इतिहास

‘परोपकारिणी सभा के उत्सव में पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा और पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के ऐतिहासिक व्याख्यान’

इस लेख में इतिहास के एक महत्वपूर्ण प्रसंग की चर्चा कर रहे हैं। 28 व 29 दिसम्बर सन् 1887 को परोपकारिणी सभा अजमेर का दो दिवसीय वार्षिकोत्सव था। इस अवसर पर वहां दयानन्द आश्रम का शिलान्यास भी किया जाना था जो कि सम्पन्न हुआ था। इस उत्सव में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी व सभी देशभक्त क्रान्तिकारियों के आद्य गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा, उदयपुर रिसासत के प्रमुख मंत्री महाकवि श्यामलदास, रक्तसाक्षी वीरवर पंत्र लेखराम, जीवनदानी शिक्षा शास्त्री महात्मा हंसराज, आजादी के आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ लाला लाजपतराय आदि पधारे हुए थे। हमारा अनुमान है कि स्वामी श्रद्धानन्द पूर्व नाम महात्मा मुंशीराम भी इस आयोजन में उपस्थित रहे होंगे। उत्सव यद्यपि पूरा ही महत्वपूर्ण था परन्तु यहां पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा और पं. गुरूदत्त विद्यार्थी जी के उपदेशों ने आर्य जनता को मन्त्रमुग्ध व इन विद्वानों का भक्त बना दिया था। सभी लोग इन विद्वानों के प्रवचनों से हृदय की गहराईयों से प्रभावित हुए थे।

​इस आयोजन में पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा जी ने “आर्यावर्त्त की निर्धनता” विषय पर अपना व्याख्यान दिया था। यह स्वाभाविक ही था उन्होंने इस भाषण में महर्षि दयानन्द जी का भावपूर्ण स्मरण किया होगा और देश की निर्धनता के लिए आलस्य व प्रमाद के साथ अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्यापूजा-उपासना, सामाजिक कुरीतियों, वेद विरूद्ध आचरण, ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय में प्रमाद आदि अनेकानेक कारणों को सम्मिलित किया होगा। यह दुःख का विषय है कि इस व्याख्यान को सुरक्षित नहीं रखा जा सका। काश, कि यह पूरा भाषण सुरक्षित किया जाता। उपलब्ध विवरण से यह ज्ञात होता है कि उनके भाषण का श्रोताओं पर गहरा प्रभाव हुआ था।

​29 दिसम्बर को दयानन्द आश्रम का शिलान्यास यज्ञ के अनन्तर सम्पन्न किया गया। दोनों कार्य सम्पन्न होने के अनन्तर पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्री ज्वालासहाय तथा पण्डित गौरीशंकर जी ने कुछ वेद मन्त्रों का सस्वर पाठ किया जिसे सुनकर वहां उपस्थित सभी लोगों ने स्वयं को धन्य अनुभव किया था। वेद मन्त्र के सस्वर पाठ की परम्परा मध्यकाल व उसके बाद अवरूद्ध प्रायः हो गई थी। आजकल भी यह सर्वत्र सुलभ नहीं है। वेद मन्त्रों का पाठ तो देवनागरी अक्षरों का जानकार कोई भी व्यक्ति कर सकता है परन्तु सस्वर पाठ तो लाखों में कुछ इने-गिने लोग ही जानते हैं। इसी प्रकार महावामदेवगान भी देश से सर्वत्र विलुप्त हो चुका है। कौन है जिसे इसकी कुछ भी चिन्ता है। चिन्ता तो तब हो जब किसी को इसका ध्यान हो। देश की केंद्र व राज्यों की सरकारें आवश्यक व अनावश्यक कार्यों पर करोड़ों-अरबों रूपये खर्च करती हैं परन्तु परमात्मा की वाणी वेद के सस्वर पाठ आदि विधा के संरक्षण की ओर किसी का समुचित ध्यान नहीं है। यदि हम ठीक हैं तो शायद आर्य समाज के नेताओं का भी इस ओर समुचित ध्यान नहीं है।

​उत्सव में रात्रि की सभा में पंडित गुरूदत्त जी का “सत्य” विषय पर व्याख्यान हुआ था। तत्कालीन पत्रों में पण्डित लेखराम द्वारा तैयार विवरण पढ़ने पर ज्ञात होता है कि विद्वान वक्ता ने जिस योग्यता व सुन्दरता से पवित्र वेद से सत्यवादी व असत्यवादी बनने तथा परमेश्वर से सम्बन्ध जोड़ने की विधि बताई उसे सुनकर अनेक हृदयों से सत्य का प्रकाश हुआ। वास्तव में वेद के एक मन्त्र ‘अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि’पर ही पूरा व्याख्यान था। संस्कृत व्याकरण द्वारा उसका पदच्छेद करके उसके प्रत्येक शब्द से दिलों पर न्यारा-न्यारा प्रभाव पैदा किया गया। यह समय वास्तव में ऐसे ही सत्य के योग्य था। सच्चिदानन्द परमात्मा के ज्ञान व सत्य की महिमा का उस समय सबके हृदयों में आलोक हुआ। पण्डित जी का 30 दिसम्बर को भी व्याख्यान हुआ। इस दिन आपको ज्वर था तथापि आपने ‘आर्यसमाज’ विषय पर प्रभावशाली भाषण दिया।

​लाला लाजपत राय पण्डित गुरूदत्त जी के सहपाठी व मित्र थे। दोनों ही आर्य समाज, लाहौर के सदस्य थे तथा महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। आपने पंडित गुरूदत्त जी के दोनों व्याख्यान सुने और इन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि ‘मैं इन दोनों भाषणों के समय वहां उपस्थित था और निश्चयपूर्वक कह सकता था कि उनमें से प्रथम एक अत्यन्त उच्चकोटि की विद्वत्ता का व्याख्यान था। इस भाषण के विषय में उनको विशेष लगाव था क्योंकि उनको सब प्रकार की कुचालों व कुटिल नीतियों से घोर घृणा थी तथा वे जीवन की शुद्धता पर बहुत बल देते थे। इस भाषण ने श्रोताओं के हृदयों को छू लिया तथा कई भाइयों को पतन के गहरे गत्र्त में गिरने से बचाया। दूसरे भाषण में पण्डित जी का जोर इसलिय कम हो गया था कि उस समय से पूर्व ही पण्डित जी को ज्वर हो गया। तथापि अस्वस्थ्ता उनके व्याख्यान में बाधक न बन सकी और उन्होंने निश्चित समय पर लगभग एक घण्टे तक व्याख्यान दिया।’’

​स्वामी श्रद्धानन्द जी के उर्दू साप्ताहिक पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’से ज्ञात होता है कि पण्डित गुरूदत्त जी ने पेशावर आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव में 24 अक्तूबर, 1889 को “वैदिक धर्म ही सद्धर्म है” विषय पर बहुत सुन्दर व्याख्यान दिया था। रूग्णता के कारण उनकी आवाज ऊंची न थी। पं. लेखराम जी पण्डित जी के इस व्याख्यान का वर्णन करते हुए लिखा है – ‘महर्षि दयानन्द का वेद भाष्य ही ठीक है। आर्यसमाज कोई नवीन धर्म नहीं, प्राचीन है। पण्डित जी ने 3.3. बजे से 6.00 बजे तक मैक्समूलर आदि पाश्चात्य प्राध्यापकों के अनुवादों का बहुत योग्यता से खण्डन किया और सि़द्ध कर दिया कि उनकी भूल का आधार बहुत कुछ सायण व महीधर हैं तथा कुछ स्थलों पर मैक्समूलर आदि विद्वान इन दोनों के भाष्य समझने में भी असमर्थ हैं। पण्डित जी ने प्रमाणों से सिद्ध किया कि आर्य धर्म प्राचीन है।‘ इस व्याख्यान में आर्यजगत की तत्लकालीन प्रमुख हस्तियां पं. आर्यमुनि जी, पं. लेखराम व भक्तराज अमीचन्द जी आदि भी विद्यमान थी। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने भी अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ में पण्डितजी विषयक अपने रोचक एवं प्रेरक प्रसंग वर्णित करते हुए लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी की मृत्यु पर जालन्धर में उनके द्वारा आयोजित एक सभा में पण्डित गुरूदत्त जी ने ऐसा प्रभावशाली भाषण दिया था कि जिसे सुनकर सभी श्रोता हतप्रभ रह गये थे। तब वहां उपस्थित 12 वकीलों में से कोई धन्यवाद के 4 शब्द कहने की स्थिति में नहीं था। एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा कि मैंने अनुभव किया कि पं. गुरूदत्त ही एक ऐसी आत्मा हैं जिसके साथ मेरे आत्मिक भाव ऐक्य को प्राप्त हो सकते हैं। एक भेंट में गुरूदत्त जी ने भी स्वामी श्रद्धानन्द जी को कहा था कि हम दोनो ंएक दूसरे को समझते हैं। स्वामीजी यह भी लिखते हैं कि पण्डित गुरुदत्त जी के थोड़े से सत्संग ने मेरी काया पलट दी। पण्डित जी की यह साक्षी मेरे लिए बहुत उत्तेजक हुई कि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों की प्रत्येक नई आवृत्ति करने पर नये भाव विदित होते हैं। अपनी डायरी में एक स्थान पर स्वामी श्रद्धानन्द लिखते हैं कि प्रिय गुरुदत्त से मिलकर मुझे नया धार्मिक बल मिलता है।

​हम आशा करते हैं कि पाठक लेख में वर्णित दुर्लभ व्याख्यानों को पढ़कर प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। हमने यह विवरण देश की जनता को परिचित कराने के लिए आर्य जगत के विख्यात विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की विद्यार्थी जी पर पुस्तक से तैयार किया है इसके लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। हम आग्रह करते हैं कि पाठक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की कृति ‘मुनिवर पं. गुरूदत्त विद्यार्थी’ का स्वाध्याय कर लाभ उठायें।

 

12 thoughts on “‘परोपकारिणी सभा के उत्सव में पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा और पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के ऐतिहासिक व्याख्यान’

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , लेख अति उतम लगा. इमानदारी से कहूँगा कि मुझे इतनी नॉलेज नहीं है फिर भी आप के लेखों से मुझे बहुत जानकारी प्राप्त हुई जो मुझे पहले बिलकुल नहीं मालूम नहीं था , एक जिगिआसा है अगर आप बता दें तो धन्यवादीहुंगा , वोह यह कि जो संस्कृत भाषा है उस को बोला भी जाता है ? किया यह हिंदी की तरह लिखा या बोला जाता है ? जब हम मैट्रिक में पड़ते थे तो कुछ लड़कों ने संस्कृत ली थी . बस यह जान्ने की इच्छा ही है .

    • विजय कुमार सिंघल

      भाई जी, एक समय भारत में संस्कृत इसी तरह बोली जाती थी, जैसे हम आजकल हिंदी और आप पंजाबी बोलते हैं. लम्बे दस्ता काल के कारण भाषा बदल गयी है.
      वैसे कर्णाटक और केरल में एक दो गाँव अभी भी ऐसे हैं जहाँ सभी लग संस्कृत में ही बात करते हैं.
      वाराणसी के कुछ मठों में भी संस्कृत में बातचीत होती है, ऐसा सुना गया है. हालाँकि वे हिंदी भी खूब बोलते हैं.

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते श्री विजय जी। मैं आपके कथनों तथा निष्कर्षों से पूरी तरह से सहमत हूँ। हार्दिक धन्यवाद।

      • विजय भाई , धन्यवाद , आप ने और मनमोहन जी ने विस्तार से वर्णन किया .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। हार्दिक धन्यवाद। संस्कृत सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक न केवल भारत अपितु विश्व की बोलचाल, ज्ञान- विज्ञानं, साहित्य तथा अध्यात्म की भाषा रही है। लोग अपना समस्त व्यव्हार इसी भाषा में करते थे। वेद, बाल्मीकि रामायण, महाभारत, ६ दर्शन, अनेक उपनिषदे आदि संस्कृत में ही लिखी गई हैं। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक व सुश्रुत आदि भी संस्कृत भाषा में ही हैं। एस्ट्रोनॉमी वा ज्योतिष के ग्रन्थ भी संस्कृत में हैं। महाभारत के बाद संस्कृत का पराभव होना आरम्भ हुआ। देश व विश्व के स्थानों वा वहां की परिस्थितियों के अनुसार भाषा का रूपांतर होता गया। आज से २५०० वर्ष पूर्व स्वामी शंकराचार्य जी आदि विद्वान हुए हैं. उनके सभी ग्रन्थ भी संस्कृत में हैं। संस्कृत का पराभव भी होता रहा परन्तु कुछ स्थानो पर इसका अध्ययन अध्यापन आदि भी चलता रहा। आज भी संस्कृत आर्य समाज के ५०० से अधिक गुरुकुलों में मुख्य भाषा के रूप में पढाई जाती है। गुरुकुलों में बच्चे संस्कृत भाषा में ही बातें करते हैं। गुरुकुल, प्रभात आश्रम, मेरठ, उत्तर प्रदेश में यह नियम बनाया गया है कि उस गुरुकुल के विद्यार्थी आपस में केवल संस्कृत में ही बोलचाल करते हैं, हिंदी वा किसी अन्य भाषा में नहीं। वह बाहर के लोगो से हिंदी भी बोल सकते हैं वा बोलते हैं। अध्ययन पूरा होने पर उन्हें अंगरेजी वा अन्य सभी भाषाओँ को सीखने की पूरी छूट हैं। हमारे देहरादून के एक गुरुकुल का विद्यार्थी चि, रविन्द्र कुमार अब लेक्चरर बन गया है। वह अपने विद्यार्थी जीवन से ही संस्कृत तो बोलता ही था, इसके साथ मंच से धाराप्रवाह भाषण भी देता था। अन्य विद्यार्थियों में भी यह योग्यता है। आजकल भारत में संस्कृत में पत्रिकाएं निकलती हैं। पुस्तकें लिखी जाती हैं। गुरुकुलों में संस्कृत में अंत्याक्षरी भी होती है। हमारे इर्दगिर्द संस्कृत के कवि भी हैं। मैं यह सब अपनी आँखों से देखता रहता हूँ. मैं अनेक संस्कृत भाषा के विद्वानों के संपर्क में रहा हूँ। इनमे से कइयों को भारत के राष्ट्रपति से संस्कृत भाषा के राष्ट्रीय विद्वान के रूप में पुरस्कृत भी किया गया है। यद्यपि महर्षि दयानंद गुजरात में जन्मे थे, उनकी मातृभाषा गुजराती थी, परन्तु वह सं १८७५ तक धाराप्रवाह सरल संस्कृत ही बोलते थे और देश भर में व्याख्यान देते थे जिसे हिंदी बांग्ला मराठी तेलगु आदि जानने वाले समझ लेते थे। वार्तालाप भी उनका सभी लोगो से संस्कृत में ही होता था। मैं ऐसे परिवारों को भी जानता हूँ जहाँ घरों में संस्कृत बोली जाती है। कर्णाटक का एक गाँव हैं जहाँ सभी लोग संस्कृत बोलते है। एक संस्मरण देना चाहता हूँ. पंजाब के निवासी और उर्दू व फ़ारसी के मर्मज्ञ श्री रामकृष्ण जी ने अपने पुत्र पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी की भावना से प्रभावित होकर ६० वर्षों से अधिक आयु में संस्कृत सीखी थी और कुछ ही महीने बाद उन्हें मुल्तान से लाहोर में संस्कृत में पत्र भी लिखा था. देहरादून में मेरे घनिष्ठ मित्र वा पूर्व सेल्स टैक्स सहायक कमिश्नर श्री कृष्ण कान्त वैदिक जी ने रिटायरमेंट से कुछ माह पूर्व संस्कृत पढ़ना आरम्भ किया था और संस्कृत में एम ए किया और स्वर्ण पदक प्राप्त किया। आजकल वह एक उर्दू अध्यापक रखकर उर्दू भी सीख रहे हैं। उनकी संस्कृत में पीएचडी जारी है। आशा है कि आपका समाधान हो गया होगा।

      • मनमोहन जी , आप ने मेरी जगिआसा को भली भांति विस्तार से लिखा , और इस बात की ख़ुशी हुई कि संस्कृत बोली भी जाती है किओंकि सकूल के दिनों में कुछ साथिओं ने संस्कृत ली थी और वोह यह ही कहते थे कि यह संस्कृत बोलने में इस्तेमाल नहीं होती , इसी लिए मैंने पुछा था . अक्सर मैं सोचता रहता था कि ऐसा हो नहीं सकता किओंकि जो भाषा बनी है अगर लिखी जाती है तो यह कभी हो नहीं सकता कि बोली ना जाती हो . आप ने बहुत अछे ढंग से लिखा , बहुत बहुत धन्यवाद .

        • Man Mohan Kumar Arya

          हार्दिक धन्यवाद श्री विजय जी। वेद संस्कृत मै हैं। महर्षि दयानंद ने कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। उन्होंने अपने कथन की पुष्टि में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी थी. इसके अंक मैक्समूलर को नियमित रूप से भेजे जाते थे। इससे प्रभावित होकर प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने लिखा था कि वैदिक साहित्य का आरम्भ वेद से होता है और समाप्ती स्वामी दयानंद की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर होता है। अंग्रेजों ने ईसाई मत का आग्रही होने और भारत पर राज्य करने के लिए जानबूझकर वेदो वा वेदानुकूल साहित्य का अवमूल्यन करने का सुविचारित प्रयास किया. अनेक भारतियों ने भी उनका अनुकरण ही किया। भारत के प्राचीन विद्वान सायण और महीधर तथा उनके अन्धानुयायी भी एक प्रकार से अंग्रेजों के संस्कृत एवं वैदिक धर्म विरोध कार्यों में सहयोगी ही रहे। महर्षि दयानंद को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने उनके षड़यंत्र को अपने वेदों के अपूर्व सत्य ज्ञान, अपनी मेधा बुद्धि एवं बुद्धि की विलक्षणता से विफल कर दिया। आपका हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

      • Man Mohan Kumar Arya

        हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। कृपया संस्कृत के महत्व पर एक नए लेख को पढ़कर उस पर भी अपनी प्रतिक्रिया देने की कृपा करें। यह लेख आज युवासुघोष पर अपलोड हो चुका है।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत उत्तम जानकारी ! उन महान क्रांतिकारियों की स्मृति को प्रणाम !

    • Man Mohan Kumar Arya

      मैं भाग्यशाली हूँ कि आप व श्री गुरमेल सिंह जी मेरे लेखो को पढ़ते हैं एवं पसंद करते हैं। यह ईश्वर की मुझ पर कृपा लगती है। सादर धन्यवाद।

      • विजय कुमार सिंघल

        मान्यवर, आपके लेख इतने अच्छे और प्रेरक होते हैं, कि हम पढ़े बिना रह ही नहीं सकते. वर्ना अधिकांश लम्बे लेख बोर कर देते हैं.

        • Man Mohan Kumar Arya

          आपके शब्द आपकी सद्भावना व मेरे अहोभाग्य के सूचक हैं। इसमें ईश्वर की भी कृपा सम्मिलित है। हार्दिक धयवाद।

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