धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्या ईश्वर है?

क्या ईश्वर है, है या नहीं? इस युक्ति व तर्क से देखते हैं कि यथार्थ स्थिति क्या है? इससे पूर्व कि ईश्वर की चर्चा करें हम पहले मनुष्य जीवन की चर्चा करते हैं। लोग हमसे पूछते कि आप कौन हैं? हम उत्तर हैं कि मैं मनमोहन हूं।  यहां मैं स्वयं अर्थात् अपने अस्तित्व को स्वीकार कर रहा हूं और यह नहीं कह रहा हूं कि मैं नहीं हूं, मैं कह रहा हूं कि मैं हूं और मेरा नाम मनमोहन है। अब यदि मेरा अस्तित्व है तो यह अस्तित्व कब व कैसे अस्तित्व में आया? हम समझते हैं कि संसार में किसी मनुष्य को यह भ्रान्ति नहीं है कि उसका अस्तित्व नहीं है। हमारा अस्तित्व कब व कैसे उत्पन्न हुआ, इस पर विचार करने पर पता लगता है कि अमुक तिथि को हमारा जन्म हुआ था। यह वह तिथि है जिसका ज्ञान हमें अपने माता पिता से व पाठशाला आदि के अभिलेख से हुआ है जिसे हमारे माता-पिता अंकित कराते हैं। माता-पिता से जन्म से पूर्व हम माता के गर्भ में रहते हैं। ज्ञान-विज्ञान से ज्ञात होता है कि वहां भी हमारा प्रवास हिन्दी महीनों के अनुसार पूरे 10 माह और अंग्रेजी के महीनों के अनुसार लगभग 9 माह का होता है। इस 10 माह 9 माह से पूर्व हमारा अस्तित्व था या नहीं? विज्ञान के पास इसका समुचित उत्तर नहीं है। विज्ञान का एक नियम है कि कारण के बिना कार्य नहीं होता अर्थात् कार्य के लिए कारण की आवश्यकता है। यदि माता के गर्भ में हम आयें तो दो सम्भावनायें होती हैं कि या तो कोई एक अत्यन्त सूक्ष्म तत्व कहीं से अर्थात् आकश या वायु से आया या फिर वह वहीं उत्पन्न हुआ हो। इसके लिए हमें अपने शरीर पर ध्यान देना होगा। जीवित अवस्था में हमारा शरीर दो भिन्न प्रकृति वाले पदार्थों का समन्वित रूप होता है। एक चेतन तत्व है और दूसरा जड़ तत्व। यह जड़ तत्व तो अन्नमय होता है, जो माता व हमारे अन्नमय भोजन का परिणाम है और दूसरा चेतन तत्व एक अत्यन्त सूक्ष्म तत्व है जो जन्म से मृत्यु पर्यन्त एक समान व एक आकार प्रकार वाला रहता है। इस चेतन तत्व का स्वरूप ज्ञान व कर्म अथवा गति है जो कि जड़ पदार्थों के स्वरूप वा गुणों से सर्वथा भिन्न है। अन्न जहां प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं का परिणाम हैं वहां यह सूक्ष्म चेतन तत्व आत्मा प्रकृति का परिणाम न होकर इससे सर्वथा भिन्न व पृथक तत्व है। इस आत्मा के लिए ही हमें हमारा यह मनुष्य शरीर मिला हुआ अनुभव होता है। इसका निर्माण कैसा हुआ। इसका उत्तर किसी के पास नहीं। वैज्ञानिकों ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया या यों कहिये कि यह विज्ञान का विषय ही नहीं है। यह इस कारण कि विज्ञान तो भौतिक पदार्थों का अध्ययन कर उसका ज्ञान कराता है। शरीर में चेतन तत्व जिसे आत्मा कहते हैं, वह अभौतिक व चेतन है जो विज्ञान के अध्ययन से परे है।

इस चेतन तत्व जीवात्मा के अध्ययन के लिए हमें वेद और उपनिषदों की शरण लेनी पड़ती है जहां जीवात्मा को शाश्वत व सनातन अर्थात् नित्य कहा गया है। यह नित्य पदार्थ अनादि, अनुत्पन्न होने के कारण अमर व अवनिाशी होता है अर्थात् इसका अस्तित्व हमेशा बना रहेगा। शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद भी यह जीवात्म तत्व शरीर से निकल कर आकाश व वायु में रहता है। माता में गर्भाघान के समय यही तत्व पिता के शरीर से माता के शरीर में आकर 10 महीनों तक भौतिक शरीर से युक्त, सम्पन्न व पुष्ट होकर जन्म लेता है। जन्म के बाद इसमें वृद्धि देखी जाती है और फिर ह्रास का क्रम चलता है जिसे वृद्धावस्था कहते हैं और इसके बाद पुराने वस्त्रों की भांति यह जीवात्मा शरीर को त्याग कर कर्मानुसार एक अन्य चेतन सत्ता ईश्वर की प्रेरणा से नये शरीर में चला जाता है। जीवात्मा से रहित शरीर शव कहलाता है जिसका दाह संस्कार कर इसे इसके मूल प्राकृतिक व भौतिक पंचतत्वों में विलीन कर दिया जाता है। जब तक जीवात्मा शरीर में रहता है तब तक जीवन रहता है। जब शरीर से निकलता है उस समय भी यह आंखों से दिखाई नहीं देता जिसका एक ही कारण है कि यह अत्यन्त सूक्ष्म तत्व है जो आंखों के देखने की क्षमता व सामर्थ्य में नहीं है। वेदों, दर्शन व उपनिषद आदि में उपलब्ध इस जीवात्मा की अनेक प्रकार से पुष्टि होती है जिससे आत्मा का प्रकृति से पृथक अस्तित्व युक्ति, तर्क व वैदिक शास्त्रों से सिद्ध होता है।

यह विज्ञान का सिद्धान्त है कि यह सृष्टि प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं से मिलकर बनी है। अब दो प्रश्न हैं जिनका समाधान हो जाने पर ईश्वर के अस्तित्व का निर्णय हो जायेगा। प्रश्न यह है कि इस सृष्टि के परमाणुओं को किस सत्ता ने एकत्रित कर ज्ञान व बुद्धि पूर्वक इसके परमाणुओं से भिन्न भिन्न पदार्थ सूर्य, चन्द्र व पृथिवी तथा पृथिवीस्थ सभी पदार्थों को बनाया है। हम यह भी जानते हैं कि हम जिस सौर मण्डल में हैं ऐसे अनन्त सौर मण्डल इस ब्रह्माण्ड में हैं। इस ब्रह्माण्ड का परिमाण अनन्त हैं। इससे एक ऐसी सत्ता का होना सिद्ध होता है जिसने प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं को ज्ञान व शक्ति से बुद्धिपूर्वक एकत्रित कर इस संसार को रचा है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि बिना रचयिता के कोई रचना नहीं होती। अतः यह ब्रह्माण्ड ऐसी ही सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, धार्मिक, दयालु, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त सत्ता से अस्तित्व में आया है। यदि वह सत्ता न होती तो परमाणु कदापि स्वयं जुड़कर वर्तमान ब्रह्माण्ड का निर्माण नहीं कर सकते थे क्योंकि प्रकृति व हमारी सृष्टि एक जड़ पदार्थ है जिसमें बुद्धि व ज्ञान का सर्वथा अभाव है। इस प्रकार से संसार में तीन तत्व व पदार्थ, ईश्वर, जीवात्मायें एवं प्रकृति सिद्ध हो रहे हैं जिनका अस्तित्व है। यह अनादि व नित्य हैं, यह न स्वयं बने हैं और न इन्हें किसी ने बनाया है, कारण कि इन तीन सत्ताओं से भिन्न अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। अतः यह सृष्टि सृष्टिकर्ता के गुणों से सम्पन्न सत्ता=ईश्वर के द्वारा बनती व बिगड़ती रहती है। इनका नियंत्रक व स्वामी यही सत्ता ईश्वर है। इसी ईश्वरीय सत्ता ने इस पृथिवी ब्रह्माण्ड के अन्य लोकों में हमारी पृथिवी के समान मनुष्यादि सभी प्राणियों को बनाया है और वही सबका पालनकर्त्ता है। इससे यह रहस्य भी समझ में आ जाता है कि नित्य जीवात्मा कर्म बन्धन में फंसा हुआ है। कर्मानुसार जन्म लेकर यह भिन्न भिन्न योनियों को प्राप्त होता है वहां कर्म योनियों में कर्मों को करता व उनका फल भोगता है तथा भोग योनियों में जन्म लेकर केवल भोगों को भोग कर मृत्यु के बाद कर्म संचय अर्थात् प्रारब्ध के अनुसार नये नये जन्म प्राप्त करता रहता है। यह सभी जन्म स्वतः या अपने आप नहीं होते, इनको देने वाला सत्य व ज्ञान स्वरूप ईश्वर है जिसका स्वरूप सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप है।

कार्य कारण सिद्धान्त की चर्चा हम पूर्व कर चुके हैं। यह सृष्टि ब्रह्माण्ड तथा सभी प्राणि कार्य हैं जिसका निमित्त कारण केवल परमात्मा ही सिद्ध होता है। यदि परमात्मा वा ईश्वर को नहीं मानेंगे तो हमें सृष्टि व मानव आदि प्राणियों के अस्तित्व से भी इनकार करना होगा, इसलिये की यह सभी कार्य हैं और कोई भी कार्य बिना निमित्त कारण के नहीं होता। यह ऐसा ही है कि जैसे बिना माता-पिता के सन्तान नहीं हो सकती या बिना इंजीनियर, वैज्ञानिकों, उद्योग, मशीनों, मजदूरों व बनाने के समान के बिना कोई पदार्थ कम्प्यूटर, मोबाईल, रेल, जहाज, वस्त्र आदि नहीं बन सकते। ईश्वर इस भौतिक अभौतिक जगत का प्रमुख निमित्त कारण है। यह सृष्टि व प्राणि जगत उसी की रचना व कला (Art)  है। इस विवेचन से ईश्वर की सत्ता सिद्ध हो गई है। क्या ईश्वर है? इसका उत्तर मिल गया है कि ईश्वर है और वह सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। यही ईश्वर ही संसार के हम सभी मनुष्यों का उपासनीय भक्ति करने के योग्य है। इस उपासना भक्ति से ही हमें जीवन के लक्ष्य धर्मअर्थकाम मोक्ष की प्राप्ति होती है वा होगी। इस चर्चा के साथ ही हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य