेरी माँ दादा जी को रोकने लगी लेकिन दादा जी किरपान ले कर बाहिर चले गए।

यहां मैं यह बता दूँ कि रहमत अली मुसलमानों में बहुत बड़ा बदमाश समझा जाता था। यह सभी बातें बाद में बड़ा हो कर मुझे पता चलीं। यह १९४७ अगस्त का समय था , पाकिस्तान बन गिया था और चारों तरह खून की होली खेली जा रही थी। गाँव के लोगों ने पीर जिन्दे शाह के सभी ओर से घेरा डाल दिया। रहमत अली ने शराब पी हुई थी और अंधाधुन्द गोलिआं चला रहा था। गाँव में एक ही राइफल थी। कर्म सिंह एक रिटायर्ड फौजी था। उस ने राइफल से निशाना लगाया , रहमत अली तो बच गिया लेकिन फत्ते घुमिआर को गोली लगी और वोह वहीँ ढेर हो गिया। फिर लोगों ने घेरा और नज़दीक कर दिया और एक और गोली चलाई जो रहमत अली को लगी और वोह भी ढेर हो गिया। लोगों ने और किसी को कुछ नहीं कहा , सिर्फ रहमत अली को घसीट कर बाहिर ले आये और ज़िन्दे रहमत अली को ही आग लगा दी।

बाद में शोर मच गिया कि पुलिस आ गई , इस लिए सब लोग भाग गए। जिन्दे शाह की मज़ार पे सब कुछ शांत हो गिया। पुलिस की तो अफवाह ही थी , दरअसल गाँव के लोग और किसी को नुक्सान पहुँचाना  नहीं चाहते थे। कुछ दिन ऐसे ही निकल गए फिर अचानक फिर शोर मच गिया कि मुसलमान कभी भी हमला कर सकते हैं। हमारी एक गाय भैंसों के लिए जगह होती थी जिस को हवेली बोलते थे। इस में बहुत जगह होती थी। मुहल्ले के बहुत से लोग , इस्त्रीआं बच्चे इस जगह पर इकठे हो जाते और सारी सारी रात जागते रहते।

लोगों ने अपना सामान ट्रंकों में बाँध रखा था। हम बड़ों की बातें सुनते सुनते सो जाते। उधर मुसलमान भी अपनी मस्जिद में इकठे हो जाते। जवान लड़के रात को दूर तक जाते और ख़बरें ले कर आते। बुआ परतापो बहुत शोर मचाती और कहती , ” कोई मेरा सामान उठा लो , ऐ लड़कों ! मेरे घर से कुछ और सामान ला दो “. लोग गुस्से में परतापो बुआ को आँखें दिखाते और कहते , बुआ ! यहां हर एक को अपनी जान की पड़ी हुई है और तू सामान के लिए रो रही है “. यह इकठ कई दिन तक चलता रहा। जब मैं बड़ा हुआ था तो मेरी माँ ने बहुत दफा मेरी मिमकरी की जैसे मैं उस दिन रोया था ,” माँ !हम दौड़ कर मासी के घर चले जाएं ? माँ हम नानके चले जाए ? कितने बुरे थे वोह दिन !

फिर एक दिन मैंने देखा , कि गाँव के सभी मुसलमान पाकिस्तान को जा रहे थे। एक बहुत बड़ा काफ्ला तैयार हो गया था। छकड़ों की एक लंबी कतार थी जिस पर घरों का सामान औरतें बच्चे बूढ़े बैठे थे। गाँव के लोग उन्हें कैम्प तक छोड़ने के लिए काफ्ले के साथ जा रहे थे , उन के हाथों में किरपान लाठीआं और छविआं बर्छे आदिक थे। गुलाम नबी आया और दादा जी के गले लग गिया , फिर उस की वाइफ भी आ गई और मेरे सर पर हाथ रखा, वोह रो रहे थे।

मेरे दादा जी कह रहे थे नबी ! घबरा ना , यह कुछ दिनों का फेर है , ठीक हो जाएगा। नबी बोल रहा था भाई ! मेरे खेतों का खियाल रखना , पानी देते रहना। उन्होंने बहुत बातें की जो मुझे पता नहीं। और फिर काफ्ला चल पड़ा। गाँव के सभी लोग साथ चल पड़े और देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गए। दूसरे दिन सभी लोग मुसलमान भाईओं को कैम्प तक छोड़ कर गाँव वापिस आ गए। दादा जी बहुत उदास थे , नबी और दादा जी साथ साथ बड़े हुए थे और इकठे ही खेती की थी , उन के मुंह से अचानक निकला ,” बस, नबी नबी ही था ”

बहुत वर्षों तक दादा जी जब भी नबी को याद करते , आखिर में यह ही कहते ,” बस, नबी नबी ही था ” अब एक और बुरा दृश्य देखने को मिला। जब लोग मुसलमान भाईओं को छोड़ कर आ गए तो दूसरे दिन ही लूट शुरू हो गई। मुसलमानों के घर अनाज और दुसरी वस्तुओं से भरे हुए थे। जैसे खेलने के दौरान खिलाड़ी एक दूसरे से आगे जाने की कोशिश करते हैं ऐसे ही लोग एक दूसरे से आगे हो कर घरों के सामान पर टूट पड़े। जो गेंहूँ थी वोह सारी मेरे ताऊ रतन सिंह के आँगन में फैंक रहे थे क्योंकि रतन सिंह का घर साथ ही था , इस लिए सामान फेंकने में बहुत आसानी थी और आँगन भी बहुत बड़ा था। मैं यह सब अपनी आँखों से देख रहा था लेकिन मुझे किया पता था कि किया हो रहा था।

फिर वहीँ ही खड़े खड़े फैसला किया गिया कि सारा सामान इकठा हो जाने के बाद आपिस में बांटेंगे। बस फिर किया था , घर के बर्तन कपडे संदूक पेटीअं यानी हर चीज़ फेंकी जा रही थी। बहुत से कागज़ात थे जिस में ज़मीन और मुकदमों के पेपर होंगे क्योंकि वोह अष्टाम पेपर थे जिन पर कपूरथले के महाराजा की फोटो थी , यह मुझे बाद में पता चला क्योंकि मैं भी बहुत से पेपर उठा लाया था उन पर पैंसल से लकीरें लिखने के लिए और वोह पेपर मैंने कहीं दोस्तों से छुपा कर रख दिए थे। बहुत वर्षों बाद कोई चीज़ ढूँढ़ते वक्त अचानक ही वोह देखे तो पता चला की वोह कोई मुक़दमे के पेपर थे और उन पर महाराजा कपूरथला जगतजीत सिंह की फोटो थी।

सारा आँगन भर गिया था . लूटते लूटते शाम हो गई , और मैंने सब कुछ देखा क्योंकि हमारा घर तो सामने ही था। फिर आपिस में लूटा सामान बांटते बांटते कभी झगड़ पड़ते। कब वोह सब चले गए मुझे पता नहीं क्योंकि मैं भी अपने घर चला गिया था। लोगों की नीयत शायद अभी भरी नहीं थी , दूसरे दिन उन्होंने कच्चे मकान ढाने शुरू कर दिए और उन के दरवाजे खिड़किआं उखाड़ उखाड़ कर ले जाने लगे। यह सब हो रहा था हमारी पशुओं वाली हवेली के सामने।

मेरा बड़ा भाई एक आटा पीसने वाली चक्की उठा लाया। जब दादा जी को पता चला तो वोह भाई को डांटने लगे कि ” जा यहां से उठा कर लाया है वहीँ रख के आ ” कोई इस्त्री बोली ,चाचा ! काहे लड़के को झिड़क रहा है , यह कौन सी बड़ी चीज़ है ” वोह चक्की अभी भी हमारे नए मकान की छत पर पड़ी है। जब भी कभी मैं राणी पर गिया , उस चक्की को देख कर बचपन की याद आ जाती। अब मुझे बहुत वर्ष हो गए हैं राणी पर गए , पता नहीं वोह अब है या नहीं लेकिन मुझे लगता नहीं कि वोह फैंक दी गई हो।

चलता। ………………….

2 thoughts on “मेरी कहानी – 5

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी जीवन यात्रा का आज का भाग आरम्भ से अंत तक पढ़ा। इतना कहना चाहूंगा का मनुष्यों को सत्य को ग्रहण न करने और असत्य को ना छोड़ने की बहुत बड़ी कीमत कालान्तर में चुकानी पड़ती है. ईश्वर करे कि हम इन घटनाओं से सबक सीखें और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो। आज की किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद . दरअसल वोह दिन शब्दों में नहीं लिखे जा सकते , उस वक्त इतना कुछ हुआ कि कलम लिख नहीं सकती . और इसी तरह बंगला देश बन्ने के समय भी हुआ . इसी तरह हिटलर ने जिऊज़ को ख़तम करने की कोशिश की . जब भारत में सम्पर्दाएक दंगे होते हैं तो बहुत दुःख होता है . हमें इतहास से सीखना चाहिए.

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