सामाजिक

लेख : फ़ेसबूक सिंड्रोम

फ़ेसबूक …..मानव मन के अभिव्यक्ति का अनुपम संसार ,जहां कल के लिए कुछ भी नहीं टाला जाता है जैसे ही मन में कोई विचार आया तुरंत उसे अपलोड कर दिया | जितना चंचल मानव मन उतना ही चंचल फ़ेसबूक की आभासी दुनियां जहां सबकुछ बड़ी ही सहजता से परोसा जाता है | कई मानसिक बीमारियों की तरह ‘फ़ेसबूक सिंड्रोम’ नामक बीमारी का भी पता हमें तब चलता है जब हम इसके गिरफ्त में पूरी तरह से कैद हो जाते हैं | यह अलग बात है कि इस फ़ेसबूक की आभासी दुनियां मे कई ऐसे मित्र भी मिले जो जीवन का एक अंग बन गए ,बहुतों ऐसी जानकारी भी मिली जिसका इतिहास बड़ा ही रोचक व ज्ञानवर्धक रहा |

फ़ेसबूक ही वह मंच है जहां अपनी बात को स्वतंत्र रूप से रख पाने का सुख मिलता है ,जहां स्वस्थ संवाद के इरादे से कभी लाइक तो कभी कमेन्ट का बटन दबाकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का सुखद संसार मिला वहीं कब बीमारी बनकर हमारे तन-मन पर अपना डेरा जमा लिया | जब भी किसी निराशाजनक टिप्पणी आपने व्यक्त किया झट उसी क्षण कई ऐसे सांत्वना के , समझाने के ,उत्साहवर्धन के शब्द मिलते हैं जिससे आप तुरंत आपने आप में एक जोश,एक उत्साह व आत्मविश्वास का अनुभव महसूस करते हैं | पर खतरे की बात तो तब होती है जब इसकी आदत होने लगती है , इसका नशा होने लगता है | लाइक-कमेंट्स कम मिलने पर गज़ब का उपेक्षा का भाव पनपने लगता है ,चिड़चिड़ापन होने लगता है और हालत यहाँ तक हो जाती है कि लोग आपने मन में उपज रहे इस भाव को स्टेटस के जरिये लोगों तक बड़ी ही सहजता से परोसते हैं और बदले में वाहवाही की संपदा बटोरते हैं कुछ लोग तो यहाँ तक भी लिखने में अपनी शान समझते हैं कि आज मुझे किस-किस ने मिस किया,किसने सबसे पहले गुड्मोर्निंग विश किया ,तो आइये चाय पी जाइए आदि-आदि.

पर क्या आप इस आभासी दुनियां से इतर भी इन फलसफ़ों को अपनी ज़िंदगी में उतारते हैं……? कभी अपने घर में अपने पति से, अपनी पत्नी से अपने बच्चों से तथा अपने सास -स्वसुर से जब आप इस तरह के प्रश्न करेंगे तो जाहीर है यहाँ भी बदले में प्रेम ही मिलेगा पर नहीं वो शायद इन सब चीजों के लिए नहीं बने हैं | क्योंकि इंसानी फितरत है जो उसके पास है उसकी कद्र नहीं करता है और जो उसके पहुँच से दूर है मन हमेशा वहीं भटकता है | यह एक भयंकर बीमारी है ,पर शायद कुछ लोगों को नागवार भी लगेगा क्योंकि हर व्यक्ति के सोचने-समझने और जीने का अपना अलग तरीका है | पर एक दुखद सत्य यह है कि आभासी दुनियां का यह सच हद की परिधि से बाहर टहल रहा है ,और आनेवाले समय में एक जटिल व्याधि के रूप में सामने आने वाला है | हमारा सामाजिक दायरा कम कर हमारी जीवन की व्यापकता को जकड़कर एक आभासी संसार के इर्द-गिर्द सिमट कर रख दिया है जिसका बेहतर भविष्य मुझे तो कम से कम नहीं दिखता क्योंकि जीवन का एक बेहतर फलसफा है .”अति सर्वत्र वर्जयते ” …..! कभी-कभी तो हमें हैरानी होती है कि जिस स्टेटस पर झट से लाइक-कमेंट्स मिलने शुरू हो जाते हैं ,उसे तो पढ़ने और समझने में ही कम-से-कम दो मिनट लगते हैं फिर सेकेंड्स में कोई लाइक-कमेंट्स कैसे दे सकता है….?

पर हम मानव की सबसे बड़ी कमजोरी होती है प्रशंसा …..! वह इस समय कुछ भी सोचने-विचारने के मूड में नहीं रहता है उसे तो बस लाइक-कमेंट्स की गिनती करने में मजा आता है | लेकिन जैसे ही यह क्षणिक सुख देनेवाला आनंद हमारी कमजोरी बनने लगती है एक अवसाद एक खालीपन घेरने लगता है ,तब हजारों दोस्तों के लाइक-क्मेंट्स कोई काम नहीं आता और उस दुख की घड़ी में परिवार का ही कोई अपना हमें इस गर्त से निकालता है | आज तो हालत यह हो गई है कि लोग अपने माँ-बाप से या अपने सगे-संबंधियों से यह कहकर भी अपना गुबार निकालते हैं कि …..आप को ही मेरे मे कमियाँ दिखती हैं मेरे फ़ेसबूक दोस्त तो मेरी कितनी तारीफ करते हैं ,आपसे अच्छे तो मेरे दोस्त हैं आदि-आदि | सच मानिए, आपके अपने आपको विचलित करने को नहीं वरन आपका उत्साह बढ़ाने को हैं पर इस आभासी दुनियां का घेरा आपके मन को इस कदर जकड़ लेता है कि आप उससे ज्यादा सोच ही नहीं सकते हैं |

यह भागते-दौड़ते जीवन की एक ‘मरीचिका’ है , इसे पाने की चाह में हम आफ्नो से कितनी दूर निकल आए हैं शायद इसका अंदाजा भी हमें नहीं है | हमारे खुद के बुने हुये अकेलेपन ने , खुद को प्रशंसित करने की चाह ने,दूसरों द्वारा अस्वीकृत होने और पीठ थपथपाए जाने की आकांक्षा के लिए इस आभासी दुनियां ने द्वार खोले दिये और हम बिना सोचे समझे उसकी अंटीं गहराइयों में खोते चले गए | जरा सोचिए, जो व्यक्ति आपसे मिला नहीं जो हजारों किलोमीटर दूर बैठकर आपके हर क्रिया-कलापों के नजर रखे है व आपको शाबाशी दे रहा है ,भला ऐसे में हमारा चंचल मन क्यों न अटखेलियाँ करे …….? मानव की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी प्रशंसा है,व्यक्ति खुद को एक नशे में डूबता-उतराता महसूस करता है | हर व्यक्ति के अंदर वास्तविकता से परे एक सैलाब,एक कोलाहल बिखरा हुआ है जो हाथ पकड़कर खींच ले जाता है दूर…..बहुत दूर एक आभासी संसार में | इस आभासी संसार के जरूरत से ज्यादा ज़िंदगी में दाखिल होने के तमाम जोखिम हैं , जिसका अक्सर पता ही नहीं चल पता है ,जिसका दुष्परिणाम कुछ यूं होता है ….

  • आसपास के लोगों से संपर्क कम हो जाता है
  • फोन पर भी संपर्क कम हो जाता है
  • सामाजिक गतिविधियां नहीं के बराबर रह जाती है
  • घूमना-फिरण,आउटडोर सर्कल कम हो जाता है
  • लाइफ स्टाइल बांध सी जाती है
  • नए-नए फ़ेसबूक फ्रेंड में दिलचस्पी बढ्ने लगती है

अगर कभी किसी वजह से इन्टरनेट की सुविधा बाधित हो गई तो बेचैनी का प्रकोप बढ्ने लगता है | कहीं-कहीं तो यह भी देखने को मिलता है कि अगर माँ-बाप या फिर घर का कोई व्यक्ति इस आभासी दुनियां का उपयोग कम करने या बंद करने की सलाह देता तो व्यक्ति जुनूनी हरकत करने लगता है |
फ़ेसबूक का इस्तेमाल बुरा नहीं है ,पर किस हद तक ……? यह तय करना आपकी ज़िम्मेदारी है |

संगीता सिंह ‘भावना’

संगीता सिंह 'भावना'

संगीता सिंह 'भावना' सह-संपादक 'करुणावती साहित्य धरा' पत्रिका अन्य समाचार पत्र- पत्रिकाओं में कविता,लेख कहानी आदि प्रकाशित

One thought on “लेख : फ़ेसबूक सिंड्रोम

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख !

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