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यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म है….

yagyaयज्ञ को वैदिक साहित्य में श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। यज्ञ में ऐसी क्या बात है कि इसे सभी कर्मों से श्रेष्ठ कहा गया है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि हम जो कर्म करते हैं वह अपने व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ व सुखदायक बनाने के लिए करते हैं। हमने विद्यार्जन अपने लिए किया, शिक्षा-अध्यापन, कृषि, व्यापार व क्षत्रिय कर्मों यथा सेना व पुलिस आदि से जुड़ा रोजगार किया वह भी अपने या अपने परिवार के लिये करते हैं, निवास बनाते हैं अपने व अपने परिवार के लिये, वाहन खरीदते हैं अपने लिये, अच्छा स्वादिष्ट भोजन बनाते हैं वह भी अपने लिये, इससे समाज व देश को अधिक लाभ नहीं होता। इन सभी कार्यों में कहीं परोपकार की भावना नहीं होती। यदि हम अपने यह सभी कार्य अपने साथ दूसरों को भी लाभ पहुंचाने की दृष्टि करें तो उनका महत्व केवल अपने लिए किये जाने वाले कार्यों से अधिक होता है। हम जो भी कार्य करते हैं उससे दूसरे जरूरतमन्दों का जितना अधिक से अधिक हित हो,  उतना ही वह कार्य अच्छा व श्रेष्ठ होता है। अब विचार करते हैं कि हमारे लिए सबसे अधिक आवश्यक वस्तुत क्या है? विचार करने पर ज्ञात होता है कि जल व वायु हमारे लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तुएं हैं। भीषण गर्मी की कल्पना कीजिए। यदि आप प्यासे हैं और पानी न मिले तो प्राणों के बाहर जाने की सी स्थिति आ जाती है। इस लिए जल का महत्व बहुत अधिक है। अब वायु पर विचार करते हैं। वायु हमारे श्वास-प्रश्वास के लिए आवश्यक है। हम सोते-जागते, सर्दी-गर्मी सभी अवसरों 24 x 365 दिन प्राणों के लिए वायु को लेते और छोड़ते हैं। यदि यह शुद्ध अवस्था में न मिले तो हमारा स्वास्थ्य बिगड़ कर हम रोग ग्रस्त हो जाते है। यदि हमारे फेफड़ों में रक्तशोधन के लिए वायुमण्डल में आवश्यक शुद्ध वायु न हो तो कल्पना कर सकते हैं कि क्या हम 5 मिनट भी जीवित रह सकेंगे? इसका उत्तर है कि नहीं रह सकेंगे। अतः यह सिद्ध हुआ कि जीवन में और संसार में हमारे लिए सबसे अधिक आवश्यक वस्तु प्राणवायु है। संसार में किसी भी मनुष्य व श्वास लेने वाले प्राणी के लिए शुद्ध वायु से बढ़कर कुछ भी नहीं है। अतः यह वायु प्रचुर मात्रा में शुद्ध रूप में मिले, यह हम सभी का प्रयास होना चाहिये तथा यह हमारा प्रमुख कर्तव्य व दायित्व है। अब देखना यह है कि हम वायु को शुद्ध उपलब्ध कराने के लिये करते क्या हैं? हम श्वास लेते हैं तो इस प्रक्रिया में हम अपनी नासिका से आक्सीजन लेते हैं और इसे दूषित कर कार्बन डाई आक्साइड गैस बनाकर वायु में छोड़ते हैं जिससे वायु प्रदुषित होती है। श्वास से जो वायु बाहर आती है वह वायु पुनः श्वास लेने के लिए अनुपयोगी व हानिकारक होती है। हमारा श्वास लेने का कार्य ऐसा है कि इससे हमने अपना स्वार्थ तो सिद्ध किया परन्तु इससे जो कार्बन डाइ आक्साईड गैस बनी वह हमारे व अन्य सभी प्राणियों के लिए हानिकारक है। इस प्रकार से श्वास लेने व छोड़ने में भी पाप हो रहा है। यह इस कारण से कि हम बिना मूल्य चुकाए प्रकृति से शुद्ध वायु लेते हैं, अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और उसे विषाक्त करके वायुमण्डल में छोड़ते हैं जो सभी के लिए हानिकारक होती है। अतः मनुष्य अर्थात् मननशील प्राणी होकर अपने सभी छोटे व बड़े काम करने वाला होने से हमारे कारण विषाक्त हुई प्राणवायु को शुद्ध करने का दायित्व व कर्तव्य भी केवल हमारा है। क्या हम इसे पूरा कर रहे हैं? उत्तर है कि नहीं करते है।

अतः भौतिक यज्ञ जिसे अग्निहोत्र भी कहते हैं, वह कार्य है जिससे वायुमण्डल को शुद्ध, पवित्र तथा आरोग्यदायक बनाया जाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने गीता में कहा है कि यज्ञ करने से बादल बनते हैं, बादलों से वर्षा होती है, वर्षा से कृषि का कार्य होकर अन्न उत्पन्न होता है, अन्न मनुष्यों में शक्ति व प्रजनन के लिए आवश्यक धातुओं एवं सामथ्र्य का निर्माण करता है, इससे जीवात्मायें अपने कर्मानुसार सुख व दुःख भोगने के लिए ईश्वर की व्यवस्थानुसार माता-पिता से जन्म लेती हैं। अतः यज्ञ का करना न केवल श्वास लेने व दूसरों को शुद्ध वायु प्रदान करने के लिए आवश्यक है अपितु संसार चक्र को अच्छी सन्तानें देकर जारी रखने में भी सहायक व आवश्यक है। इससे सिद्ध होता है कि यज्ञ सभी मनुष्य का कर्तव्य है जिसे अन्य कर्तव्यों सहित प्रमुख कर्तव्य या एक ‘अनिवार्य धर्म’ भी कह सकते है। यह ऐसा धर्म है जो कि जाति, मत, मजहब, देश व काल से ऊपर एवं सृष्टि एवं प्राणीमात्र का उपकारी एवं हितकारी है। यज्ञ करना इस लिए भी आवश्यक है कि जिससे हमारे घर के अन्दर का श्वास-प्रश्वास व रसोई के कार्यों से प्रदूषित वायु अग्नि की गर्मी से हलका होकर खिड़की व रोशनदानों से बाहर निकल जाये तथा बाहर की शुद्ध वायु निवास गृह में भर जाये। यज्ञ करने से यह क्रिया स्वतः सम्पन्न होती है जिससे यज्ञ एक वैज्ञानिक प्रक्रिया सिद्ध होती है।

यज्ञ से क्या कोई लाभ भी होता है या नहीं? यह विचारणीय प्रश्न है। यदि कुछ लाभ होता है तभी कोई यज्ञ में प्रवृत्त होगा अन्यथा इसे करना व्यर्थ ही कहा जायेगा। यज्ञ में अग्नि, गोघृत, वनौषधियां, अन्न, शुष्क फल व मेवे आदि, शक्कर, अन्य सुगन्धित केसर व कस्तूरी आदि पदार्थों का मुख्यतः प्रयोग किया जाता है। अग्नि में मन्त्रों सहित अल्प मात्रा में आहुति डालने से यह सभी आहूत द्रव्य जलकर अति सूक्ष्म वा प्रायः परमाणुरूप हो जाते हैं और वायु में सर्वत्र फैल जाते हैं। आहूत द्रव्यों के जलकर सूक्ष्म होने व वायु में फैलने का कार्य तो प्रत्यक्ष है, इसमें किसी शंका को कोई अवकाश नहीं है। अब देखना यह है कि वायु में फैलने से इसका वायु पर, सृष्टि पर और सभी प्राणियों पर क्या प्रभाव होता है? मिर्च का उदाहरण हमारे सामने हैं। एक मनुष्य भोजन में कई मिर्च खा सकता है परन्तु यदि मनुष्यों से भरे किसी हाल में तीव्र अग्नि में एक मिर्च डाल दी जाये तो वहां मिर्च की धांस से लोगों का बैठना दूभर हो जाता है। लोगों को बेचैनी होती है और लोग स्थान छोड़ कर जाने लगते हैं। ऐसा क्यों होता है, इस कारण कि अग्नि मिर्च को जलाकर सूक्ष्म कर देती है और वह वायु के साथ सभी दिशाओं में फैल जाती है। मिर्च को खाने से जो प्रभाव होता था उसी मिर्च के अग्नि में जलने पर उसका प्रभाव सैकडों वा हजारों गुणा अधिक होता है। यही बात अग्निहोत्र में आहूत किये गये सभी द्रव्यों पर भी लागू होती है। गोघृत, ओषधियों व वनस्पतियों, शक्कर व शुष्क फलों, मेवों आदि का जो प्रभाव उनको मुंह से खाकर प्रयोग करने से होता था वह अब अग्निहोत्र-यज्ञ के द्वारा अग्नि में जलने पर हजारों-लाखों गुणा अधिक हो जाता है और उससे होने वाले लाभ भी उसी अनुपात में मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। यज्ञ से निर्मित वायुमण्डल का सीधा प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है और इससे साध्य व असाध्य शारीरिक रोगों सहित अनेक मनोरोग भी ठीक हो जाते हैं। यज्ञ करने से केवल यज्ञ करने वाले को ही लाभ नहीं होता अपितु यज्ञ के चहुं ओर का वायु सारे वायुमण्डल में विस्तीर्ण होने से असंख्य लोगों को इसका लाभ मिलता है जो कि अन्य किसी क्रिया द्वारा सम्भव नहीं है। इस प्रकार से यज्ञ एक छोटा सा अनुष्ठान व कार्य है जिससे अगणित लोगों को शुद्ध प्राणवायु मिलने के साथ प्रत्यक्ष स्वास्थ्य लाभ होता है।

यज्ञ में हम वेदों के मन्त्रों को बोलकर आहुति देते हैं। इससे उन-उन मन्त्रों में जो व्याख्यान हैं उनको जानने से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना, ईश्वर प्रदत्त इस विषय के यथार्थ वचनों व शब्दों अर्थात् वेदमंत्रों द्वारा हो जाती है जो कि किसी मानव निर्मित शब्दावली से कहीं अधिक श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर व श्रेष्ठतम है। मंत्रोच्चार करने से मन्त्र कण्ठस्थ हो जाने से इनकी रक्षा व संरक्षण भी होता है। प्रातः सायं यज्ञ के मन्त्रों का उच्चारण करने से सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर हमारी वेदमन्त्रों में निहित, कथित व प्रस्तुत स्तुति व प्रार्थना वचनों से प्रसन्न होकर तदानुसार मांगी गई वस्तुओं जिसमें ज्ञान, स्वास्थ्य, श्रेष्ठ बुद्धि, परोपकार व सेवा की भावना, धन व वैभव, लम्बी आयु, अच्छे मित्र, द्वेषी शत्रुओं का नाश, सुसंस्कार स्वयं व परिवारजनों को मिलते हैं। यज्ञ करने वाले के पड़ोसी भी ज्ञान पूर्वक व डर कर अपना द्वेष छोड़ देते हैं क्योंकि ईश्वर की सत्ता व कर्म-फल सिद्धान्त को सभी का अन्तःकरण स्वीकार करता है। सभी के मन में कहीं न कहीं यह विचार आता है कि यह व्यक्ति धार्मिक है, स्वाध्याय करता है, सन्ध्या व यज्ञ करता है अतः ईश्वर की इस पर कृपा है। यदि हम इसका अनिष्ट सोचेंगे तो हो सकता है कि ईश्वर के द्वारा हम दण्डित किये जाएँ।  इसका अहसास सभी को नहीं तो कुछ को तो होता है। ईश्वर का सहाय तो सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि पंचमहायज्ञ करने वाले तथा वेद आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय, सेवा व परोपकार के कार्य करने वालों को मिलता ही है। यज्ञ के अवसर पर हमारा सम्पर्क अनेक सज्जन पुरूषों से भी होता हैं। घर में पुरोहित व विद्वानों का यदा-कदा आगमन होता रहता है जिनके ज्ञान व अनुभवों के साथ उनकी सदभावना, शुभकामनाओं वा आर्शीवादों से भी यज्ञकत्र्ता लाभान्वित होते हैं। इसे देवपूजा व संगतिकरण का लाभ कह सकते हैं। ऐसा करके सम्पर्क में आये विद्वानों के परामर्श से हम अपने जीवन की सभी उलझी हुई गुत्थियां सुलझा सकते हैं। यज्ञ का एक आवश्यक अंग दान भी है जो यज्ञ करने से होता है व मिलता है। यज्ञ में प्रयोग किए गए द्रव्यों, यजमान का यज्ञ में लगने वाला समय तथा पुरोहित व विद्वानों आदि को दी जाने वाली दक्षिणा दान के अन्तर्गत आती है जिसका पुण्य यजमान व उसके परिवार को ईश्वर की कृपा व व्यवस्था से प्राप्त होता है। अतः यज्ञ करने से लाभ ही लाभ हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक मनुष्य, स्त्री व पुरूष को प्रतिदिन प्रातः व सायं यज्ञ करना चाहिये। यदि किसी के पास धन वा द्रव्यों का अभाव व अल्पता है और यदि वह आहुतियां देकर यज्ञ नहीं कर सकता तो वह शुद्ध व पवित्र होकर एकान्त व शान्त स्थान में बैठ कर आत्मिक यज्ञ ही कर ले, उससे भी कुछ कम या अधिक लाभ उसे होगा, ऐसा हमारा अनुमान है। वेद मन्त्रों में यह भी प्रार्थना है कि हम जो-जो कामना करें वह हमारी सिद्ध होवे तथा हमारी इच्छानुसार वर्षा हो। यज्ञ करने से मोक्ष की प्राप्ति में भी सहायता मिलती है जो कि महर्षि दयानन्द के ईश्वर के प्रति समर्पण वचनों हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः से विदित होती है।

अब यज्ञ से हानियों पर भी चर्चा कर लेते हैं। यज्ञ के विरोधी लोग प्रायः प्रमुख आरोप यह लगाते हैं कि यज्ञ करने से ‘कार्बन डाइ आक्साइड गैस’ बनती है। यह बात कुछ-कुछ ठीक हो सकती है। यहां यह विचारणीय है कि अग्नि के जलने से यदि हानिकारक कार्बन डाई आक्साइड गैस बनती है तो क्या हम भोजन बनाना, वाहन चलाना व अपने सभी उद्योग-धन्धों को बन्द कर रहे हैं या करेंगे क्योंकि इन कार्यों से भी कार्बन डाइ आक्साईड व अन्य विषैली गैसों का उत्सर्जन होता है। जब हमारे अनेक कार्यों से वायु मण्डल प्रदुषित हो रहा है तो फिर यज्ञ से अल्प मात्रा में बनने वाली कार्बन गैस की चिन्ता क्यों की जाती हैं? ऐसे लोग तो यज्ञ-द्वेषी ही कहे जा सकते हैं जो अन्याय पूर्ण कथन करते हैं।  यज्ञ कुण्ड की अग्नि के परिमाण के अनुपात में ही कार्बन गैस बनती है जिसे स्वीकार्य permissible सीमा में कहा जा सकता है। यदि हमने अपने आसपास कुछ वृक्ष लगा दिये तो यज्ञ में बनने वाली कार्बन गैस की अल्पमात्रा उन वृक्षों के भोजन का कार्य करेगी जिससे हमारा यह कार्य भी एक अतिरिक्त परोपकार का कार्य होगा। यह कार्य हमारी ओर से वृक्षों के लिए दान होगा जिनसे हमें आक्सीजन वा प्राणवायु प्राप्त होती है। अतः यज्ञ पर कार्बन गैस के उत्सर्जन का आरोप हमें निराधार लगता है। इसके वैज्ञानिक आंकड़े हमारे पास नहीं है कि लकडी व कोयले से जलने वाले चूल्हे, एलपीजी चूल्हे, वाहन से उत्सर्जित अनेकानेक विषैली गैसों कितनी मात्रा में बनती है जिससे यज्ञ से बनने वाली कार्बन गैस की मात्रा से तुलना कर सकें। हमारे वैज्ञानिक इस कार्य में हमारी सहायता करें तो हमें लगता है कि यह परिणाम सामने आयेगा कि यज्ञ से कोई हानि नहीं होती अपितु लाभ अगणित होते हैं जिनमें से हम कुछ लाभों का ही अनुमान कर सकते हैं। महर्षि दयानन्द ने लिखा है यज्ञ न करने से पाप होता है। यह इस प्रकार कि यज्ञ से होने वाले अनेकानेक लाभों को न करके व हमारे कारण जो वायु-जल-भूमि में प्रदुषण हो रहा है उसका निवारण न करने से।  अतः लाभकारी यज्ञों को न करने से हम पापी बनते हैं जिससे बचने का एक ही उपाय हैं कि हम नित्य प्रति हवन करें और स्वयं व दूसरों का जीवन सुखी व निरोग बनायें। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हुए पाठकों से निवेदन करना चाहते हैं कि इस विषय में महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपना कर्तव्य निर्धारित करें जिसका पालन करने से सभी मनुष्यों को लाभ होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म है….

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख.
    यज्ञ के अनेक रूप होते हैं. हवन करना उसका एक स्थूल रूप है. किसी भी श्रेष्ठ और समाजोपयोगी कर्म को यज्ञ कहा जा सकता है. इस प्रकार के पांच यज्ञों का विधान हमारे ऋषियों ने किया है.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते महोदय। आपके विचार पूरी तरह से वैदिक विचारधारा के पोषक हैं। आपको मेरा हार्दिक आभार एवं धन्यवाद है। आपका इसी प्रकार से प्यार एवं सद्भावना बनी रहे, ईश्वर से प्रार्थना है।

  • मनमोहन जी , लेख पड़ा और अच्छा लगा , यग्य करने के लाभ भी गियात हुए , और इन का महत्व भी . पुरातन समय में कियों किये जाते थे , समझ आई .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते महोदय। आपको मेरा हार्दिक आभार एवं धन्यवाद है। आपका इसी प्रकार से प्यार एवं सद्भावना बनी रहे, ईश्वर से प्रार्थना है।

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