बाल कविता

ग़ुब्बारे वाला

बचपन में एक झोले वाला

मुझको बड़ा रिझाता था
हाथों में बांसुरी लिए
मधुर तान सुनाता था
सुरम्य रसीली बंसी की धुन पर
हर बालक सम्मोहित था
जब जब तान बंसी की सुनता
मन उल्लास से भरता था
न पाकर उसको गली मे
मैं बहुत डर जाता था
बांछ बांछ खिल जाती मेरी
जब वो मुझको दिख जाता था
झौले में भरकर वो अपने
रंगीन गुब्बारे लाता था
मैं मां आंचल को पकड़कर
मांग वही दोहराता था
एक रुपया दे दो मां
राग यही फिर गाता था
रंग बिरंगे गुब्बारे पाकर
मन बहुत हर्षाता था
एक रुपया पाकर तब
बूढ़ा बाबा मुस्काता था
एक रुपये मे जाने उसको
ऐसा क्या मिल जाता था
बचपन में एक झोले वाला
मुझको बड़ा रिझाता था
मधुर परिहार