धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

महात्मा बुद्ध एवं पुनर्जन्म

महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म को मानते थे। डॉ अम्बेडकर अपनी पुस्तक भगवान बुद्ध और उनका धम्म (पृष्ठ संख्या 296-301, संस्करण 2010) में महात्मा बुद्ध की पुनर्जन्म में आस्था को स्वीकार करते है। वह भौतिक शरीर का मृत्यु के पश्चात नाश होना एवं पुनर्जन्म में दोबारा संयोग होना भी स्वीकार करते है। आत्मा विषय के पुनर्जन्म को लेकर महात्मा बुद्ध अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं करते। इस प्रश्न के उत्तर में की मृत्यु के पश्चात क्या तथागत मरणान्तर रहते हैं महात्मा बुद्ध इस पर अव्याख्यायित अर्थात व्याख्या रहित रह जाते हैं। महात्मा बुद्ध के मौन धारण करने का रहस्य योगिराज श्री कृष्ण जी स्पष्ट करते हैं जब वह कहते हैं कि हे अर्जुन तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं,  तुम उन्हें नहीं जानते, मैं जानता हूँ (गीता 4/5)। महात्मा बुद्ध ने अपने सत्यवादी गुण का अनुसरण करते हुए इस मौन धारण करना उचित समझा की पुनर्जन्म में हमारी क्या स्थिति होगी यह हमें नहीं ज्ञात मगर पुनर्जन्म अवश्य होता हैं।
धम्मपद में महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म को मानते हुए लिखते हैं इस कायरूपी घर (शरीर) को बनाने वाले की खोज में (मैं) बिना रुके अनेक जन्मों तक (भव-) संसरण करता रहा, किन्तु बार बार दु:ख (मय) जीवन ही हाथ लगे। (सन्दर्भ -धम्मपद जरवग्गो 153)
   अगले ही सूत्र में महत्मा बुद्ध पुनर्जन्म से मुक्ति के कारण को स्पष्ट रूप से ईश्वर प्राप्ति बता रहे हैं – ऐ घर बनाने वाले! (अब) तू देख लिया गया है, (अब) फिर (तू) (नया) घर नहीं बना सकता। तेरी सारी कड़ियाँ टूट गई हैं और घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया है। चित पूरी तरह संस्काररहित हो गया है और तृष्णाओं का क्षय (निर्वाण) हो गया है। (सन्दर्भ -धम्मपद जरवग्गो 154)
यही तथ्य महापरिनिर्वाण सूक्त में पाठ 10 में भी यही सन्देश मिलता है कि तथागत को जानने के पश्चात ही जन्म मरण से मुक्ति संभव हैं। जब तब यह ज्ञान नहीं होगा तब पुनर्जन्म से मुक्ति संभव नहीं हैं।
बुद्ध सुत्त में ख्यातिप्राप्त विद्वान रिस डेविड लिखते हैं कि महात्मा बुद्ध के अनुसार चार आर्य सत्य को जाने बिना मुक्ति संभव नहीं हैं। जब तक इन सत्यों का जाना नहीं जायेगा तब तक मुक्ति संभव नहीं हैं।
बुद्धबग्ग में चार आर्य सत्यों के विषय में लिखा हैं कि जो भली प्रकार से प्रज्ञा से देखता है- १. दुःख २. दुःख की उत्पत्ति ३. दुःख का विनाश ४. दुःख का उपशमन करने वाला आर्य अष्टांगिक मार्ग उसका यह शरण ग्रहण करके मनुष्य सब दुःख से मुक्त होता हैं।
स्वामी दयानंद जन्म-मरण रूपी बंधन से छूटना इस जीवन का उद्देश्य मानते है एवं जब तक मोक्ष प्राप्ति नहीं होती आत्मा को बार बार शरीर धारण करना पड़ता है और इसी को पुनर्जन्म कहते हैं। इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं कि महात्मा बुद्ध द्वारा पुनर्जन्म को स्वीकार किया गया हैं।
   अब प्रश्न उठता है की पुनर्जन्म किसका होता हैं। मनुष्य जन्म का अर्थ पञ्च भूत भौतिक पदार्थों एवं आत्मा का संयोग हैं जबकि मृत्यु दोनों का वियोग हैं। प्रकृति के भौतिक पदार्थ जड़ हैं अर्थात स्वयं से संयुक्त नहीं हो सकते इसलिए किसी चेतन सत्ता द्वारा ही इस कार्य को संपन्न किया जा सकता हैं। सम्पूर्ण जगत में केवल दो चेतन सत्ता हैं एक ईश्वर एवं दूसरा आत्मा। आत्मा चेतन हैं मगर अल्पज्ञ, अल्पसामर्थ्य एवं अल्पशक्तिवान हैं जबकि ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान एवं न्यायकारी चेतन सत्ता हैं। अलपज्ञ आत्मा में यह सामर्थ्य नहीं हैं की वह अपने आपको एक शरीर से  दूसरे शरीर में प्रवेश कर सके, अपने किये हुए कर्म का यथोचित फल स्वयं को दे सके, अनंत जीवों के कार्यों की कर्मफल व्यवस्था को विधिवित चला सके, । अगर ऐसा होता तो कोई भी आत्मा पशु, दरिद्र आदि का शरीर धारण नहीं करना चाहता अपितु केवल और केवल श्रेष्ठ योनियों में जाना चाहता, न ही किसी अशुभ कर्म का फल भोगना चाहता।
                     ईश्वर के अतिरिक्त आत्माओं को दोबारा शरीर धारण कराने की क्षमता और किसी में नहीं है इसलिए पुनर्जन्म में विश्वास एक प्रकार से ईश्वर में विश्वास रखने के समान हैं। वेदादि शास्त्रों में ईश्वर को  अर्यमा(सब जीवों के पाप-पुण्य की यथावत व्यवस्था करने वाला), कर्माध्यक्ष (किस कर्म का फल कब, कहाँ, किसे।किन साधनों के द्वारा, किन परिस्तिथियों में यथावत भोगा जा रहा सकता है, इसे जानना वाला), यम (सभी प्राणियों के कर्मफल का नियमन करने वाला), असुनेता (प्राणों को एक शरीर से दूसरे से दूसरे शरीर में लेकर जाने वाला) कहा गया हैं। वेदादि शास्त्र पुनर्जन्म के सिद्धांत का अनेक स्थानों में वर्णन इस प्रकार से करते है-
 1. हे सुखदायक परमेश्वर! आप कृपा करे पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रिया स्थापित कीजिये। तथा प्राण अर्थात मन, बुद्धि, चित, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में कीजिये । (ऋग्वेद 8/1/23/1)
2. हे सर्वशक्तिमान! आपके अनुग्रह से हमारे लिए वारंवार पृथ्वी प्राण को, प्रकाश चक्षु को और अंतरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात औषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे । (ऋग्वेद 8/1/23/2)
3. हे सर्वज्ञ ईश्वर! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध मन. पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हो। (यजुर्वेद 4/15)
4. हे जगदीश्वर! आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझको प्राप्त हो अर्थात सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे । (अथर्ववेद 7/67/1)
5. जो मनुष्य पुनर्जन्म में धर्माचरण करता हैं, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता हैं । (अथर्ववेद 5/1/1/2)
 6. जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुन: शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता हैं । (यजुर्वेद 19/47)
7. तुम तुम शरीरधारी रूप में उत्पन्न होकर अनेक योनियों में अनेक प्रकार के मुखों वाले भी हो जाते हो । (अथर्ववेद 10/8/27)
8. यह जीवात्मा कभी किसी का पिता, कभी पुत्र, कभी बड़ा, कभी छोटा हो जाता हैं ।  (अथर्ववेद 10/8/28)
9. मैंने इन्द्रियों के रक्षक अमर इस आत्मा का साक्षात्कार किया जो जन्म-मरण के मार्गों से विचरण करता रहता हैं। वह अपने अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार और प्रीतीपूर्वक अनेक योनियों में संसार के अंदर भ्रमण करता रहता हैं । (ऋग्वेद 1/164/31)
10. हे जीवों! तुम जब शरीर को छोड़ो तब यह शरीर दाह के पीछे पृथ्वी, अग्नि आदि और जलों के बीच देह-धारण के कारण को प्राप्त हो और माताओं के उदरों में वास करके फिर शरीर को प्राप्त होता हैं । (यजुर्वेद 12/38)
11. जीव माता के गर्भ में बार बार प्रविष्ट होता हैं और अपने शुभ कर्मानुसार सत्यनिष्ठ विद्वानों के घर में जन्म लेता हैं।(अथर्ववेद 14/4/20)
इसी प्रकार से निरुक्त में यास्काचार्य ने पुनर्जन्म को माना हैं।
1. मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हज़ारों गर्भाशयों का सेवन किया। (निरुक्त 13/19/1)
2. अनेक प्रकार के भोजन किये, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता-पिता और सुह्रदयों को देखा। (निरुक्त 13/19/2)
3. मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये।(निरुक्त 13/19/7)
 दर्शन ग्रन्थ भी पुनर्जन्म का समर्थन करते हैं
1. हर एक प्राणियों की यह इच्छा नित्य देखने में आती हैं कि मैं सदैव सुखी बना रहूँ। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि मैं न होऊं। ऐसी इच्छा पुनर्जन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह “अभिनिवेश” क्लेश कहलाता हैं, जोकि कृमि पर्यन्त को भी मरण का भय बराबर होता हैं। यह व्यवहार पुनर्जन्म की सिद्धि को जनाता हैं । (पतंजलि योगदर्शन 2/9)
2. जो उत्पन्न अर्थात शरीर को धारण करता हैं, वह मरण अर्थात शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता हैं। इस प्रकार मर के पुनर्जन्म लेने को प्रेत्यभाव कहते हैं । (न्यायदर्शन 1/1/19)
गीता  में आता हैं की जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्रों को ग्रहण कर लेता हैं उसी प्रकार आत्मा पुराने व्यर्थ शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीरों को धारण कर लेता हैं। (गीता 2/22)
 इस प्रकार से रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण आदि ग्रन्थ भी पुनर्जन्म के सिद्धांत का पुरजोर समर्थन करते हैं।
पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाले महात्मा बुद्ध इस आधार पर अनीश्वरवादी नहीं अपितु आस्तिक सिद्ध होते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1. बौद्धमत और वैदिक धर्म- स्वामी धर्मानन्द
2. Mahatma Buddha an Aryan reformer Dharamdev Vidyamartnand
3. गीता रहस्य- बाल गंगाधर तिलक
4. भूमिका भास्कर-स्वामी विद्यानंद सरस्वती
5. भगवान बुद्ध और उनका धम्म- डॉ अम्बेडकर
6. धम्मपद
7. वेद और उसकी वैज्ञानिकता- आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
8. सत्यार्थ प्रकाश- स्वामी दयानंद सरस्वती
9. निरुक्त भाष्य- चन्द्रगुप्त वेदालंकार
10. कुलयात आर्य मुसाफिर- पंडित लेखराम आर्य मुसाफिर
11. ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका- स्वामी दयानंद सरस्वती
12. बौद्ध संस्कृति- राहुल सांकृत्यायन
13. बुद्धचर्यया- राहुल सांकृत्यायन
14. यजुर्वेद भाष्य- स्वामी दयानंद
15 ऋग्वेद भाष्य- स्वामी दयानंद