उपन्यास अंश

यशोदानन्दन -४१

अक्रूर जी ने कंस का कथन बड़े ध्यान से सुना। कुछ समय मौन रहकर विचार किया – यदि वह बालक देवकी की आठवीं सन्तान है, तो अवश्य ही इस दुराचारी का वध करने में समर्थ होगा। इसकी मृत्यु निकट आ गई है, तभी यह दुर्जेय, अति पराक्रमी और ईश्वरीय गुणों से भरे हुए दोनों बालकों को मथुरा आमंत्रित कर रहा है। उसके प्रस्ताव पर असहमति व्यक्त करने का अर्थ है, तत्काल मृत्यु को गले लगा लेना। अपने भावों को अपने मुखमंडल पर किंचित भी प्रकट न करते हुए अक्रूर जी ने कंस के प्रस्ताव पर अपनी सहमति देते हुए कहा –

“महाराज! संसार मे कोई सुर-असुर आजतक नहीं जन्मा जो आपकी मृत्यु का कारण बन सके। परन्तु इन दोनों बालकों के कारण आप अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त प्रतीत हो रहे हैं। अतः समय रहते इस अनिष्ट को सदा के लिए समाप्त करने की आपकी योजना उत्तम है। मैं सदैव आपका मंगल चाहता हूँ। यह शरीर और यह मन आपको समर्पित है। आपकी इच्छायें मेरे लिए राज्यादेश हैं। मैं आपके और मथुरा के हित के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने हेतु तत्पर हूँ। आप की आज्ञा का पालन होगा। मैं स्वयं व्रज जाऊंगा और अपने बुद्धि-कौशल से दोनों बालकों को उनके मित्रों के साथ मथुरा के आऊंगा।”

महामति अक्रूर ने वह रात मथुरा में उद्विगनता के साथ बिताई। सवेरा होते ही रथ पर सवार हुए और गोकुल की ओर चल दिए। जैसे-जैसे वे व्रज की ओर अग्रसर हो रहे थे, उनका हृदय श्रीकृष्ण की प्रेममयी भक्ति से परिपूर्ण होता जा रहा था। पवनवेग से चलने वाले अश्वों से जुते रथ पर सवार होकर अक्रूर जी शीघ्र ही व्रज में पहुंच गए। वहां नन्द जी के महल के बाहर श्रीकृष्ण और बलराम – दोनों भाइयों को गाय दूहने के स्थान पर विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीतांबर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलांबर। उनके नेत्र सद्यःविकसित कमल के समान प्रफुल्लित थे। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्य की खान थे। घुटनों को स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजायें, सुन्दर देहयष्टि, परम मनोहर और गज शावक के समान चाल देख अक्रूर जी मुग्ध थे। उनके चरणों में ध्वजा, वज्र, अक्कश और कमल के चित्र थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मंद-मंद मुस्कान और चंचल चितवन से दया की वृष्टि हो रही थी। वे उदारता की मानो सजीव मूर्ति थे। उनकी एक-एक लीला सुन्दर कलाओं से भरी थी। गले में मणियों के सुन्दर हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीर में अंगराग और चन्दन का लेप किया था। उन्हें देखते ही अक्रूर जी अपना सुध-बुध खो बैठे। कुछ ही पलों के पश्चात्‌ स्वयं को संयत करते हुए दोनों को अपना परिचय दिया –

“मेरे बालकद्वय! मैं तुम्हारे पिता वसुदेव का परम मित्र अक्रूर हूँ। तुमसे मिलने अचानक उपस्थित हुआ हूँ।”

प्रेमावेश और भावावेश से अधीर अक्रूर जी इतने आह्लादित हुए कि उनके नेत्रों से अश्रु अचानक बह निकले और वाणी अवरुद्ध हो गई। वे रथ से कूद पड़े और साष्टांग श्रीकृष्ण और बलराम के चरणों में लेट गए। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण को उनके अन्तर के भावों को समझने में विलंब नहीं हुआ। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से अपने चक्रांकित हाथों से खींचकर उन्हें उठाया और हृदय से लगा लिया। श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाकर उनकी वन्दना की और मीठे स्वर में संबोधित किया –

“चाचा अक्रूर! आप मेरे पिता के परम सुहृद हैं, अतः उन्हीं की भांति प्रातःस्मरणीय और वन्दनीय हैं। मैं आपको पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ बारंबार प्रणाम करता हूँ। मथुरा से व्रज की लंबी दूरी की यात्रा करने के कारण आप किंचित क्लान्त हो गए होंगे; अतः मेरे पिता महाराज नन्द जी के भवन में चलिए। वे आपके दर्श्न पाकर अत्यन्त प्रसन्न होंगे।”

अक्रूर जी के कंठ से कोई वाणी निकल नहीं पा रही थी। वे बार-बार नेत्रों से छलकते प्रेमाश्रुओं को अंगवस्त्रों से पोंछते हुए मूर्ति की भांति खड़े रहे। श्रीकृष्ण और बलराम – दोनों भाइयों ने उनके दोनों हाथ बड़े स्नेह से पकड़े और अपने भवन की ओर चल पड़े।

अक्रूर जी को अतिथि-गृह में बड़े सम्मान के साथ दोनों भ्राताओं ने श्रेष्ठ आसन पर विराजमान कराया। विधिपूर्वक उनके पांव पखारे और शहद मिश्रित दही आदि पूजा-सामग्री उन्हें भेंट की। श्रीकृष्ण ने पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की और बड़े आदर एवं श्रद्धा से उन्हें सुस्वादु भोजन कराया। अक्रूर जी के आगमन का समाचार सुन, नन्द बाबा स्वयं अतिथि-गृह में पधारे। कुशल-मंगल के आदान-प्रदान के बाद वे भी वहीं बैठ गए। दोनों मित्र अरसे बाद मिले थे। नन्द बाबा का इंगित पाते ही श्रीकृष्ण-बलराम कक्ष से बाहर चले गए। दोनों मित्र आपस में बात करते रहे। उनके ठहाकों के स्वर बाहर तक सुनाई पड़ रहे थे। बातों-बातों में कब दिन ढल गया और शाम हो गई, दोनों को पता ही नहीं चला। सेवकों ने सायंकाल का भोज भी वहीं उपस्थित किया। भोजनोपरान्त श्रीकृष्ण और बलराम अक्रूर जी के सम्मुख पुनः प्रकट हुए। श्रीकृष्ण ने चाचा अक्रूर से निवेदन किया –

“चाचाजी! आपका हृदय अत्यन्त शुद्ध है। आपको यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ? मैं आपकी मंगल-कामना करता हूँ। मथुरा में हमारे आत्मीय कुटुंब तथा अन्य संबन्धी कुशलपूर्वक और स्वस्थ तो हैं न? हमारा नाम मात्र का मातुल कंस तो हमारे कुल के लिए एक भयंकर व्याधि है। यह कितने खेद की बात है कि उसने मेरे माता-पिता को हथकड़ी-बेड़ी में जकड़कर कारागार में डाल दिया है। उस पापी ने अपनी बहन के नन्हें-नन्हें शिशुओं को जन्मते ही मार डाला। वह मथुरावासियों पर नित्य ही नए-नए अत्याचार करता है। आप उसकी प्रजा हैं। ऐसे आततायी राजा के राज्य में कोई सुखी हो सकता है, यह अनुमान ही हम कैसे लगा सकते हैं? मैं बहुत दिनों से चाह रहा था कि आप लोगों में से किसी न किसी का दर्शन हो। बड़े सौभाग्य का विषय है कि मेरी वह अभिलाषा आज पूरी हो गई। सौम्यस्वभाव चाचाजी! अब आप कृपा करके यह बताने का कष्ट करें कि आपका शुभागमन किस निमित्त हुआ है?”

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

4 thoughts on “यशोदानन्दन -४१

  • Vijay Kumar Singhal

    एक प्रश्न और है- कृष्ण को तो उस समय तक यह पता ही नहीं था कि वे वास्तव में वासुदेव और देवकी के पुत्र हैं. फिर उन्होंने ऐसा कथन कैसे किया?

    • ब्रह्माजी एवं इंद्र के अहंकार के मर्दन के बाद भी क्या यह प्रश्न शेष रह जाता है कि कृष्ण को कैसे पता चला की वे देवकी-वसुदेव के पुत्र थे? लगता है अभी आप उन्हें साधारण मानव ही समझ रहे हैं. आधुनिक युग में भी विवेकानंद ने अपनी पुस्तक `राजयोग’ में स्पष्ट लिखा है की साधारण मानव भी अगर अपनी कुण्डलिनी को जागृत कर ले, तो वह त्रिकालदर्शी हो जाता है. श्रीकृष्ण तो अति मानव थे – सम्पूर्ण सिद्धियों से युक्त.

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लिखा है. लेकिन दो प्रश्न मन में उठे हैं-
    1. गोकुल से सभी लोग वृन्दावन आ गए थे, फिर कृष्ण और बलराम आदि गोकुल में क्यों रहते थे?
    2. गोकुल और मथुरा के बीच यमुना नदी बहती है. बिना किसी पुल के अक्रूर जी रथ से गोकुल कैसे पहुँच गए?
    कृपया इनका संधान करने का कष्ट करें.

    • १. श्रीकृष्ण जहाँ भी रहते थे, स्वयमेव वह गोकुल हो जाता था. गोकुल, वृन्दावन और व्रज को पर्यायवाची समझें.
      २. उस समय भी रथ को बड़ी नावों पर लादकर रथ पर बैठे-बैठे ही इस पार से उस पार जाया जाता था. लेकिन यह सुविधा आम नागरिकों के लिए नहीं थी. आज भी कार को नाव में लादकर नदी पार की जाती है. मेरा घर बिहार में है. यू.पी. के बलिया जिले और बिहार के बीच मांझी में विशाल चौड़ाई की सरयू नदी बहती है. सड़क-पुल के निर्माण के पूर्व कार से घर जाते समय मुझे कार को नाव में लादना पड़ता था.

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