कविता

रण निश्चित हो तो डरना कैसा

मन शंकित हो तो बढ़ना कैसा

रण निश्चित हो तो डरना कैसा

 

जब मान लिया तो मान लिया

अब विरुद्ध चाहे स्वयं विभु हों

जब ठान लिया तो ठान लिया

अब सन्मुख चाहे स्वयं प्रभु हों

है अमर आत्मा ..विदित है तो

फिर हार मानकर मरना कैसा

रण निश्चित हो तो डरना कैसा

 

जब उरिण अरुण मातंड लिए

तुमने निश्चय हैं अखण्ड किये

अब जीत हो या मृत्यु हो अब

जीना क्या बिना घमण्ड लिए

निश्चित सब कुछ विदित है तो

फिर बन कर्महीन तरना कैसा

रण निश्चित हो तो डरना कैसा

 

अब केवल अक्षों से ज्वाल उठें

भीषण  भुज – दंड विशाल उठें

नभ, जल, थल सब थम  जाएँ

जब भारत माता के लाल  उठें

निज धर्म धरा पर आक्रमण हो

फिर आपस  में  लड़ना  कैसा

रण निश्चित हो तो डरना कैसा

 

मन शंकित हो तो बढ़ना कैसा

रण निश्चित हो तो डरना कैसा

___________अभिवृत

One thought on “रण निश्चित हो तो डरना कैसा

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा और प्रेरक गीत !

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