गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कातिलों को वफा में रक्खा है
क्यों दिये को हवा में रक्खा है

जिनके हाथों में प्यासा खंजर है
हमने उसको दुआ में रक्खा है

तेरे आमद से आंखें चमकी हैं
नाम तेरा जिया में रक्खा है

जिस घड़ी मुस्करा के देखा था
पल वही इब्तदा में रक्खा है

जिसके सौ जुर्म माफ हैं ‘रेणू’
उसने हमको सजा में रक्खा है

रिंकू रेणू वर्मा 

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !

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