बाल साहित्य

बाल पत्रिका: ‘बाल प्रहरी’ के बहाने

बच्चों की त्रैमासिक पत्रिका बाल प्रहरी जल्दी ही अपने प्रकाशन के बारह वर्ष पूरे कर रही है। सबसे पहले संपादक सहित इस पत्रिका से जुड़े रचनाकारों और बच्चों को बधाई देनी आवश्यक है। यह सोचने पर ही मन रोमांचित होता है कि जब इस पत्रिका का प्रवेशांक निकला होगा तब आठ साला बच्चें आज भारत के नागरिक हो चुके होंगे। यानि उन्हांेने पहला मत देने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त कर लिया होगा।

अब यह तो शोध का विषय हो सकता है कि प्रवेशांक से लेकर अब तक प्रकाशित बाल प्रहरी की रचना सामग्री ने कितने बच्चों की जीवन धारा ही बदल दी होगी। या यह भी कि यदि वे बच्चे बाल प्रहरी न पढ़ते तो क्या उनके समग्र व्यक्तित्व के निर्माण की स्थिति कुछ ओर न होती? यह भी संभव है कि बाल प्रहरी में लिखते-लिखते कुछ बच्चे अब काॅलेज की पत्रिका और पत्र-पत्रिकाओं में भी लिख रहे होंगे।

मैं याद करता हूं तो पाता हूं कि मेरे पास कमोबेश बाल प्रहरी का प्रत्येक अंक संग्रहीत होगा। कुछ दिनों से मैं लगातार इस पत्रिका के बारे में सोच रहा था। मेरे मन-मस्तिष्क में बाल प्रहरी को लेकर कुछ खूबियां कौंध रही हैं। सबसे पहले तो मैं उन्हें बांटना चाहूंगा।

  • एक तो पिछले 11 वर्षों में बाल प्रहरी ने फौरी तौर पर बच्चों की दुनिया को समझने वाले रचनाकारों को एक मंच दिया है। ऐसा मंच जो बगैर किसी धड़े और लाग लपेट के सहजता से हर किसी को अपनाता है। आवरण सहित 52 पृष्ठों में किसी न किसी तौर पर रचनाकारों को-बच्चों को स्थान मिलता है।
  • यह भी कि शायद ही किसी बाल रचनाकार को और रचनाकार को बाल प्रहरी ने निराश किया होगा। नवीनतम अंक में नहीं तो आगामी अंकों में रचना छप जाने के प्रति हर रचनाकार आश्वस्त सा रहता ही है।
  • हर अंक में लगभग 100 रचनाकारों (बच्चे भी रचनाकार हैं।) को पत्रिका में स्थान मिलता है। विभिन्न प्रतियोगिताओं से पढ़ाकू बच्चे और उनके अभिभावक जुड़ते हैं। बड़े अपने मित्रों को बतातें फिरते होंगे कि हमारी रचना बालप्रहरी में छपी है और बच्चों के अभिभावक फूल न समाते होंगे कि उनके बच्चे पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे है।

अब मैं आता हूं बाल प्रहरी पिछले दस सालों में यदि कुछ कड़े नियम अपनाती, कुछ ठोस मानदण्ड बनाती, पत्रिका को एक खास स्थान देने के लिए लीक से हटकर प्रकाशन की योजना पर काम करती, तो कुछ विशिष्ट स्थान पत्रिका का बन जाता।

रचनाकारों से- खुद को शामिल करते हुए और खुद भी अपने पर लागू करना चाहूंगा। बालप्रहरी को टटोलते हुए पाया कि अक्सर इसको भेजी गई रचना या तो छपी-छपाई होती है या फिर जिसकी कहीं कोई उम्मीद न छपने की हो, उसे हम लोग बाल प्रहरी में भेजते हैं? ऐसा क्यों? ऐसा भी नहीं है कि छपी-छपाई सामग्री को नहीं भेजा जाना चाहिए। लेकिन पता नहीं क्यों? मुझे अधिकतर अंकों में रचनाएं लचर लगीं। अब संपादक जी ने तो इसलिए छाप दी कि कहीं मनोहर बुरा न मान जाए। एक तो तीन महीनें तक इंतजार करो और भी अंक में स्थान न मिले।

मैं मानता हूं कि हर पत्रिका संपादक के बिना भी छप सकती है। जैसे भी छपेगी पर छपेगी। लेकिन कोई भी पत्रिका बिना रचनाकारों ने नहीं छप सकती। एक सामान्य पत्रिका है। वह अपने यहां तैनात कार्मिकों से ही रचनाएं तैयार कर लेते है। इंटरनेट से काफी पेस्ट कर लेते हैं। छप रही है। बिक रही है। लेकिन स्तर लगातार घट रहा है। हम भले ही बाल प्रहरी को साल में एक रचना भेजे। लेकिन वह ऐसी हो जिसे हम स्वयं भी दमदार, असरदार और भरपूर प्यार करते हों।

मैं नीचे कुछ रचनाओं का उल्लेख बगैर उस रचनाकार का नाम लिए बिना करना चाहूंगा, जो मुझे एक पाठक के तौर पर भी और बच्चों के लिहाज से भी लचर और कम प्रभावशाली लगी। मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि यह आलेख मेरा निजी है। नितांत अपने अनुभव के आधार पर है। इसका मकसद किसी को आहत करना भी नहीं है। हां मैं इतना चाहता हूं कि यह पत्रिका 11 के बाद 21 फिर 31 ही नहीं 111 वे वर्ष में भी प्रवेश करे। सो मेरे मन की बात को सकारात्मक दृष्टिकोण से लेंगे तो मुझे भी प्रसन्नता होगी।

बहुत से रचनाकार अभी भी पशु-पक्षियों की कहानियों में ही अटके पड़े हैं। मैं भी अभी तक पशु-पक्षियों पर आधारित कहानियां लिखने के फारमेट से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं। इसे जितना जल्दी हो सके हमें बदल देना चाहिए। हां। इसका मतलब यह नहीं कि पशु -पक्षियों की कथाएं ही न लिखी जाएं । लेकिन आशय मात्र इतना है कि या तो उनकी मूलतः जो आदतें और व्यवहार हैं जो वे कर सकते हैं। उस पर आधारित हों तो चलेगा। मैं अपनी बात कहता हूं। मेरा साढ़े तीन साल का बेटा एक दिन मेरे द्वारा सुनाई जा रही कहानी पर बीच में ही मुझे टोकता है और कहता है कि पेड़ बोलते कहां हैं। उसने कैसे चिडि़या के थप्पड़ मार दिया। मैं अवाक्। हां बंदर और चिडि़या वाली एक कथा है। जिसमें बंदर बाद में चिडि़या का घोंसला तोड़ देता है। भले ही उन दोनां में कथाकार ने संवाद दिखाए है लेकिन बंदर ऐसा कर सकता है वह चिडि़या का घोंसला तोड़ सकता है। मैं यह भी नहीं कहता कि अमूर्त चीज़ों में मानवीकरण नहीं किया जा सकता। लेकिन तभी जब दूसरा कोई विकल्प नहीं हो। ऐसा करना जरूरी हो। हर कथा को अति काल्पनिकता की चादर से क्यों कर ढका जाए?

बाल पत्रिका में बहुत सारा घाल-मेल दिखाई पड़ता है। हो सकता है यह मात्र मेरी दृष्टि हो। कई पाठकों को यह बहुत पसंद आ सकती है। मैं खुद भी कहता हूं कि शायद ही कोई दूसरी पत्रिका होगी जो बच्चों के लिए और बच्चों को इतना सारा स्थान देती हो। मैं आंचलिकता का पक्षधर हूं। लेकिन इस पत्रिका में आंचलिकता को भी बच्चों के स्थाई स्तंभ में शामिल किया जा सकता है। मैं तो यह कहूंगा कि बच्चों के लिए यानि जिन 10 या 12 जो भी तय हो, उनके रचनाकार बच्चे ही हों। वह पत्रिका के आरंभिक एक चैथाई पेज हो सकते हैं। मध्य के हो सकते हैं। या फिर अंत के हो सकते हैं। एक चैथाई हिस्से से इतर सारे पेजों पर सामग्री बच्चों के लिए हो लेकिन उसे बड़े तैयार करें। इससे जो यह कहते हैं कि बालप्रहरी अभी तक अपनी दिशा भी तय नहीं कर पाई है, उनका मुंह बंद हो जाएगा। वे दस या बारह पेज जिनमें बच्चों की लिखी रचनाएं,पेंटिंग आदि होंगी, उनसे साफ झलकेगा कि बच्चे कैसा लिख रहे हैं। क्या लिख रहे हैं। बच्चों की रचनात्मकता, प्रतिस्पर्धा, सृजनात्मकता, साहस आदि सब कुछ यहां आ जाए।

समग्रता के साथ देखें तो बाल प्रहरी में लगभग 30 पेजों में गुणवत्तापरकएमननीयएअथपूर्ण रचना सामग्री को स्थान दिया जा सकता है। लेखों का प्रतिशत कम किया जाना चाहिए। आखिर यह बाल पत्रिका बच्चे क्यों पढ़ेंघ् यह सोचना होगा। क्या हम इसे भी ज्ञान की पत्रिका बनाना चाहते हैंघ् सूचनात्मक जानकारी देना पत्रिका का मकसद हैघ् क्या पाठ्य पुस्तकें और अंतरजाल सूचनाओं और ज्ञान का खज़ाना नहीं रह गई हैंघ् क्या बाल पत्रिका भी बच्चों में एक ओर ऐसी सामग्री परोस कर देने वाली पत्रिका बन रही हैए जिसे बच्चे अपनी स्कूूली शिक्षा का हिस्सा समझे.

कुछ पत्रिकाएं रचना सामग्री की प्रासंगिकता पर बहुत ध्यान देती हैं। उनका अधिकतर ध्यान इस बात पर रहता है कि किस तरह की सामग्री को कितना स्थान देना है। वह रचनाओं के उनके रचनाकार के कद से कभी नहीं छापते। वह अप्रासंगिक विषयों पर आई रचनाएं चाहे कितने बड़े लेखक ने भेजी हो, नहीं छापते तो नहीं छापते।

आज जरूरत इस बात की है कि अपरिहार्य स्थिति को छोड़कर आम तौर पर भाग्यवादी रचनाएं जो भाग्य को स्वीकार करती हैं, उन्हें हतोत्साहित किया जाए। राजा-रानी का आधार मानकर बुनी रचनाओं को अधिकतर हतोत्साहित किया जाए, बशर्ते कहानी में राजा-रानी को पात्र न बनाया जाए तो कहानी कहानी नहीं होगी। इसी तरह भूत,प्रेत,चुड़ैल,डायन आदि को अधिक स्पेश देती हुई कहानियों को अब हतोत्साहित किए जाने की महती आवश्यकता है। आखिर हम क्यों कर नहीं सीधे बच्चों की दुनिया से ही पात्र उठाएं। बच्चो की वास्तविक दुनिया के इर्द-गिर्द कथावस्तु रखें।

मैं मानता हूं कि जब भले ही पत्रिका अव्यावसायिक नहीं है, तो क्या हुआ? मुनाफा नहीं कमाया जा रहा है, बाकी सभी श्रम तो पत्रिका में लग ही रहा है। वह भी पाठक तक पहुंचने से पहले उतनी उर्जा खर्च करवा रही है जितना कोई प्रतिष्ठित या व्यावसायिक पत्रिका। तब क्यों नहीं आवरण से लेकर कागज और छपाई तक की गुणवत्ता को ध्यान में रखा जाए।

बाल प्रहरी को लें तो फोन्ट तो अच्छा है लेकिन शायद यह बोल्ड किया हुआ है। या वह बुनावट में मोटा है। हां फोन्ट का आकार सही है। पाठक इसके आवरण पर अब अत्याधुनिकता का असर देखना जरूर चाहेंगे।

मेरी तरह यदि आप भी कुछ अंकों पर सरसरी निगाह डालेंगे तो संभव है आप भी मेरी कुछ बातों से सहमत होंगे। मसलन जुलाई-सितम्बर 2009 का अंक देंखे तो पाते हैं कि इसमें कुल 12 कहानियों को और 21 कविताओं को और 05 लेखों को स्थान मिला है। जैसा पहले भी कहा गया है कि आवरण सहित 52 पृष्ठों में यह विधाएं ही अधिकतर अंकों में स्थान पाती हैं। डायरी,संस्मरण,बाल नाटक,रिपोर्ताज,यात्रा संस्मरण (बच्चों द्वारा लिखित) को भी खूब जगह दी जा सकती है। इसी तरह जनवरी-मार्च 2008 के अंक में 09 कहानियां,19 कविताएं,06 लेख प्रकाशित हुए हैं। अप्रैल-जून 2012 के अंक में 10 कहानियां,23 कविताएं और 08 लेख प्रकाशित हुए हैं। जनवरी-मार्च 2013 के अंक में 09 कहानियां, 28 कविताएं और 05 लेख प्रकाशित हुए हैं। जुलाई-सितम्बर 2014 के लेख में 8 कहानियां, 24 कविताएं और 11 लेख छपे हैं। इसी तरह अक्तूबर-दिसम्बर 2014 के अंक में 07 कहानियां, 21 कविताएं और 15 लेख प्रकाशित हुए हैं। आंकड़ों के हिसाब से यह रचनाकारों को स्थान देने के मामले में रोचक है। लेकिन यह सभी रचनाएं क्या बच्चों के लिहाज से और विधा के हिसाब से गुणवत्तापरक है? क्या अधिकतर पाठकों के मन में पैठ बनाने के लिए मुफीद हैं? मुझे नहीं लगता कि संपादक जी को यदि कोई रचना बतौर संपादक अच्छी नहीं लगी और बालमन के अनुसार भी जमी नहीं तो वह कड़ा निर्णय लेकर उसे प्रकाशनार्थ अस्वीकृत कर देते होंगे। जनसहयोग से प्रकाशित और सबको जोड़कर साथ ले चलने की भावना के तहत ऐसा करना मुश्किल होता होगा। लेकिन कल जब बालप्रहरी का मूल्यांकन होगा। होना ही है, तब पत्रिका किस तरह से निकल रही है? कैसे निकल रही है? यह बातें गौण हो जाएंगी और पत्रिका में छपी रचनाओं के आलोक में पत्रिका की रेटिंग होगी। मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि अच्छी रचना क्या होती है और बुरी रचना क्या होती है? लेकिन नए भाव-बोध-सौन्दर्य तथा बच्चों की दुनिया से जुड़ी रचना भला किसे पसंद न आएगी? मुझे लगता है कि बाल प्रहरी के साथ-साथ अधिकतर पत्रिकाओं में आज भी चालीस साल से चले आ रहे प्रतीकों,शीर्षकों यहा तक कि रचनाओं में निहित कथ्य-भाव भी बार-बार पुराने संदर्भों के साथ चले आ रहे हैं। पिसे हुए आटे को फिर से पीसने की परंपरा चली आ रही लगती है जैसे।

  • अब चाहे कुछ भी हो, बाल प्रहरी को दीर्घायु बने रहने के लिए वह भी इस तरह का जीवन की पाठक बेसब्री से प्रतीक्षा करें, के लिए कुछ कड़े निर्णय लेने ही पड़ेंगे। मानता हूं और जानता भी हूं कि यह मुश्किल काम होगा,पर असंभव नहीं। वे निणर्य निम्नवत हो सकते हैं। यह सुझावात्मक निर्णय सभी के हित में होंगे। मसलन-
  • जुलाई-सितम्बर 2014 का अंक पढ़ा। संपादकीय में लिखा गया है कि ‘पिछले 10 सालों में सबसे अधिक सहयोग नन्हे दोस्तों का मिला है।’ यह बात महत्वपूर्ण है। तो क्यों न बाल प्रहरी में बच्चों की लिखी सामग्री (यदि बाल साहित्यविशेषज्ञ यह कहते हैं कि अक्सर बच्चों की लिखी सामग्री में साहित्यिक विधाओ का पुट नहीं होता।) से अधिक बच्चों के लिए उपयोगी सामग्री की अधिकता हो?
  • इसी अंक में जयप्रकाश भारती जी के बारे में दिया गया है। यही नहीं उनकी कुछ कविताएं भी दी गई हैं। यह अच्छी बात है। इधर कई अन्य पत्रिकाओं में पत्रों में भी देखता हूं कि दिवंगत दिग्गजों के विशेषांक निकाले जाते हैं। उन विशेषांकों में मौजूदा साहित्यकार दिवंगत की शान में कसीदे गढ़ते दिखाई देते हैं। संस्मरण लिखते हैं। लेकिन कितना अच्छा हो कि ऐसी सामग्री से अधिक उस दिवंगत दिग्गज की रचनाओं को ढूंढ खोजकर पाठकों के लिए एक विशेषांक निकले।
  • इसी अंक में रिक्टर स्केल के बारे में दिया गए है। अब फिर यह कि इसे देने का मतलब समझ में नहीं आ रहा।
  • इसी अंक में एक कहानी है वर्षा। सोनू ने अपनी मां से पूछा कि वर्षा क्या होती है। मां कहती है कि पापा से पूछ लेना। खैर कहानी के अंत में बच्चे पर्यावरण मित्र बनने का संकल्प ले लेते हैं। यह कहानी सूचनात्मक कहानी-सी भी नहीं लगती है।
  • इसी अंक में एक कहानी है बख्शीश। सर्दियों में मीनू नंगे पांव पाठशाला जा रहा है। रघु काका उसे जूते देना चाहते हैं। नीनू यह कहकर मना कर देता है कि वह बख्शीश नहीं लेगा। रघु के यह कहने पर कहानी खत्म होती है कि काश! सभी बालक मीनू जैसे होते। अब यह कहानी समस्या तो उठाती है। पर समाधान नहीं देती। अंत भी इतना आदर्शात्मक की हजम नहीं होता। हो सकता है कि कुछ फीसद बच्चे इस तरह के प्रस्ताव पर ऐसा ही कहेंगे। लेकिन गरीब और लाचारी को उसी हाल पर छोड़ देने का अंत देती कहानी पता नहीं क्यों कुछ अधूरापन दे जाती है। हम बच्चों की आदर्श स्थिति परोसना क्यों चाहते हैं?
  • एक कहानी इसी अंक में है। भोला भालू और चालाक बंदर। बंदर भोला भालू को चकमा देता है और उसके आलू खा जाता है। भालू बंदर भी उसे सबक सिखाता है। ईंट का जवाब पत्थर से देना टाइप का संदेश इस कथा से स्ािापित हो रहा है। जब चालाक बंदर दूसरी बार भोला भालू को चकमा देना चाहता है और उसे ही शर्मसार होना होता है तो भालू फिर भोला कहां से हो गया।
  • इसी अंक में नीदरलैंड की सैर का आलेख है। अब इस तरह के आलेखों के बारे में पहले ही चर्चा हो चुकी है।
  • इस अंक में संस्मरण भी छपा है। एहसास। संस्मरण ऐसी विधा है,जिसे हर बार आना चाहिए। एक नहीं बल्कि कई। यह भी हो सकता है कि बच्चों के स्थाई स्तंभों में भी इसे शामिल किया जा सकता है। यह एहसास नाम से प्रकाशित संस्मरण की भाषा शैली अच्छी तो है। लेकिन बच्चों की पत्रिका में ऐसे संस्मरण प्रकाशित हों, जो बच्चों को जाने-अनजाने में भा जाएं। यहां हीरा प्रथम श्रेणी से पास हुआ। दिल्ली में रोजगार के लिए गया और फिर वहीं का हो गया। उसे जानी-मानी कंपनी में नौकरी मिल गई। अब हीरा अपने परिवार के साथ दिल्ली में खुश है। यह क्या दर्शाता है? जो घर-गांव में रह गए हैं। हीरा उनसे बेहतर है? जो पलायन कर गए,वे हीरो? सुखी जीवन की यही परिभाषा है? क्या संस्मरण के तौर पर जो भी रचना सामग्री आए,वह छापी जाए? आखिर किसी रचना सामग्री का बालमन पर क्या असर पड़ेगा। यह कौन सोचेगा?
  • इसी अंक में एक कहानी है भविष्यवाणी। दो भाई थे। दोनों ज्योतिषी थे। एक ने कहा राजा का पुत्र होगा। दूसरे ने कहा पुत्री होगी। राजा ने कहा कि जिसकी भविष्यवाणी सही होगी उसे इनाम दिया जाएगा। यह तो तय है कि या तो पुत्र होगा या पुत्री? भविष्यवाणी और ज्योतिष कांड। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार में बाधक है। ऐसा नहीं है कि किसी भी अंक में यही सब कुछ है। कुछ अच्छी कहानियां भी हैं लेकिन इनकी संख्या कम है।
  • अधिकतर अंकों में कविता लिखो प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता, कहानी लिखो प्रतियोगिता, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता, अंक पहेली, सुडोकू, चित्र पहेली, पहेलिया, वर्ग पहेली, शब्द पहेली,दिमागी कसरत आदि। इतनी सारी प्रतियोगिताएं हर अंक में देकर कहीं ऐसा तो नहीं कि बाल प्रहरी भी बच्चों को गलाकाट प्रतियोगिता की दौड़ में दौड़ाने के प्रयास में लगी है? जैसा पहले भी कहा जा चुका है, क्या वाकई में किसी बाल पत्रिका में यह प्रतियोगिताएं अधिकतर बच्चों को शामिल करती हैं? क्या पत्रिका में शामिल यह प्रतियोगिताएं कहानी,कविता और अन्य विधाओं में प्रकाशित रचनाओं से अधिक लोकप्रिय होती हैं
  •  इस बहाने मैंने अन्य बाल पत्रिकाएं भी इस निगाह से टटोली। संपादकों के पास भी लचर रचनाएं आना स्वाभाविक है। कारण? कारण यही है कि जब चारों ओर से बच्चे इसी तरह की रचनाओं से लबरेज पत्रिकाओं को हाथ में लेंगे तो उन्हें आदत पड़ ही जाएगी। हम बड़े भी इसी आदत का शिकार हैं। सूचनात्मक लेखन पढ़ा है तो ऐसा ही लिखेंगे। कंडीशनिंग हो गई है। आज की पीढ़ी के साथ भी हम यही करें? यहां-वहां से पढ़कर,उतारकर, सुनकर ऐसी रचनाएं बाल प्रहरी में भारी संख्या में भेजी जा रही होंगी तो यह स्वाभाविक ही है। क्या इसे मौलिक लेखन कहा जाएगा? क्या इसे रचनात्मक लेखन कहा जाएगा?

लोककथाएं खूब छप रही हैं। अच्छी बात है। लेकिन भाषा? भाषा तो बच्चों के अनुकूल हो। कुछ कहानियां इस तरह से प्रारंभ होती हैं-‘दीपक एक होनहार छात्र था। अभाव में पला था।’ कहना अच्छा है लेकिन आज के संदर्भ में इस तरह की व्याख्यात्मक शैली से अच्छा है यह संवाद में आ जाए तो बेहतर। दूसरा उदाहरण- ‘एक गांव में एक बहुत ही सीधा आदमी था। उसे बुद्धू मियां कहते थे।’ ये सीधा आदमी और उसे बुद्धू मान लेना ! हम कहीं कुछ बातें स्थापित तो नहीं कर रहे? अब स्थापित क्या हो रहा है? कि गांव में ही सीधे लोग रहते हैं? जो सीधे होते हैं उन्हें लोग बुद्धू कहते हैं। कि सीधा होना अच्छा नहीं? ये सीधा क्या होता है? एक उदाहरण और देखिए-एक आदमी था। उसके पास एक अशरफी थी। उसे अचानक रुपयांे की आवश्यकता पड़ी। आगे कहानी में बढ़ते हैं तो बात खुलती चली जाती है। दाने-दाने को मोहताज़ आदमी के पास अशरफी हो और पैसे न हो। यदि अभाव वाला हो तो वह अशरफी को रुपयों मंे बदलेगा ही न! कहानी तो कहानी है। पर कहानी में सिर-पैर तो होगा न। कोई लयबद्धता तो होगी न। बच्चों के लिए कहानी है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि कुछ भी कह दो। कुछ भी लिख दो। कहानी पढ़ने के बाद कहानी क्या दिशा दे रही है। यह कौन सोचेगा?

एक लेख की बानगी देखें-हमारे देश में क्रिकेट एक बुखार की तरह है। हर गली,मोहल्ले एवं खेल के मैदान में यह खेल होता है। अब सवाल उठता है कि खेल अच्छा है या बुरा? सचिन तेंदुलकर जैसे कई इस बुखार में लिप्त हुए होंगे न।

‘आज मोनू के पापा टोमी बंदर को वेतन मिला।’ अब बंदर भी नौकरी करने लगे और उन्हें भी करेंसी की जरूरत आन पड़ी। ऐसा ही- जामुन का एक पेड़ था। उसमें लारी नाम की एक मधुमक्खी रहती थी। मेरी समझ में भी बहुत बाद में आया कि जानवरों के नामकरण क्यों? क्या वह अपने मूल नाम से ही कहानियों में नहीं आ सकते?

एक कहानी और देखिए-दो बार ऐसी स्थिति आ गई कि सोनू को स्कूल से निकाल दिया गया।’ इस तरह के वाक्य थोड़े से भी चंचल बच्चों में हीन भावना भर देते हैं। इस तरह के कथन से बचना चाहिए। यह निकालना क्या होता है?

एक आलेख कितना अलंकृत-सा और पढ़ने में अपने शब्दों की वजह से बोझिल-सा हो गया लगता है-‘कड़कती सर्दियों में पर्णविहीन पेड़ उदास सा खड़ा बसंत के आने के दिन गिन रहा था। इसमें ये और शब्द आए हैं-विहंग,तन,प्रगाढ़,पुलकित,कृतज्ञ,निष्ठुरता,क्रम आदि।’ क्यों हम अति साहित्यिक हो जाएं? क्या यह स्वतंत्र वाचन या यूं कहूं कि पढ़ने का आनंद में बाधक नहीं। क्यों हम बड़े जो कुछ भी बच्चों के लिए लिखते हैं उसमें ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते जैसा बच्चों को पसंद हो। मतलब इतना ही है कि आम बोलचाल की भाषा हमारी रचनाओं में क्यों नहीं होती?

और अंत में – मैं जानता हूं कि यदि आरंभ से लेकर अंत तक बालमन के हितों को ध्यान में रखकर मेरे मन की उपर्युक्त बातों को सकारात्मक लिया जाएगा, तो न ही संपादक महोदय, बाल प्रहरी टीम-परिवार और बाल प्रहरी के नियमित रचनाकार भी कम से कम मेरी इस नज़र को किसी पूर्वाग्रह के साथ नहीं जोड़ेंगे। रही बात बच्चों की, तो कमोबेश उन्हें अभी तक स्वतंत्र तौर पर सोचने की आज़ादी हम बड़ों ने दी कहां है?

उम्मीद की जानी चाहिए कि बाल पत्रिका ही नहीं और भी बाल पत्रिकाओं से जुड़े संपादकीय साथी,अग्रज और जानकार उचित तर्को पर कान देंगे। जल्द नहीं तो एक एक कर मैं अन्य बाल पत्रिकाओं को भी अपनी नज़र से देखना चाहूंगा। मैं अपने साथियों से भी अनुरोध करुंगा कि वे भी सकारात्मक दृष्टि के साथ पत्रिकाओं की समीक्षा करेंगे। मैं अभी खुद ही अच्छा पाठक बनने की प्रक्रिया में हूं। बाल साहित्यकार तो दूर की बात है। मैं अभी खुद ही कहानी की समझ को समझ रहा हूं। उम्मीद करूंगा कि जानकार मेरा भी मार्गदर्शन करेंगे।

सभी को सादर,

मनोहर चमोली ‘मनु’

मनोहर चमोली 'मनु'

मनोहर चमोली ‘मनु’ पौड़ी गढ़वाल में रहते हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाआंे में कहानी, कविता, नाटक और व्यंग्य प्रकाशित। प्रमुख कृतियाँ -‘हास्य-व्यंग्य कथाएं’, ‘उत्तराखण्ड की लोक कथाएं’, ‘किलकारी’, ‘यमलोक का यात्री’, ‘ऐसे बदला खानपुर’, ‘बदल गया मालवा’, ‘बिगड़ी बात बनी’, ‘खुशी’, ‘अब बजाओ ताली,’ ‘बोडा की बातें’, ‘सवाल दस रुपए का’, ‘ऐसे बदली नाक की नथ’ और ‘पूछेरी’। बाल कहानियों का एक संग्रह ‘व्यवहारज्ञान’ मराठी में अनुदित। उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा में कक्षा 5 के बच्चे ‘हंसी-खुशी’ पाठ्य पुस्तक में इनकी कहानी ‘फूलों वाले बाबा’ पढ़ रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड की शिक्षक संदर्शिकाओं और पाठ्य पुस्तकों ‘भाषा रश्मि’, ‘बुरांश’ और ‘हंसी-खुशी’ में लेखन और संपादन भी किया। कहानी सुनना और सुनाना इनका शौक है। घूमने के शौकीन। पैदाइश उत्तराखण्ड के जनपद टिहरी के गाँव पलाम की है। पहले पत्रकारिता की फिर वकालत। फिलहाल बच्चों को पढ़ाते हैं। बच्चों के साथ अधिक समय बिताते हैं। पिछले एक दशक से बच्चों के लिए लिखते हैं। भितांई, पोस्ट बाॅक्स-23,पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल। पिन-246001.उत्तराखण्ड. मोबाइल-09412158688.

One thought on “बाल पत्रिका: ‘बाल प्रहरी’ के बहाने

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा जानकारी पूर्ण लेख !

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