आत्मकथा

स्मृति के पंख – 4

एक दिन पड़ोस में गन्दम (गेहूँ की एक किस्म) पिसवाने के लिए चक्की पर देने के लिए गया। हम 10-12 सेर गन्दम ही पिसवाते और ताजा ही आटा ज्यादा पसन्द करते। जब वापिस आ रहा था, एक नम्बरदार की कुतिया थी, जिसने बच्चे दिये थे। उसने मुझे टांग पर बहुत बुरी तरह काट लिया। खून बह रहा था और मैं रो रहा था। ऐसी ही हालत में दुकान पहुँचा। भ्राताजी दुकान पर थे। मुझे ऐसी हालत में देखकर पूछा ‘‘क्या हुआ?” मैंने कहा, “नम्बरदार की कुतिया ने काटा।” भ्राताजी का गुस्सा बर्दाश्त के बाहर हो गया। बन्दूक उठाकर नम्बरदार के घर जाकर, कुतिया पर फायर कर दिया। कुतिया मर गई। अब नम्बरदार और काफी लोग भ्राताजी को मरने मारने के लिए तैयार थे।

मौके की नजाकत पिताजी ने देखी और चाचाजी को बुला भेजा। वो एकदम आ गए। बाहर लोगों का हुजूम है। पिताजी और चाचाजी दुकान का दरवाजा खोलकर सड़क पर आ गए। मीर असलम जो नम्बरदारों का मुखिया था और बुजुर्ग था, उन्हें बुलाया और अपनी तरफ से उससे माफी मांग ली कि बच्चा था। गुस्से में गलती कर बैठा और इस तरह कुतिया ने मरना था। आपसे ज्यादा अफसोस और गुस्सा हमको है काशीराम पर। लेकिन जो होना था हो गया। अब आप सब बच्चों को समझा कर ले जाएं। हमारी जिन्दगी में कोई दरार नहीं आनी चाहिए। उन्हें कुतिया के बजाए इस बात का ज्यादा गुस्सा था कि मुअजिज घराने की पर्दादार खातून घर में बैठी थीं। काशीराम ने ऐसा क्यों नहीं सोचा। फिर भी मीर असलम ने सब लोगों को और अपने बच्चों को समझा बुझाकर शान्त किया और वो लोग चले गये। बहुत बड़े बलबे का डर था। सिर्फ पिताजी और चाचाजी के सेवा त्याग ने उन लोगों को शान्त कर दिया।

कुछ अर्सा बाद सर्दियों के दिन थे। रात को फायरिंग शुरू हो गई। दो किस्म की फायरिंग होती थी। अगर 9-10 बजे के दरम्यान रात को छर्रेदार बन्दूक से फायरिंग होती, तो उसका मतलब था किसी के घर में लड़के का जन्म हुआ है। उसके दोस्त, उसके घर आकर फायरिंग करते। एक तो खुशी मनाने का साधन था, दूसरा बच्चा डरे न, यह उनका ख्याल था। दूसरी फायरिंग अगर 12-1 बजे रात को हो जाए तो समझना डाकू हैं। हम सब लोग छत पर चढ़कर देखते। यह डाकू थे। भ्राताजी सबसे पहले छत पर पहुँचे। हम सब भी उनके पीछे। हमारी साथ वाली दुकान हरिचन्द गोकुलचन्द की थी, वो उसका दरवाजा तोड़ रहे थे। भ्राताजी ने दो फायर किये। डाकू दुकान छोड़कर घर की तरफ आ गए। घर का दरवाजा हमारी बन्दूक की पहुँच से बाहर था। रास्ते में हमारी ड्योढ़ी पड़ती थी। रघुनाथ हमारे घर था। मेरी मौसी का लड़का था, उसकी माँ गुजर गई थी। छोटा था। उसे किसी ने जगाया नहीं, वो सोया ही रहा।

भ्राताजी ने सोचा कि कारतूस सिर्फ 10 हैं। डाकुओें से अकेले में मुकाबला करना मुश्किल है। उसका एक दोस्त था, बुलन्द खान। उसके पास बन्दूक भी थी वह और किसी को भी साथ ला सकता था। हम तो साथ वाले मकान में चले गए मुसलमानों का घर था। भ्राताजी बुलन्द खान तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। नवाब की गढ़ी के पास पहुँचे तो पुलिस ने वार्निंग दी और भ्राताजी को रोक लिया। मुखबिर की इत्तलाह पर पुलिस भी आई हुई थी, फिर भी डाकू डाका डालकर फरार होने में कामयाब हो गए। हम सब लोग सीधे उनके घर गए। जहाँ डाकुओं को हमने घुसते देखा था। उनके सहन में देखा, हमारी लैम्प पड़ी है। पिताजी से कहा कि यह हमारी है और फिर हमारा माथा ठनका।

उस घर और हमारे घर के दरमियान एक दीवार थी और सीढ़ी दोनों ओर लगी थी। दुकान और घर के दरवाजे तो मुकम्मल बन्द थे लेकिन नुकसान हमारा काफी हुआ था। भ्राताजी दोबारा नीचे आ गए थे। भाभीजी का जेवर अलमारी से निकाल कर ले गए। माताजी का जेवर अपनी अलमारी में था और चाभी भ्राताजी के पास नहीं थी, इसलिए वो नुकसान हो गया। दुकान से बजाजी वगैरह काफी ले गए। पुलिस कप्तान को काफी अफसोस था और उसकी बदनामी भी काफी थी। अंग्रेज था। नया-नया आया था। पूरे इंतजाम के बावजूद डाकू फरार होने में कामयाब हो गए। दौरान-ए-तफतीश कुछ दिनों में पुलिस ने दो मकानों पर छापा मारा।

कुछ चोरी का सामान और बाजारी कपड़े बरामद हुए। उनकी निशानदेही पर सब डाकू गिरफ्तार हो गए। जिस दिन दो मकानों पर पुलिस ने छापा मारा। हमने सोचा पुलिस क्या कर रही है ? ये लोग डाकू नहीं हो सकते। लेकिन अब तो सब कुछ हमारे सामने था। वो दोनों अण्डे बटोरने दूर-दूर तक जाते थे। उन्होंने इलाका गैर से कुछ डाकुओं को साथ मिलाया। डाकू काफी दूर से और पूरा इंतजाम करके आए थे। हरिचन्द गोकुलचन्द के मकान से उन्हें कुछ खास माल मिला नहीं, सो डाकू उन दोनों को मारने लगे और उन्होंने हमारे घर की तरफ इशारा कर दिया। वो दीवाल फांदकर आए और हमारा काफी नुकसान हो गया। कपड़ा और बाजारी तो मिल गए, लेकिन जेवर नहीं मिला। उन डाकुओं को 14 साल व 10 साल की सजाएं हुई।

लोगों में ऐसी भावना फिर पैदा हुई कि सब डाकू पकड़े गए और भारी सजा उन्होंने पाई। इससे पहले किसी डाके में ऐसा नहीं हुआ था। सन् 1930 में कैद हुआ, तो जेल में उन लोगों से मुलाकात हुई। मैंने कहा, “भई तुम तो हमारे दोस्त लोग थे तुमने हमारे घर डाका डालने का क्यों सोचा।” वो बहुत परेशान थे, लेकिन जो होना था वो तो हो चुका था। उन्होंने कहा, “डाका सिर्फ हरिचन्द के मकान पर डालने का प्रोग्राम था। वहाँ से कुछ मिला नहीं और जो डाकू थे, वो बहुत सख्त आदमी थे। हमें मारने की ठानी और डर की वजह से हमने आपका घर बतला दिया। हमें बहुत अफसोस है और जो किया था उसकी सजा पूरी भुगत रहे हैं।”

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

4 thoughts on “स्मृति के पंख – 4

  • विजय भाई , उस समय की दास्तान कुछ ऐसी है कि आजादी के बाद भी ऐसे डाके पड़ते थे .हम तो छोटे थे लेकिन बजुर्गों से सुनते थे , उस के घर चोरी हो गई, वोह लूट लिए , बदमाश आ गए , ऐसे किस्से अक्सर सुनने को मिलते थे . अपने तजुर्बे से मैं भी कुछ देर बाद वर्णन करूँगा . किसी से कोई बात सुनना इलग्ग होता है लेकिन उस को लिख कर वर्णन करना इलग्ग होता है . बहुत रोचक आतम कथा है .

  • गुलशन कपूर

    मुझे लगता है हर आम आदमी की जीवनगाथा रामायण महाभारत जैसे ही है। हम कौन से पात्र को जिएगे हम पर निर्भर करता है।

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेखक की आप बीती सत्य घटनाओं को पढ़कर लेखक के जीवन की आगे की घटनाएँ जानने की इच्छा हो रही है। धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक कहानी !

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