उपन्यास अंश

यशोदानंदन-३१

कालिया नाग ने श्रीकृष्ण  के आदेश का त्वरा से पालन किया। श्रीकृष्ण  भी मुस्कुराते हुए अपने स्वजनों के पास लौट आए। वृन्दावन के वासियों, माता यशोदा, महाराज नन्द और समस्त गोधन को तो जैसे उनके प्राण वापस मिल गए। सबने एक-एक करके श्रीकृष्ण  को गले लगाया। माता यशोदा, माता रोहिणी और महाराज ने जब श्रीकृष्ण  को वक्षस्थल से लगाया तो उन्हें यह अनुभूति हुई, मानो उन्हें जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो गया हो। बलराम ने भी श्रीकृष्ण  का आलिंगन किया, परन्तु स्थिर भाव से, मुस्कुराहट के साथ। इन सारे कार्यों में किसी को अनुभव ही नहीं हुआ कि रात्रि का आगमन हो चुका था और प्रथम प्रहर समाप्त भी हो गया था। महाराज नन्द की अनुमति ले सभी वृन्दावनवासियों ने सरिता-तट पर ही रात्रि-विश्राम का निर्णय लिया। अगले दिन सूर्योदय के साथ ही सबने श्रीकृष्ण  के साथ ही ग्राम में प्रवेश किया।

कालिया के मानमर्दन की चर्चा व्रज की सीमाओं को पार करते हुए मथुरा भी पहुंची। कंस पहले से ही आशंकित था। उसने अपने विश्वस्त सैनिकों को भेज वृन्दावन में दावानल जैसी आग लगवाई। श्रीकृष्ण ने अल्प समय में ही हंसते-हंसते उसका भी शमन किया। ग्वाल-बाल के रूप में उसने प्रलंबासुर को भेजा। बलराम ने उसका भी वध कर दिया। कंस की कोई भी योजना सफल नहीं हो पा रही थी। एक बार उसने व्रज पर आक्रमण कर श्रीकृष्ण  को पकड़ने की योजना बनाई, परन्तु यह निश्चय नहीं कर पाया कि आखिर किस अपराध के लिए व्रजवासियों को दंड दिया जाय? वह व्रज में श्रीकृष्ण  की पल-पल की गतिविधियां प्राप्त करता रहता। अपने विश्वस्त गुप्तचर उसने व्रज में नियुक्त कर रखे थे, परन्तु नन्द महाराज या श्रीकृष्ण  द्वारा मथुरा के विरुद्ध किसी तरह के विप्लव की योजना का समाचार प्राप्त नहीं हो पा रहा था। महाराज नन्द समय पर कर भी चुकाते थे। उन्होंने कभी भी ऐसा कोई कार्य नहीं किया था, जिससे राजाज्ञा का उल्लंघन हुआ हो। कंस ने तत्काल आक्रमण न करके, देखने और प्रतीक्षा करने की नीति का पालन करना ही श्रेयस्कर समझा।

वृन्दावन, ग्वालबाल, गोधन, यमुना और मुरली श्रीकृष्ण के अभिन्न बन चुके थे। ये उनके सहचर थे। अब तो सारी गौवें भी श्रीकृष्ण की मुरली की अलग-अलग धुनों की समझ विकसित कर चुकी थीं। उन्हें पता था कि मुरली की किस धुन पर चरने के लिए जाना है तथा किस धुन पर वापस आ जाना है। श्रीकृष्ण अपने निर्देश धुनों के माध्यम से ही प्रेषित करते थे। जब श्रीकृष्ण अपने कोमल गुलाबी अधरों पर मुरली को रखकर फूंक भरते, तो उसके मधुर स्वर से ऐसा कौन था जो सुधबुध नहीं खो बैठता। वंशी की मधुर धुन से प्रभावित हो जगत की समस्त स्थिर वस्तुएं चंचल हो उठतीं और चंचल स्थिर हो जातीं। निरन्तर प्रवाहमान पवन तक बहना छोड़कर एक ही स्थान पर जड़ हो जाता और यमुना का जल-प्रवाह भी बहना छोड़कर स्थिर भाव से मुरली के मादक स्वर में डूब जाता। संपूर्ण पक्षी-समूह विमोहित हो जाता और वन में पशु भी अपने आप को भूल जाते। अपना स्वभाविक वैरभाव भुलाकर अलौकिक संगीत का सुधापान करते। गायें अगर अपने मुंह में घास का तृण पकड़े रहतीं तो उसे उसी तरह पकड़ कर सम्मोहित हो जातीं। श्रीकृष्ण की मुरली व्रज की गोपियों की सौत बन चुकी थी। उनके हर कार्य में मुरली व्यवधान उपस्थित करती। वंशी की धुन पर गोपिकायें अंग-अंग की सुधबुध खो बैठतीं। उनकी दशा चित्रलिखित-सी हो जाती। धुन सुनते समय उन्हें काल का भान तक नहीं रहता। शायद ही कोई ऐसी स्त्री रही होगी जो मन मारकर घर में बैठी रहे। गोपियां आपस की चर्चा में कहतीं –

“इस मुरली के भाग्य से ईर्ष्या होती है। इसने श्रीहरि के मुख-कमल-रूपी साम्राज्य पर अत्यन्त सुखदायी आधिपत्य प्राप्त कर लिया है। यह धृष्ट मुरली श्यामसुन्दर के कर-सिंहासन और अधरों के छत्र की छाया में बैठी रहती है। यह यमुना के जल को सागर नहीं जाने देती, देवलोक से देवताओं को बुला लेती है। समस्त देवता, मनुष्य, मुनि, नाग, जड़, चेतन, पशु, पक्षी इसके वश में हो गए हैं। स्वयं लक्ष्मीपति विष्णु भी इसके प्रेम के कारण श्री तक की सुधि भूल गए हैं। उन भोली गोपियों को  कहां पता था कि स्वयं श्री भी वंशी की धुन को सुनने और अपने प्रियतम के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए वृन्दावन में पधार चुकी थीं।

दिन का दूसरा प्रहर आरंभ हो चुका था। गौवें चरते-चरते ग्वाल-बालों के साथ घने वन में प्रवेश कर चुकी थीं। श्रीकृष्ण पगडंडी के किनारे एक वृक्ष की छाया मे बैठ वंशी टेर रहे थे। एक गोपी घर से तो निकली थी, यमुना से नीर भरने को, परन्तु पांव अचानक मु्ड़ गए वंशी बजैया की ओर। यह कौन सा आकर्षण था जिसका प्रतिरोध वह बाला नहीं कर सकी। न रीते गागर की सुधि थी और न तन पर विराजमान आंचल की। कैसी मादक थी वह धुन? न जान न पहचान। कांटे, कंकड़ियों, झाड़ियों और पथ में पड़े पत्थरों से सर्वथा अनजान वह बाला कब श्यामसुन्दर के सम्मुख खड़ी हो गई, स्वयं भी भान न था। मुरली बजती रही और बाला डोलती रही। दो अपरिचित मुरली की धुन में बंधकर एकाकार हो चुके थे। अचानक वंशी ने अलाप लेना बंद कर दिया। श्रीकृष्ण के नेत्र खुले, तो खुले ही रह गए। अगाध सौन्दर्य की स्वामिनी एक युवती सामने खड़ी थी। उसे पहले कभी वृन्दावन में नहीं देखा था श्याम ने, लेकिन ऐसा क्यों लग रहा था कान्हा को जैसे उनका उससे जन्म-जन्मान्तरों का संबन्ध हो।

इधर वंशी ने धुन निकालना बंद किया, उधर गोपिका नींद से जागी। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे शिव की समाधि टूटी हो। उसने शीघ्र ही अपना आंचल ठीक किया। कुछ पल श्याम को निहारने के बाद जैसे ही वापस जाने के लिए मुड़ी, एक स्वर वातावरण में गूंजित हुआ। ओह! यह कैसा स्वर था जिसमें मुरली से भी अधिक माधुर्य था – “हे विशाल नयनों वाली गोरी! तू कौन है? कहां से आई है? कहा रहती है? किसकी छोरी है? मैंने आज के पूर्व व्रज में तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।”

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-३१

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक वर्णन शैली !

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