संस्मरण

मेरी कहानी -16

आज सुबह टूथ ब्रश कर रहा था , तो शीशे में माथे पर पुरानी बचपन की चोट के निशाँ को देखा। मैं मन ही मन में मुस्कराया कि पहले कभी गौर ही नहीं किया , आज अचानक याद कैसे आ गई? जी हाँ , हर इंसान अपने में एक इतिहास छुपाये हुए है। पांच छ: वर्ष का ही हूँगा , जब मैं दोस्तों के साथ सारा गाँव घूम आता था। और इर्द गिर्द के गाँवों से हमारा गाँव काफी बड़ा है , आज तो यह मिनी शहर सा बन गया है। आहलुवालिओं के मोहल्ले में तो जाना आना लगा ही रहता था क्योंकि इस में बहुत सी दुकाने थीं , सोहन लाल डाक्टर की सर्जरी भी थी और उस के सामने ही मेरे दोस्त ज्ञान चंद के पिता जी हरीआ राम की दूकान थी जिस से हम कुछ न कुछ खाने के लिए लिया करते थे। इस के बाद हम कम्बो मोहल्ले में चले जाते और बाबा लखा सिंह को देखने चले जाते।

यह बाबा लखा सिंह हमेशा अपनी चारपाई पर ही बैठा होता था और कोई ना कोई मरीज़ उस के पास बैठा होता था । बाबा हड्डीओं का इलाज किया करता था। किसी की कलाई , किसी की पीठ किसी का घुटना , स्कूल के बच्चे जो खेल कूद से चोट लगा लेते थे , इलाज के लिए वहां आये ही रहते थे। बाबा जी के साथ एक और लड़का जसवंत सिंह हुआ करता था जो बाबा जी की मदद कराता और उन से यह काम सीखा भी करता था । बाबा जी शरीर को हाथों से मालिश करके बता देते थे कि हड्डी एक तरफ हो गई थी या सिर्फ मॉस ही फटा था। बाबा जी के पास दूर दूर से लोग आते थे लेकिन उन को कोई लालच नहीं होता था। किसी से पैसा नहीं मांगते थे , अगर कोई रूपैया दो रुपैये दे देता तो उस का परसाद बना कर संक्रात के दिन लोगों को बाँट देते थे , और इसी लालच के कारण हम वहां जाते ही रहते थे कि चलो बाबा जी से परसाद लें .

मुझे याद है एक दफा एक मरीज़ को किसी शहर से ले कर आये थे , उस के साथ एक डाक्टर भी था। डाक्टर ने पहले मरीज़ को बेहोश किया , फिर बाबा जी उस की पीठ को जोर जोर से मलने लगे , इस में जसवंत सिंह बाबा जी का साथ दे रहा था। बहुत लोग इक्कठे हो गए थे। बहुत देर मलने के बाद कलिक जैसी आवाज़ आई और बाबा जी ख़ुशी से झूम उठे और कहा , “लो हो गया “. इस के बाद पट्टिआं बाँध कर उस आदमी को धीरे धीरे कार में लेटा दिया गया। कहते थे कि कुछ दिनों बाद वोह शख्स ठीक हो कर खुद आया और बाबा जी को पैसे देने चाहे , मगर बाबा जी ने कहा कि वोह इस पैसे से किसी गरीब की मदद कर दे।

सुना था बाबा जी को जवानी के दिनों से ही इस काम से शौक था और यह भी सुना था कि बाबा जी रात के समय कब्रों से मुर्दे उठा कर अपने गन्ने के खेतों में ले आते थे और उस को चीर कर हड्डीआं देखा करते थे कि कौन सी हड्डी कहाँ जाती है। बाबा जी को शरीर का ज्ञान हो गिया था कि कौन सी हड्डी कहाँ कहाँ जाती है।

उस दिन भी संक्रांत थी और गुरु गोबिंद सिंह जी का जनम दिन था। रामगरीहा गुरदुआरे से जलूस निकलना था जो गाँव के इर्द गिर्द जाना था। मेरे पिता जी ने मुझे एक गीत याद करा दिया था जो मैंने जलूस में गाना था। मैं बाबा लखा सिंह जी से परसाद ले कर चल पड़ा। अभी कुछ दूर ही गया था कि कुछ लड़कों ने मुझे घेर लिया और मुझे गालिआं देने लगे। मैं चुप रहा क्योंकि मैं अकेला था। फिर वोह मुझे पीटने लगे। मैं भी तगड़ा होता था। मैं सब से भिड़ गिया , दो को तो मैंने नीचे गिरा दिया लेकिन कुछ और लड़कों ने मुझे जोर से धक्का दे दिया और मैं मुंह के भार ज़मीन पर गिरा और मेरा माथा एक बड़ी सी ईंट पर लगा। माथे से खून बहने लगा और मैं रोने लगा। सभी लड़के भाग गए। भाग्य से मेरा ताऊ रतन सिंह उधर ही आ रहा था। उस ने मुझे अपनी बाहों में लिटाया और डाक्टर सोहन लाल की सर्जरी ले आया। डाक्टर ने दुआई लगा कर पट्टी बाँध दी। इस के बाद ताऊ जी मुझे घर ले आये। घर आते ही माँ तो खफा हो गई कि ” मैं उन के घर वालों को उलाहना देने जाना है “. अचानक पिता जी भी आ गए और कहने लगे ” छोडो यह तो बच्चों का मामला है , बात को बढ़ाना ठीक नहीं “. माँ ने मुझे गर्म गर्म दूध दिया। फिर पिता जी मुझ से वोह गीत सुनने लगे जो मैंने जलूस में गाना था। मैंने सारा गीत सुना दिया।

यहां यह भी बता दूँ कि मेरे पिता जी गुरदुआरे में कीर्तन किया करते थे और बहुत अच्छा गाते थे। घर में वोह अक्सर फ़िल्मी गाने गाया करते थे। इन में कुछ अभी भी मुझे याद हैं। एक था ,” तू कौन सी बदली में मेरे चाँद है आ जा “, दूसरा था ,” रिम झिम बरसे बादरवा मस्त हवाएं आईं , पिया घर आजा आजा , पिया घर आजा “. जलूस की आवाज़ आने लगी थी और घर के सभी लोग जलूस में शामल होने की तैयारी करने लगे। जलूस गाँव के हर मोहल्ले में आधे घंटे के लिए ठहरता था। गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी एक पालकी में चार सेवादारों के कन्धों पर होती थी और पालकी के आगे पांच प्यारे हाथों में किरपान ले कर आगे जा रहे होते थे। रागी जथा एक छकड़े पर बैठा होता था जो लगातार तबले हारमोनियम के साथ शब्द पड़ रहा होता था। कभी कभी गिआनी जी माइक के सामने खड़े हो कर गुरु जी के सम्बन्ध में इतिहासिक घटनाएं बताते थे. फिर मेरा नाम भी लिया कि “काका गुरमेल आप को एक शब्द सरवण कराएगा “.

पिता जी ने हाथों से पकड़ कर मुझे छकड़े पर बिठा दिया। यह गीत ज़िंदगी में पहली दफा मैंने गाया था और इस गीत के कुछ बोल मुझे अभी तक याद हैं “, जो पंजाबी में इस पर्कार गुरु गोबिंन्द सिंह जी के बारे में हैं ,” फुल्लां ते सोने वाले , रोड़ां ते सो गए प्रीतम , जंग च मराये दो , नीहाँ च चनाए दो , पैरां चों लहू दे तुप्के कंडिआं ते सो गए प्रीतम “. बहुत लोगों ने मुझे रुपये दिए और शाबाश शाबाश की आवाज़ें आ रही थीं . मेरे माथे पर पट्टी बाँधी हुई और कुछ इतने लोगों को देख कर घबरा भी रहा था। मुझे नहीं पता कि मैंने अच्छा गाया या बुरा लेकिन मेरा यह पहला गाना और माथे की चोट कभी कभी उन दिनों की याद ताज़ा करा देती है।

चलता………….

26 thoughts on “मेरी कहानी -16

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय भमरा जी. आज आपके विवाह की वर्षगांठ एवं जन्मदिवस के शुभ अवसर पर हमारी आपको एवं बहिन जी को कोटिशः हार्दिक शुभकामनायें। ईश्वर करे आप दोनों सुदीर्घकाल तक स्वस्थ एवं आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करें और सदा स्वावलम्बी रहें। ईश्वर आपको और आपके परिवार को सदा सुखी व समृद्ध रक्खे।

  • विजय कुमार सिंघल

    मित्रो, आज भमरा भाईसाहब के विवाह की वर्षगाँठ है और इसी को वे अपना जन्मदिन भी मानते हैं। इसलिये उनको डबल बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    • विजय भाई , बहुत बहुत धन्यवाद . आज ७२ का हो गिया हूँ , बहुत लोग अपनी उम्र को छुपाते हैं लेकिन मुझे बताते हुए ख़ुशी होती है किओंकि मैं भगवान् का शुकर मनाता हूँ कि उस ने मुझे इतने वर्ष अपने परिवार के साथ जीने को दिए और आगे जो होगा वोह बोनस ही होगा . अभी अभी मेरे बेटे ने कहा है , “dad! you are a big boy now”. और सभी हंस रहे हैं . विजय भाई , आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद .

      • मनजीत कौर

        आदरणीय भाई साहब मेरी और से भी आप को जनम दिन और विवाह की सालगिरह की बहुत बधाई और शुभकामनाए

        • मंजीत बहन, बहुत बहुत धन्यवाद , आप के खूबसूरत कार्ड मिले , मन पर्सन हो गिया . भगवान् आप को अच्छी सिहत दे और हमेशा खुश रहें .

      • Man Mohan Kumar Arya

        आपके विचार पढ़कर मुझे भी एक प्रवचन में सुनी बातें याद हो आईं। एक भारतीय ने किसी अंग्रेज से पूंछा कि “आपकी उम्र कितनी है?” वह अंग्रेजी में बोला कि “आई एम २५ इयर्स ओल्ड।” फिर अंग्रेज ने भारतीय से पूछा “हाउ ओल्ड आर यू?” भारतीय ने प्रसन्न मुद्रा में कहा कि “आई एम सेवेंटी फाइव इयर्स यंग।” यह सुनकर सभी श्रोता खिलखिलाकर हंस पड़े।

        • मनमोहन भाई , आप का परवचन बहुत अच्छा लगा और हंसी भी आई .

          • Man Mohan Kumar Arya

            हार्दिक धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, यह किस्त पढकर आनंद आया।
    आपने जिन लखा सिंह का ज़िक्र किया है वैसे लोग पहले हर इलाक़े में एक दो होते थे। आजकल के फिजियो थेरापिस्ट तो उनके सामने बच्चे जैसे होते हैं। मुझे अपनी एक पड़ोसन मुसलमान महिला की याद आ गयी, जिसे हम चाची कहते थे। कई बार सिर पर बोझ ले जाते हुए मेरी गरदन में मोच आ जाती थी तो सिर घुमाना भी मुश्किल हो जाता था और बहुतदर्द भी होता था। तब मैं उस चाची के पास जाता था तो वह ज़रा सा सरसों का तेल गरदन पर लगाकर जाने किस तरह झटका देती थी कि गरदन तुरंत सही हो जाती थी। ऐसा कई बार हुआ था।

    • विजय भाई , आप ने बहुत सही कहा , मुझे भी बाबा लखा सिंह के पास दो दफा जाने की जरुरत पडी , मेरी एड़ी बिलकुल टेड़ी हो गई थी . पहले तो उन्होंने एक तेल मालिश करने को दिया कि एक हफ्ता इस से मालिश करो . इस को वह कच्ची करना कहते थे यानी वोह जगह नरम हो जाती थी . फिर मैं गिया और उन्होंने पैर को पकड़ कर एक झटका सा दिया और कहा जाओ ! बस कुछ दिनों में ही एड़ी ठीक हो गई . आप हैरान होंगे कि जिस जसवंत सिंह का मैंने जीकर किया है , बाबा लखा सिंह के मरने के बाद उस ने बहुत पैसा कमाया . फिर वोह कनेडा चला गिया , वहां तो उस ने टूर्नामेंटों के वक्त सपोर्ट्स इंजरी से बहुत धन कमाया . उस का एक लड़का हमारे साथ पड़ता था .मैट्रिक पास करने के बाद उस लड़के की टांग पर कोई बीमारी हो गई जिस को चम्बल कहते थे . जसवंत सिंह ने दुआई बना कर बेटे की टांग पर लगाईं जिस से उस को ज़हर चढ़ गिया और उस की मृतु हो गई . कहते थे कि उस दुआई में नीला थोथा बहुत था जिस को कॉपर सल्फेट कहते हैं . इसी के कारण हुई , कुछ कहते थे बाबा लखा सिंह की बददुआ लग गई किओंकि बाबा जी किसी से पैसा नहीं लेते थे और जसवंत सिंह का लालच हद्द से बड गिया था .

  • जवाहर लाल सिंह

    आदरणीय भमरा साहब, आज के दिन आपको बहुत बहुत बधाई और अभिनन्दन! मैं आपकी सभी किश्तें पढूंगा …माननीया लीला जी की पोस्ट पर आपकी प्रशंशा पढ़ मैं बहुत अभिभूत हुआ …वैसे पहले से ही आपसे परिचय तो था ही आपकी कई रचनाएँ मैंने इससे मंच पर पढ़ी भी है. आगे भी पढूंगा आप हम सबके प्रेरणास्रोत बनें यही कामना है ..सादर!

    • जवाहर भाई , आप ने वधाई भेजी , तहेदिल से आप के धन्यवादी हैं . लीलाबहन के संपर्क में आने से मेरी जिंदगी ही बदल गई , उन्होंने ही मुझे विजय भाई से संपर्क कराया . पिछले साल मार्च में मैं ने लीला बहन के ब्लॉग “आज का श्रवण” में भाग लिया था , बस उस के बाद तो हर रोज़ इन ब्लोगज से जुड़ गिया . आप की लेखनी को मैं बहुत रूह से पड़ता हूँ . एक दफा फिर धन्यवाद .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    आपके कहानी पढ़ते हुए मुझे अपने ललाट पर लगे चोट की याद हो आई ….. इस साल पटना-साहिब के गुरुद्वारे में बहुत बड़े जलसा की बात हो रही है …. आपकी लेखनी और आपको नमन …. शुभ संध्या

    • विभा बहन , आप को नमन . एक बात मैं कहूँगा कि आप इतना अच्छा लिखती है कि मन खुश हो जाता है . मैंने हिंदी दो तीन साल ही पडी थी , इसी लिए मेरे लेख में पंजाबिअत की झलक हमेशा दिखाई देगी . आप की लेखनी में इतनी गेहराई होती है कि पंजाबी होने के नाते मुझे दो तीन दफा पड़ने की जरुरत पड़ती है लेकिन छोड़ नहीं सकता . आप को नमन और शुभ रात्री .

  • मनमोहन भाई , वोह दिन ही ऐसे थे जिन्हें याद करके आनंद सा मिल जाता है . वोह दिन कभी वापिस तो आ नहीं सकते लेकिन उन दिनों को जितना डिटेल से लिख सकूँ , कोशिश करूँगा किओंकि यह लिखने में भी मुझे आनंद मिलता है . बच्पर हर एक को पियारा होता है . मुझे फ़ुटबाल का कम शौक था लेकिन वॉलीबाल बहुत खेलता था .पतंग भी उड़ाते थे जो खुद ही बनाते थे . एक कोने से दुसरे कोने तक जो डोर बांधते थे उस को उन्ग्लिओं मिनते थे , दूकान से रंग बरंगे हलके कागज़ लेते थे . हम शीशे को रगड़ कर बारीक करके आट्टे में मिला कर पतंग की डोर पर मल देते थे जिस से दुसरे लड़कों की पतंगों को काटते थे . वोह दिन भी किया थे !!!!!!!!!!!!!!!!!

    • Man Mohan Kumar Arya

      बचपन में मनुष्य निर्दोष और निष्पाप होता है। शायद इसीलिये बचपन की बातों में इतना सुख वा आनंद मिलता है। आप अपने बचपन की प्रत्येक बात को पूरे विस्तार से प्रस्तुत करें। इसका अपना अलग आनंद है। इससे आपकी संततियों को भी लाभ होगा कि हमारे नानाजी या दादाजी का बचपन इस प्रकार का रहा। बचपन में एक खेल और खेलते थे जिसे गुल्ली डंडा कहते हैं परन्तु आजकल बच्चे क्रिकेट खेलते हैं। एक खेल कबड्डी भी होता था। मैंने बहुत कम इसे खेला है परन्तु दूसरों को खेलते हुए देखकर आनंद लेता था। ऐसा ही एक खेल लूडो का भी होता है। यह भी हम बचपन वा किशोरावस्था में भी खेलते थे। हार्दिक धन्यवाद।

      • हा हा मनमोहन भाई , गुल्ली डंडा तो हम ने बहुत खेला और कबड्डी की बात याद हो आई , इतनी ज़िआदा तो खेली नहीं थी लेकिन जब मिडल सकूल में पड़ते थे तो डिस्ट्रिक्ट टूर्नामेंट में फगवारे के जे जे हाई सकूल में हमारा कबड्डी मैच हदीअबाद के सकूल से पड़ गिया . मैं तगड़ा तो था लेकिन कबड्डी में हुशिआरी की भी बहुत जरुरत होती है . मेरे शरीर को देख कर सभी हदीअबाद के लड़के आपस में बातें कर रहे थे . जब मैं कौड़ी देने गिया तो एक पतले से लड़के ने पीछे से मुझे पकड़ लिया , उस ने टांगों में टाँगें डाल दी थी , बस फिर कहाँ जाना था , पोआएन्त दे दिया . हमारा हैडमास्टर मुझे गुस्से हो रहा था लेकिन मैं भी किया करता मैं कबड्डी इतनी खेली ही नहीं थी . हाफ टाइम तक मैंने दो पोआएन्त ही लिए . आखिर में हम ने यह मैच हार दिया . अथ्लैतिक्स में मैंने शौर्ट पुट और जेवलियन में दो इनाम हासल कर लिए , तब जा कर हैडमास्टर का गुस्सा ठंडा हुआ . लुडो भी हम खेलते थे . वोह भी दिन थे .

        • Man Mohan Kumar Arya

          आपके कमेंट पढ़कर सोच रहा था तो बचपन में देखि एक हिंदी फिल्म का गाना याद आ गया। फिल्म का नाम था “दो कलियाँ”. अभिनेता व अभिनेत्री विश्वजीत वा माला सिन्हा थी। गाना है – “बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंक के तारे। ये वो नन्हे फूल हैं जो भगवन को लगते प्यारे।” यह फिल्म मैंने ४० साल पहले देखि थी और ये गाना मुझे अभी भी याद है। इसे मैंने अपने कंप्यूटर में भी सेव कर रखा है। यह कमेंट भेजने के बाद पुनः सुनता हूँ। आपको विवाह एवं जन्म दिन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनायें।

          • मनमोहन भाई , विवाह एवं जनम दिन के लिए शुभकामनाओं के लिए आभार . विस्वजित की फ़िल्में मैंने भी बहुत देखि थीं जैसे बीस साल बाद और ऐप्रल फूल .

          • Man Mohan Kumar Arya

            हार्दिक धन्यवाद।

          • मनमोहन भाई , अभी अभी मैंने वोह गाना बच्चे मन के सच्चे सुना . मुझे हैरानी इस बात की हुई इस में नीतू सिंह एक छोटी सी बची है और वोह गा रही है क्लास में . अब नीतू सिंह को देखें तो कुछ और ही दीखता है . कैसे समय बदल जाता है.

          • Man Mohan Kumar Arya

            आपने बच्चे मन के सच्चे गाना सुना, पढ़कर लगा। मैंने यह फिल्म सात बार देखी थी। तब मैं लगभग २० साल का रहा होऊंगा। जब इस गाने को सुनता हूँ तो अपने पुराने दिन और फिल्म की कहानी याद आ जाती है। मेरे जीवन की बेहतरीन फिल्मों में से एक फिल्म थी ये फिल्म। बीस साल बाद भी एक या दो बार देखी थी। अप्रैल फूल शायद नहीं देखी। एक गाना कुछ कुछ याद है, शायद इसी फिल्म का हो। “खुश है जमाना आज पहली तारीख है”, यह गाना १ अप्रैल को रेडियो सीलोन से हर वर्ष आता था। एक और गाना है “अप्रैल फूल मनाया तो उनको गुस्सा आया”, पता नहीं इन दोनों में से कोई अप्रैल फूल फिल्म का गाना है या नहीं? आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

          • मनमोहन भाई , यह गाना “ऐप्रल फूल बनाया ” ऐप्रेल फूल का ही है . इस फिल्म को देखे बहुत देर हो गई है लेकिन इस का गाना मैं अपने किबोर्ड पे गाया करता था . पुरानी फिल्मों का अपना ही एक मज़ा होता था . आज के गाने तो ज़िआदा तर मिऊजिक पर ही जोर दिया जाता है . मैं तो सहगल के भी सुनता हूँ और बेगम अख्तर की ग़ज़लें भी सुनता हूँ , मज़ा आ जाता है.

          • Man Mohan Kumar Arya

            हार्दिक धन्यवाद। यह आपके स्वभाव का गुण है कि आपके मन और लेखनी में साम्य व एकता है। आपके विचार पढ़कर मन प्रसन्न हो रहा है। में अप्रैल फूल फिल्म के इस गाने को डाउनलोड करके अभी सुनता हूँ। मुझे भी फिल्मे देखने और गाने गुनगुनाने का शौक रहा है। मुगले आजम के गाने बहुत अच्छे लगते थे। लता मंगेश्वर, मुकेश, किशोर कुमार और मुहम्मद रफ़ी एवं अन्य सभी मेरे पसंद के गायक रहे हैं। एक फिल्म गीत, झुक गया आसमान भी मुझे बहुत पसंद थी। बचपन में पिताजी के साथ असली नकली फिल्म देखी थी, यह मैंने डाउन लोड कर रक्खी है। इसके गाने भी दिल को छू लेते हैं।

          • मनमोहन भाई , कोई समय था हम को भी फिल्म देखने का बहुत क्रेज़ होता था , एक हंसी की बात लिखू , मैट्रिक के एग्जाम थे , पैराडाईज़ फगवारे में फिल्म लगी थी नया दौर . हम चार दोस्त फैसला नहीं कर पा रहे थे कि फिल्म देखें या ना किओंकि दुसरे दिन हिसाब का पेपर था . फिर एक ने कहा कि चलो टॉस पा लो . नए सिक्के अभी आये ही थे . एक ने कहा कि हैड जाना , टेल नहीं जाना . हम ने पांच दफा सिक्का ऊपर फैंका लेकिन हर दफा टेल ही आये . हम में से एक बहुत शरारती लड़का था , उस ने कहा , नहीं नहीं , एक दफा फिर टॉस पाओ , इस दफा हैड आ गिया , बस फिर किया था फिल्म स्टार्ट होने वाली थी , हम भागे .कुछ दूर जा कर वोह ही दोस्त कीचड़ में गिर गिया , उस का पजामा खराब हो गिया लेकिन उस ने पजामा उतारा , इकठा करके फिर भागने लगा , और बोला , कोई परवाह नहीं . जब हम सिनिमा पुहंचे तो अभी ऐद्वर्ताइज़्मैन्त ही स्टार्ट हुई थी . हम ने वोह फिल्म इस तरह देखि और कभी भूली नहीं .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय महोदय श्री गुरमेल जी। आज की किश्त पढ़कर आनंदित हुआ। आपने सभी घटनाओं को सरल शब्दों में व्यक्त किया है जिसे पढ़ते ही बनता है। पूरी तस्वीर स्पष्ट समझ में आ गई। किसी विषय के निर्दोष या निर्भ्रांत ज्ञान को साक्षात्कार कहते है ऐसा ही लेख में वर्णित विषयों का साक्षात ज्ञान हुआ। आपको बधाई और धन्यवाद। बचपन में मैं भी स्कूल के बच्चों से लड़ा भी और एक आध बार पिटा भी। बचपन में मैं पतंग उड़ने वालों को देख कर रोमांचित होता था। उनके पास खड़ा होकर कभी उनको, कभी उनके हाथो, चरखी पकड़ने वालों को तो कभी पतंगों के पेंचों को देखा करता था। यह जनून कई वर्षों तक रहा था। फुटबॉल का भी शौक था। खेलने का भी और देखने का भी। आपके बचपन के साथ अपना बचपन भी याद आ रहा है।

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