सामाजिक

वर्तमान समय में वानप्रस्थ आश्रम की प्रासंगिकता

मनुष्य का जन्म माता-पिता से होता है जो कि ईश्वर की व्यवस्था का पालन करते हुए किसी जीवात्मा को जन्म देने में साधनमात्र हैं। मनुष्य जन्म कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार पूर्व जन्म में किये गये शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगने व नये शुभाशुभ करने के लिए होता है। संसार का नियम है कि जो भी जीवात्मा मनुष्य या पशु-पक्षी आदि योनियों में उत्पन्न होता है उसमें शैशव, बालक वा किशोर, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्धावस्थायें एक के बाद दूसरी आती-जाती रहती हैं। मनुष्य की आयु को 100 वर्ष का मानकर उसे 25 वर्ष के चार समान भागों में बांटा गया है। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य, दूसरा गृहस्थ, तीसरा वानप्रस्थ एवं चैथा संन्यास है। इन चारों आश्रमों को तर्क संगत आधार पर निर्मित किया गया है। जन्म के बाद कुछ समय माता-पिता द्वारा पालन-पोषण में व्यतीत होता है। उसके बाद मनुष्यों की सन्तानों को आचार्यकुल में भेज कर उन्हें शिक्षा, विद्या व धर्म का ज्ञान कराया जाता है। 25 वर्ष तक की आयु में ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए अपना सभी विषयों का अध्ययन पूरा करने का प्रयास किया जाता है। उसके बाद विवाह व सन्तानोत्पत्ति के लिए गृहस्थ आश्रम का विधान किया गया है। 50 वर्ष की अवस्था होने पर वैदिक व्यवस्था में वानप्रस्थ आश्रम का विधान है तथा वानप्रस्थ के बाद सन्यास आश्रम का विधान भी मनुष्यों को पालन करना चाहिये जिससे इस आश्रम से होने वाले लाभ साधकों को प्राप्त हो सकें।

​वानप्रस्थ के विधान में कहा गया है कि वानप्रस्थी नगर या ग्राम के आहार और वस्त्रादि सब उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड़, पुत्रों के पास स्त्री को रख अथवा अपने साथ लेकर वन में निवास करे। सांगोपांग अग्निहोत्र को लेके नगर या ग्राम से निकल दृढ़ेन्द्रिय होकर जंगल में जाकर बसे।

​वानप्रस्थी जीवन में जिन कर्तव्यों का पालन करना है उसका विवरण आगामी पंक्तियों में वर्णनानुसार है। वानप्रस्थियों को नाना प्रकार के अन्न, सुन्दर, शाक, मूल, फल, कन्दादि मुनियों के खाने के योग्य अन्नों का उचित मात्रा में उपयोग करना चाहिये। उसे पंचमहायज्ञों को करते हुए इन्हीं पदार्थों से अतिथि सेवा और अपना भी निर्वाह करना चाहिये। नित्य आर्ष ग्रन्थों यथा वेदों, व्याकरण ग्रन्थों, उपनिषद व दर्शन, मनुस्मृति, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को जीत कर नियंत्रण में रखना चाहिये। मनुष्यों ही नहीं अपितु प्राणि मात्र के प्रति मित्रता का व्यवहार करना चाहिये। वह नित्य प्रति विद्या दान करे, सब पर दया करे और किसी से कुछ पदार्थ न ले। अपने शरीर के सुख के लिए विशेष प्रयत्न न करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे और भूमि पर सोवे। अपने आश्रित वा स्वकीय पदार्थों में उसे ममता नही करनी चाहिये। प्राचीन काल में कुछ वानप्रस्थी वृक्ष के मूल में निवास करते थे। यदि किसी को सम्भव व उपयुक्त हो, तो वह इसका पालन करे। वानप्रस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत करते हुए साधक वानप्रस्थी को अनेक प्रकार की तपश्चर्याओं सहित सत्संग, योगाभ्यास और सुचिन्तन से ज्ञान व पवित्रता को धारण व पालन करना चाहिये। यह कर्तव्य विधान वानप्रस्थ आश्रम वासियों के लिए निर्धारित हैं।

​वानप्रस्थ आश्रम क्यों किया या लिया जाता है? इसका उत्तर यह है कि हमने 25 वर्ष ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्यार्जन किया। उसके बाद 25 वर्ष व कुछ अधिक गृहस्थ आश्रम में रहकर धनोपार्जन कर घर बनाया, सन्तान उत्पन्न कर उनको शिक्षित किया वा उनके विवाह आदि कराये, उनकी सन्तानों के जन्म में अपने अनुभवों से परिवार जनों को लाभान्वित किया व अपनी सन्तानों को उनके ज्ञान, योग्यता व क्षमता के अनुसार व्यवसाय में सहायता की। अब मनुष्य प्रायः गृहस्थ के दायित्वों से मुक्त प्रायः हो जाता है। पितृ ऋण भी सन्तान उत्पन्न कर व उन्हें शिक्षित करके, उनको व्यवसाय में स्थापित कर, उनके विवाह आदि कर व उनकी सन्तानों के जन्म आदि हो जाने पर गृहस्थी अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाते हैं। अब उन्हें धन कमाने की आवश्यकता नहीं है। अब एक ही कार्य बचता है कि अपना अनुभूत ज्ञान व तकनीकी ज्ञान समाज व देश को प्रदान कर उसे समुन्नत करना और अपना अधिकांश समय ऐसे कार्यों यथा सन्ध्या, उपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, विद्वान अतिथियों की संगति व उनका सत्कार जैसे कार्यों को करके मोक्षत्व की ओर बढ़ना अथवा अपना भावी जीवन सुधारना। यह मोक्षत्व एवं भावी जीवन के सुधार व तैयारी का कार्य एवं समाज को अपने ज्ञान व अनुभवों से लाभान्वित करने का कार्य ही वानप्रस्थी बन कर किया जाता है। अपने परिवारजनों के साथ रहकर यह कार्य विधि-विधान अनुसार सम्पन्न होने में कठिनाईयां आती हैं। वहां रोग व शोक के समाचार होते रहते हैं जो साधना में बाधक होते हैं। अतः आवश्यकता है कि अपने गृह व परिवारजनों से दूर रहकर साधना की जाये। अतः वानप्रस्थ आश्रम का तर्क संगत आधार है जो आज की परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है।

​वानप्रस्थ से जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि गृहस्थ जीवन का त्याग कर मनुष्य कहां जाये? वनों में तो आज अनुकूल परिस्थितियां हैं नहीं जहां जाकर व रहकर सुख व विधि-विधानानुसार वानप्रस्थ की साधना की जा सके। आजकल देश में अनेक स्थानों पर वृद्धाश्रम बने हुए हैं। परन्तु अनुमान है कि वहां भी व्यवस्थायें सराहनीय व आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। कई लोग तो घर छोड़कर आश्रमों में चले जाते हैं परन्तु उनके अनुभव अच्छे नहीं होते। ऐसी अवस्था में विकल्प यही बचता है कि यदि कहीं अच्छा सुव्यवस्थित आश्रम हो तो पति-पत्नी वहां जा कर रह सकते हैं अन्यथा अपने घर पर रहकर प्रायः एकान्त सेवन करते हुए साधनापूर्वक जीवन व्यतीत करें। हमारे आर्य समाज के अनेक विद्वान व नेता प्रायः सभी ऐसा कर रहे हैं। हां, सभी विद्वानों व नेताओं को इस पर मंथन करना चाहिये। आज की परिस्थितियों में यदि कोई मार्ग निकलता है तो उसका पालन करना चाहिये अन्यथा अपने घर पर रहकर ही वानप्रस्थ आश्रम की मर्यादा का पालन करना चाहिये। हां, प्रत्येक वानप्रस्थितियों को प्रति दिन की साधना व कर्तव्य-कर्मों की उनकी जो समय-सारिणी है, उसको दृष्टिगत रखते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये। हम आर्य समाज व सभी विद्वानों से इस विषय में मार्गदर्शन एवं सुझाव आमत्रित करते हैं। यदि कोई व्यक्ति परिवार के दायित्वों से मुक्त होकर भी धनोपार्जन आदि कार्यों में संलग्न है तो हमें लगता है कि यह वानप्रस्थ के कर्तव्यों व दायित्वों के विपरीत कार्य होने के कारण अनेक लाभों से वंचित हो सकता है।

6 thoughts on “वर्तमान समय में वानप्रस्थ आश्रम की प्रासंगिकता

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी लेख अच्छा लगा .लेकिन आज न तो जंगल रहे ना ऐसे हालात इस लिए आज इसी वातावरण में रह कर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है . विजय भाई ने ब्रिधाश्रम के बारे में कहा , इस से अच्छी बात किया हो सकती है . यहाँ भी ब्रिधाश्रम हैं लेकिन उस के खर्चे बहुत ज़िआदा हैं यहाँ तक कि घर बेचना पड़ जाता है , ५०० पाऊंड हफ्ते का खर्चा है . मेरा खियाल है कि भारत में ऐसी सोच विकसत होने की जरुरत है कि हर बजुर्ग अपनी सेविंग का कुछ हिस्सा आश्रम को दे ना कि उन बच्चों को जो बजुर्गों को इग्नोर करते हैं .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद महोदय। आज आत्मा व परमात्मा की साधना के लिए हालत अवश्य ही विपरीत हैं। घर पर रहकर वह साधना शायद नहीं हो सकती जो की आत्म कल्याण वा ईश्वर साक्षात्कार के लिए आवश्यक है। घर में संध्या, ध्यान, अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, आत्मज्ञानियों की संगति व उनसे निर्देश प्राप्ति आदि संभव नहो हो पाते। अतः मोक्ष का लक्ष्य घर पर रहकर प्राप्त होना असंभव प्रायः है। यहाँ भारत में जो वृद्धाश्रम हैं, उनमे दान का सदुपयोग भली भांति होता है, यह कहना कठिन है? वृद्धाश्रम मात्र से ही समस्या हल नहीं हो जाती। वहाँ का वातावरण अत्यंत पवित्र होना चाहिए। वहां आत्म ज्ञानी लोग भी रहते हों जो साधना में मार्गदर्शन करें। मेरा सौभाग्य है कि मैं हरद्वार में वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम में रहने वाले एक साधक को जानता हूँ जो साधना में काफी आगे हैं। यह मेरा निजी अनुमान है। आपका यह सुझाव सराहनीय है कि समर्थ व्यक्तियों को एक अच्छी धनराशि अच्छे आश्रमों को सहयोग हेतु देनी चाहिए। ऐसे आश्रमों में प्रधान, सचिव व कोषाध्यक्ष यदि ज्ञानी व वैरागी एवं अच्छे साधक हों तो अत्युत्तम हो।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सामयिक सार्थक आलेख

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद आदरणीय विभा बहिन जी।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा और सामयिकलेखहै। आजकलजंगलों में रहकर वानप्रस्थ आश्रम धर्म का पालन करना लगभग असम्भव है। इसलिये या तो अपने ही घर पर रहकर एकांत सेवन करें या किसी वृद्धाश्रम की शरण ले।
    वैसे आजकलअच्छेवृद्धाश्रम भी दुर्लभ हैं। मेरा विचार अवकाशप्राप्ति के बाद एक अच्छा वृद्धाश्रम खोलने का है। उसमें प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र भी चलेगा।

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी. आपकी प्रतिक्रिया से मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। आपका वृद्धाश्रम खोलने का विचार स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है। ईश्वर करे कि आप अपने स्वप्नों के अनुरूप वृद्धाश्रम खोलने वा उसे प्रशंसनीय रूप में चलाने में समर्थ हों। इसके लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ और मेरी हार्दिक शुभकामनायें हैं।

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