आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 38)

जापान में पहली बार मैं रेल में तब चढ़ा जब हमें तुकूबा जाना था। करीब 11 बजे हम रेलवे स्टेशन पहुँचे। वहाँ से टिकट लेकर गाड़ी में बैठ कर चले। उससे पहले ही हमने रेलवे स्टेशन से अपने लिए खाने पीने की चीजें खरीद ली थी। मैंने एक तरह की चिप्स तथा सैण्डविच खरीदे। साथ ही दो गिलास पानी भी पैक करवा लिया (जी हाँ, पानी)। मेरे दुर्भाग्य से सैण्डविचों में मीट दिखायी पड़ गया। इसलिए मैंने वे श्री हिरानो को दे दिये। केवल चिप्स खाकर और दो गिलास पानी पीकर मैंने अपना काम चलाया।

करीब 1 बजे हम तुकूबा स्टेशन पर उतरे। वहाँ से टैक्सी में विज्ञान नगर गये। वहाँ पहले हमने फोटो खिंचवाये। कैमरा तब भी मेरे पास नहीं था। श्री हिरानो ने ही ज्यादातर फोटो खींचे। तभी उस सेंटर की एक देवी जी, जिनकी उम्र लगभग 50 के आस पास रही होगी, हमें लेने आ गयीं।

सबसे पहले हम एक विभाग में पहुँचे, जहाँ एक सज्जन मुख्य शोधकर्ता हैं। वे कम्प्यूटर साॅफ्टवेयर में जापानी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग पर शोध कर रहे हैं और एक विलक्षण तरीके से अंग्रेजी से जापानी तथा जापानी से अंग्रेजी में अनुवाद पर भी शोध कर रहे हैं। उनका विषय मेरी रुचि का था, इसलिए मैंने बड़ी दिलचस्पी से सब देखा।

उसके बाद हमें एक वीडियो फिल्म दिखायी गयी, जिसमें विज्ञान नगर की विद्युत तकनीकी प्रयोगशाला (Electro Technical Laboratory) में चल रहे शोध कार्यों का परिचय दिया गया था। वहीं पर सुपर कन्डक्टरों पर कार्य हुआ है और चल रहा है, जिनके कारण सुपर कम्प्यूटर अस्तित्व में आये हैं। वहाँ कई ऐसे-ऐसे शोध कार्य भी चल रहे हैं जहाँ तक पहुँच पाने में भारत को अभी 50 साल और लगेंगे। वहाँ के डायरेक्टर साहब से भी हमारा परिचय हुआ।

करीब 3 बजे हम वहाँ से विदा हुए। दो टैक्सियों में फिर स्टेशन आये और लगभग 5 बजे टोकियो पहुँच गये। रास्ते के दृश्य हमारे यहाँ जैसे ही थे। अन्तर केवल प्रगति का है। हमारे यहाँ झोपड़ियाँ और पशु दिखायी पड़ते हैं, जबकि यहाँ कारखाने, मशीनें और कारें जगह-जगह दिखायी पड़ती हैं। खेत भी हैं, जो सब आयताकार होते हैं और काफी हरियाली भी है।

करीब 9 बजे हम अपने होटल में आये। रास्ते में कुछ खाने की चीज भी खरीदते लाये, जिसे खाकर हम सो गये। अगले दिन हमें 8 बजे जाना था।

24.10.1990 (बुधवार)

इस दिन हमें एक कांफ्रेंस में जाना था, जो दिन भर चलनी थी। श्री हिरानो 8 बजे आ गये। आज थोड़ी बारिश हुई थी। इसलिए हमने होटल से प्लास्टिक का एक-एक छाता उधार ले लिया कि क्या पता कब दुबारा बरसना शुरू हो जाये। इस बार हमें टोकियो की सब-वे रेलवे से जाना पड़ा। यह अनुभव मजेदार रहा। ढेर सारी जापानी लड़कियाँ और लड़कों को नजदीक से देखा। सब अपने-अपने में मस्त। यहाँ लोग बातें कम करते हैं। ज्यादातर चुपचाप पढ़ते रहते हैं या ऊँघते रहते हैं। हाँ कुछ लड़के-लड़कियों के जोड़े जरूर गुफ्तगू में व्यस्त दिखे। यहाँ की लड़कियाँ काफी सुन्दर लगती हैं। पाउडर लिपस्टिक सबके चेहरे पर पुता होता है, परन्तु अश्लीलता बिलकुल नहीं। लड़कियाँ पूरे कपड़े पहनती हैं। कोई-कोई जोड़ा कमर में हाथ डाले भी मिल जाते हैं, पर ऐसे कम होते हैं।

यहाँ की लड़कियां भारत की लड़कियों की तरह ही शर्माती हैं। एक-दो बार मैंने जान-बूझकर किसी सुन्दर लड़की की ओर ध्यान से देखा, तो वह बुरी तरह शर्मा गयी और मुँह फेर लिया। विदेशियों की ये मदद खूब करते हैं, परन्तु अपनी ओर से ज्यादा ध्यान नहीं देते। यहाँ लड़के-लड़कियाँ दोनों बहुत सिगरेट पीते हैं। नयी सभ्यता की और भी सभी बुराइयाँ यहाँ हैं, परन्तु औसत लड़के-लड़कियाँ नशा नहीं करते। शराब कम लड़कियाँ ही पीती हैं।

करीब 9 बजे हम उस बिल्डिंग में पहुँच गये, जहाँ कांफ्रेंस होनी थी। यह बिल्डिंग शायद टोकियो की सबसे महँगी कांफ्रेंस की जगह है। इसे तेपिया (TEPIA) पैवेलियन कहते हैं। ऊपर एक बड़ा हाॅल है, जिसमें स्टेज, पर्दा, लाइट, माइक आदि की सब नयी से नयी सुविधाएँ हैं। नीचे रेस्तरां हैं, जहाँ काफी महँगा खाना मिलता है।

सबसे पहले हमने अपनी छतरियाँ नीचे रखी। यहाँ ऐसे ताले बने हुए हैं जिनमें आप अपनी छतरी फँसा कर ताला लगा सकते हैं और ताली ले जा सकते हैं। बाद में जब आप लौटें तो वही ताली उसी जगह लगाकर अपना छाता निकाल लें। प्रत्येक ताले-ताली पर नम्बर पड़े हुए हैं इसलिए भूल की कोई गुंजाइश नहीं और न चोरी का डर। वैसे यहाँ छातों की चोरी भी कोई करता नहीं।

कांफ्रेंस का दृश्य अन्य कांफ्रेंसों जैसा ही था, जिनमें मैं पहले भी अनेक बार भाग ले चुका हूँ। अन्तर केवल तकनीक का था। प्रत्येक श्रोता को एक रेडियो जैसी मशीन दी गयी थी, जिसका एक तार कान में लगा लेते हैं। उससे आप वक्ता का भाषण आराम से सुन सकते हैं। इसमें 9 चैनल भी थे। यह शायद ऐसी कांफ्रेंसों के लिए होता है जिनमें कई भाषाओं में कार्रवायी चल रही हो। वक्ता चाहे किसी भी भाषा में बोल रहा हो आप अपने चैनल पर अपनी ही भाषा में उसका अनुवाद उसी समय सुन सकते हैं। ऐसा इस प्रकार सम्भव होता है कि प्रत्येक वक्ता का भाषण पहले से तय तथा छपा हुआ होता है और उसके अनुवाद भी उपलब्ध कराये जाते हैं। यह मशीन मेरे किसी काम की नहीं थी, इसलिए मैंने उसे उठाकर एक तरफ रख दिया। जिस सीट पर मुझे बैठाया गया था, उसके सामने वाली मेज पर मेरे नाम की तख्ती रखी थी, क्योंकि मैं विशेष आमन्त्रितों में से एक था।

कांफ्रेंस का मुख्य विषय था- ‘एशिया के देशों में सूचना तकनीक के मानकीकरण की योजनाएं’। एशिया के अनेक देशों को इसमें अपने अपने देश की स्थिति की रिपोर्ट पेश करनी थी। इनमें से भारत का प्रतिनिधित्व नेशनल इन्फोर्मेटिक्स सेन्टर के संयुक्त निदेशक श्री वी.के. गुप्ता ने किया था। उनका प्रस्तुतीकरण सन्तोषजनक था। अन्य देशों में दक्षिण कोरिया तथा जापान का प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा था। वैसे यह सारी कार्रवाई उबाऊ थी, क्योंकि सबके छपे हुए भाषण सामने रखे थे। उन्हें सुनना या देखना कम से कम मेरे लिए तो बहुत उबाने वाला था। किसी तरह मैं इसे झेल गया।

साढ़े बारह बजे दोपहर के खाने का समय हुआ। सबके लिए मांसाहारी भोजन आया। मेरे लिए चावल तथा सूखी सब्जी बनी एक प्लेट आयी। सब्जी में अनेक तरह की सब्जियां- भिण्डी, बैगन, गोभी, कुकुरमुत्ता (मशरूम), टमाटर तथा एक-दो चीजों के नाम मैं जानता नहीं, वगैरह थे। मैंने चावलों के साथ सब खाये। इससे पहले दिन शाम को मैंने कुछ खास नहीं खाया था, इसलिए काफी भूखा था। एक प्लेट खाने के बाद मैंने थोड़ा सा और खाने की इच्छा व्यक्त की, तो पता चला कि वह सब्जी अब खत्म हो गयी है। मेरे सामने मीनू लाया गया। मैंने उसमें से वेजीटेबिल करी तथा चावल मंगाये, जिनकी कीमत थी मात्र 1200 येन अर्थात केवल 160 रुपये, जो कि हमारे यहां 10 रुपये से ज्यादा की नहीं होगी। जब वह आया तो मुझे लगा कि इतनी सारी मैं नहीं खा पाऊंगा, परन्तु श्री हिरानो ने कहा कि खूब पेट भर कर खा लो। मैंने ऐसा ही किया। वह काफी स्वादिष्ट था, इसलिए खूब खाया। फिर भी थोड़ा सा बच ही गया।

खाने के बाद फिर दूसरा सत्र चालू हुआ। इस बार विचारणीय विषय था ”एशियाई भाषाओं का मानकीकरण तथा कम्प्यूटरों में उनका अधिक से अधिक उपयोग“। इसमें अनेक देशों ने भाग लिया था, परन्तु दुःख है कि भारत की ओर से कोई नहीं आया। यह विषय मेरी गहन रुचि का है और वास्तव में मेरा लेख इसी विषय पर था। इसलिए मैंने इस सत्र के सभी भाषणों को खूब ध्यान से पढ़ा। थाई, कोरियाई, चीनी, सिंहली आदि अत्यन्त जटिल भाषाओं और लिपियों में इस दिशा में काफी कार्य किया गया है। मुझे लगा कि देवनागरी तथा अन्य भारतीय लिपियाँ तो इनसे कहीं ज्यादा सरल हैं। उनमें तो और भी अच्छा परिणाम प्राप्त किया जा सकता है। मैंने यह तय किया कि और कोई करे या न करे मैं तो इसी विषय पर गहन शोध करूँगा। मैंने इस बारे में योजना भी बनायी है।

करीब 5.30 बजे यह कांफ्रेंस पूरी हुई। 6 बजे से 8 बजे तक खाने का प्रोग्राम था। इस समय मुझे ज्यादा भूख नहीं थी और सारा खाना माँसाहारी था। इसलिए मैंने श्री हिरानो को कष्ट न देकर केवल फल तथा सब्जियों का सलाद खा लिया, जिनसे मेरा पेट खूब भर गया।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 38)

  • विजय भाई , पहले तो आप को इस बात की मुबारकवाद दूंगा कि आप को जापान की मॉडर्न टैक्नोलोजी को नज़दीक से जान्ने का अवसर मिला और इन कान्फ्रंसों में शिरकत करना आप के हिस्से में आया जिस के आप हक्कदार भी थे , और यह भारत के लिए भी फखर की बात है . दुसरे आप ने यह भी देखा है कि बाहिर के देशों में मीट ही मेंन मील है . कुछ लोग मीट नहीं भी खाते लेकिन ज़िआदा लोग मीट ही खाते हैं . मैं इंडिया में मीट का इतना इच्छुक नहीं था लेकिन यहाँ आ कर यह जिंदगी का हिस्सा हो गिया . कई दफा मैं सोचता हूँ कि दिनबदिन इतनी उन्ती हो रही है , नए नए कारखाने , ऊंची ऊंची इमारतें , खेती की ज़मीन घटती जा रही है , कहीं इंसान भूखा न मरने लगे किओंकि जीना तो खुराक से है नाकि मैशिनों से .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. मैं स्वयं मांस नहीं खाता, लेकिन किसी को खाने से मना भी नहीं करता. यह अवश्य है कि शाकाहारी भोजन तन और मन के स्वास्थ्य के लिए सबसे श्रेष्ठ है. मनुष्य शरीर की रचना शाकाहारी भोजन को पचाने के लिए ही की गयी है. वैसे अपनी अपनी इच्छा.
      आपका यह कहना सही है कि केवल मशीनों से मनुष्य का पेट नहीं भर सकता. उसके लिए खेती हेतु पर्याप्त जमीन होना अनिवार्य है. लेकिन जो लोग प्रगति की अंधी दौड में शामिल हैं वे इस बात को नहीं समझ सकते. पश्चिम में बहुत भौतिक उन्नति है, परन्तु वहां शान्ति नहीं है. भारत में जहाँ प्रगति कम है अपेक्षाकृत अधिक शान्ति है. कभी कभी यह शान्ति कुछ दुष्ट लोगों के कारण भंग हो जाती है. फिर भी कुल मिलाकर लोग संतुष्ट हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त रोचक एवं अनुभव देने वाली है। जापान की भौतिक वैज्ञानिक उन्नति की जानकारी के साथ वहां शाकाहारी भोजन की समस्या के बारे में भी ज्ञान हुआ। आपने अपने इच्छित विषय पर भी कांफ्रेंस में विदेशी विद्वानो के विचारों को सुना। इससे निश्चित ही आपको लाभ हुआ होगा। मुझे लगता है कि “अति सर्वथा वर्जयेत” के अनुसार बहुत अधिक भौतिक उन्नति भी जीवन के लिए उचित नहीं है क्योंकि इससे पर्यावरण] वायु एवं जल प्रदुषण से भी दो चार होना पड़ता है। स्वास्थ्य भी इससे कुप्रभावित होता है और ईश्वर एवं धर्म कर्म छूट जाता है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर ! आपका कहना सत्य है. भौतिक उन्नति ही सब कुछ नहीं है.

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