आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 20)

एच.ए.एल. में मैंने लगभग साढ़े पाँच साल नौकरी की थी, परन्तु वहाँ से बाहर ट्रेनिंग पर जाने का अवसर केवल एक बार मिला था। वह एक सप्ताह की ट्रेनिंग थी यूनिक्स आॅपरेटिंग सिस्टम पर। इसमें हम कई आफीसर गये थे। उसी ट्रेनिंग में हमारी मुलाकात दास बाबू से हुई, जो तब तक एच.ए.एल. छोड़ चुके थे और किसी प्राइवेट कम्पनी की ओर से वह ट्रेनिंग लेने आये थे। इस ट्रेनिंग में हमने ज्यादा कुछ नहीं सीखा, क्योंकि वहाँ कोई प्रक्टीकल नहीं कराया गया था। केवल कागजी पढ़ाई से यह विषय समझ में आना कठिन होता है।

जब से एच.ए.एल. में कम्प्यूटरीकरण प्रारम्भ हुआ और जैसे-जैसे अधिक से अधिक कार्यों को कम्प्यूटरों पर लाया गया, वैसे-वैसे कम्प्यूटरों के ऊपर हमारी निर्भरता बढ़ती गयी। कई विभागों का तो यह विचार बन गया था कि अब तो सारा कार्य कम्प्यूटर और कम्प्यूटर विभाग वाले कर ही लेंगे, इसलिए उन्हें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। उच्च अधिकारियों की धारणा भी कम्प्यूटर के बारे में कुछ बेहतर नहीं थी। वे यह नहीं जानते थे और यदि जानते थे तो मानना नहीं चाहते थे कि कम्प्यूटर से कोई कार्य कराने के लिए अर्थात् कोई आउटपुट निकालने के लिए प्रोग्राम के साथ ही इनपुट की भी आवश्यकता होती है और यह कि इनपुट को भी कम्प्यूटर में प्रविष्ट करना पड़ता है, जिसमें पर्याप्त समय लग जाता है। प्रोग्राम लिखना तो हमारे विभाग की जिम्मेदारी थी और इनपुट को प्रविष्ट कराना भी, परन्तु इनपुट कागजों पर लिखकर अथवा अन्य प्रकार से भिजवाना तो सम्बंधित विभाग की जिम्मेदारी होती है। उच्च अधिकारी इसे ही नहीं मानते थे और कम्प्यूटर विभाग से ही यह अपेक्षा करते थे कि वह प्रोग्राम के साथ ही इनपुट भी स्वयं तैयार कर लेंगे और उनके पास आउटपुट समय से भेज देंगे। स्पष्ट रूप से ऐसा होना सम्भव नहीं है।

इसी बात पर विभिन्न विभागों और कम्प्यूटर विभाग में टकराव होता था। अन्य विभागों की यह प्रवृत्ति बन गयी थी कि अपनी अकर्मण्यता और लेटलतीफी का दोष कम्प्यूटर विभाग पर डाल देते थे। एच.ए.एल. के उच्च अधिकारी भी प्रायः उन्हीं का पक्ष लेते थे। इससे हमारे मुख्य प्रबंधक श्री तायल साहब परेशान होते थे।

एक बार उन्होंने हम सब कम्प्यूटर अधिकारियों की बैठक ली। उन्होंने हमसे कहा कि आप अपनी समस्याएँ हमें बताइए कि किस प्रकार विभाग का कार्य बेहतर ढंग से चल सकता है। हमने इसको अपनी बात कहने का अच्छा अवसर समझा। शुरुआत राव साहब ने की। उन्होंने कुछ उचित समस्याएँ बतायीं। श्री बाजपेयी मेरे पास बैठे हुए संक्षेप में लिखते जा रहे थे कि कौन क्या कह रहा है। राव साहब के बाद मैंने धाराप्रवाह अंग्रेजी में बोलना शुरू किया। मैंने एक-एक करके वे सारे अवसर गिनाये जब हमारे साथ अन्याय किया गया था। मैंने मुख्य रूप से यह शिकायत की कि एच.ए.एल. को हमारे कैरियर के विकास से कोई मतलब नहीं है, केवल अपना कार्य कराने से मतलब है। हमारे एप्लीकेशन अग्रसारित नहीं किये जाते, समय पर प्रोमोशन नहीं दिया जाता और हम एच.ए.एल. से एक पाई भी लिये बिना बाहर पढ़ने भी जाना चाहते हैं, तो हमारा उत्पीड़न किया जाता है। ऐसे में कौन अधिकारी यहाँ मन लगाकर कार्य कर सकता है। मेरे बोलने के बाद तो बैठक का माहौल ही बदल गया। सभी आफीसरों ने जमकर अपनी-अपनी भड़ास निकाली। तायल साहब एक शब्द भी बोले बिना चुपचाप बैठे-बैठे सुनते रहे। अन्त में सबने उनसे जोर देकर पूछा कि आप बताइए कि आपके मन में हमारे लिए क्या योजनाएँ हैं? इस पर तायल साहब बिना कुछ बोले उठकर चले गये।

लेकिन यह बैठक बेकार नहीं गयी। उसके बाद हमारा उत्पीड़न कम हो गया। हमारे विभाग की बातों पर ध्यान दिया जाने लगा और साल में 2 बार एप्लीकेशन अग्रसारित करने का नियम बन गया। इस नियम का सबने फायदा उठाया और एक-एक करके सारे नये अधिकारी एच.ए.एल. छोड़कर जाने लगे।

इसके कुछ समय बाद कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इंडिया ने जापान में ट्रेनिंग हेतु आवेदन पत्र माँगे। एच.ए.एल. के कई लोग इसमें आवेदन करना चाहते थे, इसलिए एच.ए.एल. ने यह निर्णय किया कि वे अपने अधिकारियों की एक परीक्षा करायेंगे और उसमें जो श्रेष्ठ रहेंगे, ऐसे दो अधिकारियों का आवेदनपत्र अग्रसारित किया जायेगा। यह परीक्षा देने कंप्यूटर विभाग के हम लगभग सभी अधिकारी कानपुर गये। इस परीक्षा का एक केन्द्र बंगलौर भी था। इस परीक्षा में केवल तीन अधिकारी उत्तीर्ण हुए- एक मैं, दूसरे श्री राजीव किशोर और तीसरा बंगलौर का एक अधिकारी।

यहाँ हमारे मैनेजर श्री आचार्य ने मेरे साथ बहुत क्षुद्रता की। हुआ यह कि एच.ए.एल. के प्रधान कार्यालय बंगलौर से उनके पास यह पत्र आया था कि आपके विभाग का अधिकारी विजय कुमार सिंघल इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ है, अतः उसे सूचना कर दें कि वह बंगलौर में इंटरव्यू देने हेतु जाने को तैयार रहे। आचार्य दादा ने मक्कारी यह की कि मुझे इस सफलता के लिए बधाई देना तो दूर की बात रही, उन्होंने मुझे सूचित किये बिना ही वह पत्र क्लर्क से कहकर फाइल में लगवा दिया। उस समय श्री राजीव किशोर दूसरे विभाग में थे। ऐसा ही एक पत्र उनके विभाग में भी आया था। लगभग 3-4 दिन बाद मुझे उनसे ही पता चला कि मैं इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया हूँ। उन्हें भी बहुत आश्चर्य हुआ कि मुझे अभी तक इसकी सूचना क्यों नहीं दी गयी है।

मुझे क्रोध आना स्वाभाविक था। मैं अपने विभाग में आकर आचार्य जी के पास गया और पूछा कि क्या ऐसी कोई सूचना आयी है, तो उन्होंने कहा- हाँ। तब मैंने पूछा कि मुझे क्यों नहीं बताया गया? इस पर वे अनाप-शनाप बोलने लगे और कहने लगे कि वह पत्र तुम्हारे लिए नहीं था। मेरी इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं था कि यदि आप मुझे सूचना नहीं देंगे, तो कौन देगा? उसी समय श्री एस.एस.पी. चिश्ती भी उनके पक्ष में मुझसे बहस करने लगे। वे बस एक बात टेप रिकार्डर की तरह दोहराते जा रहे थे- ‘वह पत्र आपके लिए नहीं था’, ‘वह पत्र आपके लिए नहीं था’। उनसे आगे बात करना बेकार समझकर मैं चला आया। लेकिन इस घटना के बाद मेरे मन में आचार्य जी के लिए जो बचा-खुचा सम्मान था, वह भी समाप्त हो गया। मैंने उनसे नमस्ते करना भी छोड़ दिया था। चिश्ती साहब की छवि भी मेरे मन में बहुत कुछ धूमिल हो गयी थी।

बाद में एच.ए.एल. ने तय किया कि बिना इंटरव्यू लिये ही तीनों अधिकारियों के आवेदन पत्र अग्रसारित कर दिये जायें। इस कार्य में भी लखनऊ डिवीजन के अधिकारी अनावश्यक विलम्ब कर रहे थे। कई बार हाॅट-लाइन पर बंगलौर बात करने के बाद उन्होंने आवेदन पत्र ठीक आखिरी दिन अग्रसारित किये। वे उनको रजिस्टर्ड डाक से भेज रहे थे, परन्तु समय बचाने के लिए हमने उसे अपने ही खर्च पर कोरियर से भेजा। लेकिन उस वर्ष हममें से किसी का भी चयन नहीं हुआ। श्री राजीव किशोर का भी नहीं, जबकि उससे पिछले वर्ष उनका चयन हो गया था।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 20)

  • Man Mohan Kumar Arya

    प्राइवेट सर्विसेस में यदि कोई अधिकारी अनुचित कार्य करे या विलम्ब करे तो दंडनीय होता है परन्तु सरकारी सेवा में ऐसी लोग फलते फूलते है। ऐसे लोगो को ईश्वर ही यथासमय सीधा करता है। आपका धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, मान्यवर आपने। वैसे मैं चाहता तो मामला ऊपर तक ले जाकर आचार्य जी को दंडित करा सकता था। परंतु मैंने इसको वहीं छोड देना ठीक समझा।

      • Man Mohan Kumar Arya

        आपका निर्णय विवेकपूर्ण एवं क्षमा व त्याग की भावना से पूर्ण होने के कारण सराहनीय है।

        • Vijay Kumar Singhal

          आभार, आदरणीय !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    एच ए एल के कडवे तजुर्बे .

    • विजय कुमार सिंघल

      हाँ, भाई साहब! ऐसे दो तीन अनुभव एक के बाद एक होने के कारण ही मैंने एच ए एल छोड़ा था।

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