गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

सीना अश्कों से भर गया होता
मैं न रोता तो मर गया होता

खुद ही डूबा हूँ मैं तेरे ग़म में
चाहता तो उबर गया होता

ग़म की लौ और तेज़ होती तो
और थोडा निखर गया होता

फिर न आवारगी गले मिलती
गर कहीं मैं ठहर गया होता

बेहिसी ने बचा लिया वरना
आज मैं भी सिहर गया होता

जिस्म ज़ख्मों से ढँक गया वरना
बे-लिबासी में मर गया होता

उसकी आँखों ने मुखबिरी कर दी
वो तो फिर से मुकर गया होता

लौट आता अगर न ग़ज़लों में
और ‘कान्हा ‘ किधर गया होता

— प्रखर मालवीय ‘कान्हा’

प्रखर मालवीय 'कान्हा'

नाम- प्रखर मालवीय कान्हा पिता का नाम - श्री उदय नारायण मालवीय जन्म : चौबे बरोही , रसूलपुर नन्दलाल , आज़मगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में 14 नवंबर 1991 को । वर्तमान निवास - दिल्ली शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा आजमगढ़ से हुई. बरेली कॉलेज बरेली से बीकॉम और शिब्ली नेशनल कॉलेज आजमगढ़ से एमकॉम। सृजन : अमर उजाला, हिंदुस्तान , लफ़्ज़ , हिमतरू, गृहलक्ष्मी , कादम्बनी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ। 'दस्तक' और 'ग़ज़ल के फलक पर ' नाम से दो साझा ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित। संप्रति : नोएडा से सीए की ट्रेनिंग और स्वतंत्र लेखन। संपर्क : prakhar29@outlook.com ) 9911568839

3 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    “उसकी आँखों ने मुखबिरी कर दी
    वो तो फिर से मुकर गया होता”

    वाह वाह ! बहुत सुन्दर !

    • प्रखर मालवीय 'कान्हा'

      shukriya sahab

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