गीतिका/ग़ज़ल

वक़्त

वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया

आईने में खुद को ऐसे उतारता ही गया

मेरी आँखों से हटा जो भरम का परदा यारो

टूटकर बिखरे हुए मैं ख्वाब सवारता ही गया

 

मेरी साखों पे झूले हुए हसीं लम्हे

मेरी बाहों से झड़कर कुछ ऐसे गिरे

जैसे पत्थर कोई मुझपर हो मारता ही गया

वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया

 

साथ छूटे हुए गुजरा नहीं एक पल भी

मैं उसी ठौर पे फिर से आ बैठा

जिस जगह से मैं उसे पुकारता ही गया

वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया

 

आया ना लौटकर मगर वो मेरा माझी

उस किनारे पे मैं भी रहा अकेला तनहा

खुदको उन लहरों में मैं उतारता ही गया

वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया

____सौरभ कुमार

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “वक़्त

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता ! जो वक्त को बर्बाद करते हैं, वक्त उनको बर्बाद कर देता है.

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