गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

क़ैदी हूँ  क़फ़स  का  मैं  भरपूर  बहारों  में
मुँह खोल नहीं सकता, कहता हूँ  इशारों में

ग़ैरों ने मुहब्बत की, अपनों ने किया धोखा
होती है  मेरी गिनती  तक़दीर के  मारों में

इस रहगुज़र से जाना ही छोड़ दिया उसने
आयेगी  कमी  कैसे  रिश्तों  की  दरारों  में

ये बादे-सबा भी अब  बेजान सी लगती है
पाई  न  कशिश  कोई   पुरनूर  नज़ारों   में

तहज़ीब जब आई तो अंदाज़े-सुख़न  बदला
होता है शुमार उसका  अब नग़मा-निगारों में

अन्जान हैं मंज़िल से, जाना है  कहाँ किसको
लेकिन  हैं खड़े  सब ही  बे-रब्त  क़तारों  में

किस राह  उन्हें  ढूँढ़ें, किस शहर  उन्हें  ढूँढ़ें
रूपोश   हुए  हैँ   जो   गुमनाम  सितारों  में

हम  दीप  जलायेंगे   क़ब्रों पे  शहीदों  की
जाँबाज़  जो सोये हैं  सुनसान  मज़ारों  में

पतवार, न  माझी  है, मझधार में  कश्ती  है
अटकी  हैं  मेरी  आँखें  उन  दूर  किनारों में

ऐ ‘भान’ तेरे दिल के  भीतर है  ख़ुदा- ईश्वर
मत  ढूँढ़ उसे  मंदिर, मस्जिद के  मिनारों में

उदयभान पाण्डेय ‘भान’

उदय भान पाण्डेय

मुख्य अभियंता (से.नि.) उप्र पावर का० मूल निवासी: जनपद-आज़मगढ़ ,उ०प्र० संप्रति: विरामखण्ड, गोमतीनगर में प्रवास शिक्षा: बी.एस.सी.(इंजि.),१९७०, बीएचयू अभिरुचि:संगीत, गीत-ग़ज़ल लेखन, अनेक साहित्यिक, सामाजिक संस्थाओं से जुड़ाव

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल।

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